ससुराल का सरनेम – डॉ पारुल अग्रवाल

आज दिव्या बहुत परेशान थी, रह-रहकर उसे अपनी चाची सास का व्यवहार बहुत कचोट रहा था।असल में हुआ ऐसा था उसकी ससुराल जहां थी वहां पर एक बहुत बड़ा सामाजिक आयोजन हुआ था जिसमें दिव्या को भी सम्मानित किया जाना था। दिव्या शादी से पहले भी पढ़ाई- लिखाई में काफी अच्छी थी और एक अच्छे पद पर कार्यरत थी। शादी के बाद उसकी नौकरी करने पर भी वो काफ़ी कानाफूसी अपने लिए सुन चुकी थी,पर तब उसको इतना ज्यादा बुरा नहीं लगा था क्योंकि वो आधुनिक विचारों की जरूर थी पर अपने कैरियर को लेकर अधिक महत्वाकांक्षी नहीं थी। उसको लगता था,ये हर स्त्री का अधिकार होना चाहिए कि उसे घर पर रहना है या बाहर जाकर काम करना है। 

खैर इसी तरह दिन बीत रहे थे,जब उसको लगा कि नौकरी की वजह से वो बेटी पर ध्यान नहीं दे पा रही तो उसने नौकरी छोड़ दी। घर पर ही रहकर वो नए कैरियर के आयाम खोजने लगी जिससे बेटी भी पल जाए और उसको भी अपनी मंजिल मिल जाए। जैसे ही बेटी थोड़ा संभली उसने सबसे पहले बी.एड किया, फिर एम.एड। इसके बाद उसको शिक्षा संस्थान में नौकरी मिल गई । नौकरी के साथ उसने अपनी आगे की पढ़ाई भी जारी रखी। उसने अपने बचपन के सपना जो की उसके नाम के आगे डॉक्टर लगना था वो पूरा किया। इतना सब करने के लिए उसने कभी परिवार को नजरंदाज नहीं किया।

 अगर उसकी पीएचडी की पढ़ाई पूरी नहीं होती थी तो वो रात को जाग जागकर अपना काम पूरा करती थी। ये सारी लड़ाई उसने अपने बलबूते पर लड़ी थी। इस लड़ाई में उसके पति और बेटी ने साथ दिया था पर उसने इसके लिए कभी ना तो ससुराल से किसी सहयोग की अपेक्षा की थी,ना ही कुछ मांगा था। जिंदगी अपनी रफ्तार से चल रही थी उसकी मेहनत रंग लाने लगी थी। 

उसकी पीएचडी पूरी हुई, उसके नाम के आगे डॉक्टर लग गया। ये सब शिक्षा प्राप्त करने में उसने अपना सरनेम नहीं बदला था वो अभी भी अपना मायके वाला नाम डॉक्टर दिव्या शर्मा ही लिखती थी क्योंकि उसको इसकी कभी जरूरत ही महसूस नहीं हुई। उसके पति ने भी कभी उसको ऐसा करने के लिए नहीं बोला था। वैसे भी उसका खुद का मानना था कि शिक्षा और नौकरी के पत्रों में हाईस्कूल वाला नाम ही रहे तो ज्यादा परेशानी नहीं होती। उसके लिए कभी ये बहुत सोचने वाला मुद्दा नहीं रहा। पर एक इसी बात पर उसके ससुराल के लोगों ने, विशेषकर इसकी चाची सास ने बहुत बड़ा मुद्दा बना दिया। 



हुआ यूं, दिव्या की साहित्य में भी रुचि थी इसलिए अब उसकी कहानी और कविता कई पत्रिकाओं में छपने लगी थी।उसके साहित्य में योगदान के लिए ही उसे उसके ससुराल के सामाजिक कार्यक्रम में सम्मान मिलना था। जब उसका नाम पुकारा गया तो उसमें उसके मायके का सरनेम,उसके नाम के साथ लगा था। जब वो स्टेज पर पहुंची तब भीड़ में उपस्थित सभी ने उसका स्वागत किया पर उसके ससुराल पक्ष के लोग जिसमे उसकी चाची सास भी शामिल थी ने जोर जोर से चिल्लाना शुरू कर दिया किया ये दिव्या शर्मा नहीं दिव्या भारद्वाज है। कैसे ये अपने मायके का सरनेम लगा सकती है?

किसी तरह से इस शोर-शराबे के बीच कार्यक्रम संपन्न हुआ जैसे ही वो मंच से नीचे आई, उसके ससुराल पक्ष की महिलाओं ने उसको कोई बधाई ना देकर उसको सरनेम ना बदलने पर ही सुनाना शुरू कर दिया। उसका साथ देने के लिए वहां कोई नहीं था क्योंकि पति भी किसी काम से बाहर थे। आज उसको अपने संघर्ष के वो दिन भी याद आ रहे थे जब उसकी बच्ची छोटी थी,वो अपनी नौकरी और परिवार के बीच फंस गई थी तब तो ये खानदानी लोग गायब थे। 

आज जरा सा सरनेम ससुराल का नहीं लगाने पर उसको पूरी दुनिया के सामने उल्टी-सीधी सुना रहे हैं। उसका दिल से सम्मान मिलने की खुशी तो कहीं चली ही गई थी। मन बहुत दुखी था, उसे लगा कि हम चाहे कितने भी आधुनिक क्यों ना हो जाए पर सोच में हम अभी भी पिछड़े हैं। आज भी एक नारी को अपने मन से अपना सरनेम लिखने का अधिकार नहीं है क्योंकि एक महिला ही दूसरी महिला की सोच का सम्मान नहीं करती। 

दोस्तों मेरा मानना है कि ये महिला सशक्तिकरण सब आडंबर है,अगर नारी ही नारी की भावना का सम्मान नहीं करेगी।।

#रक्षा

डॉ पारुल अग्रवाल,

नोएडा

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