सन्यासी – मुकुंद लाल 

गर्मी का मौसम था। स्कूल मार्निंग हो गया था। वसुधा सुबह उठकर सबसे पहले उसने अपने दैनिक कार्यों को निपटाया, फिर अपने पुत्र आलोक, पुत्री रितु, दोनों को दुलारे-पुचकारते हुए उठाया। दोनों उठकर दैनिक क्रिया-कर्म में लग गए। उससे फारिग होकर स्कूल जाने की तैयारी में जुट गये। वसुधा ने भी फुर्ती से चाय-नास्ता तैयार कर दिया।

  सुबह साढ़े छः बजे तक मांँ अपने बेटे-बेटी के साथ घर से निकल जाती थी स्कूल जाने के लिए।  वसुधा की इसी नियम के अनुसार ग्रीष्म ऋतु की दिनचर्या शुरू होती थी, फिर दोपहर तक मांँ, पुत्र-पत्री अपने-अपने विद्यालय से घर लौट आते थे। मांँ प्राइमरी स्कूल में शिक्षिका थी। बेटा दशवीं कक्षा में और बेटी नवमीं कक्षा में पढ़ रहे थे।

  उस दिन सुबह जब वे लोग स्कूल की तैयारी में लगे हुए थे कि अचानक दरवाजे पर दस्तक होने लगी। वसुधा बड़बड़ाई इस वक्त कौन पहुंँच गया सुबह-सुबह। वह किचन में व्यस्त थी। उसने आलोक को कहा कि देखो कौन आ गया है इस समय। 

  दरवाजा दरवाजा खोलने के बाद उसने देखा कि गेरुआ वस्त्र धारण किए हुए एक आदमी खड़ा है। उसके चेहरे पर हल्की-हल्की दाढ़ी और मूंछें है। शायद साधु या सन्यासी मालूम पड़ता था।

  जब आलोक ने उस आदमी का हुलिया बतलाया तो एक बारगी मानों वसुधा को सांप सूंघ गया हो। कढ़ाई में उसका गतिशील हाथ सहसा रुक गया कुछ पल के लिए। उसे ऐसा महसूस हो रहा था मानों आसमान से गिर पड़ी हो। उसका हृदय उद्वेलित होने लगा। उसको ऐसा लगा कि हो न हो वही होंगे। वह अपने को रोक नहीं पाई। ‘तुमलोग स्कूल की तैयारी करो’ कहकर, वह दरवाजे की तरफ बढ़ गई।

  वसुधा का पति परीक्षित सचिवालय में मुलाजिम था। उसका छोटा सा बहुत ही खुशहाल परिवार था। उसके दो छोटे नन्हे-मुन्हे बच्चे थे। बेटा को आलोक और बेटी को रीतु के नाम से पुकारते थे। उसे ऐसा लगता था कि उसके दामन में ईश्वर ने अथाह खुशियांँ भर दी है , परीक्षित भी अपनी पत्नी को बहुत प्यार करता था।




  लेकिन शादी के पाँच-सात वर्षों के बाद ही उसकी खुशियों पर ग्रहण लग गया। उसकी जिन्दगी अनिश्चितता और अवसाद के सागर में डुबकियाँ लगाने लगी। 

  परीक्षित विनम्र, धार्मिक और घोर परम्परावादी प्रवृति का आदमी था। धर्म-कर्म के प्रति उसमें अगाध रुचि थी। वह अपने कस्बे के मोहल्ले के मंदिर में धर्मोत्सव के अवसर पर आकर्षक सजावट करता था। चाहे सावन के झूलन के महोत्सव हो या जन्माष्टमी हो, वह सक्रिय रूप से उसमें भाग लेता था। ऐसे उत्सवों की व्यवस्थाओं में बढ़-चढ़कर अपनी सहभागिता निभाता था, चाहे प्रसाद-वितरण की बातें हो या कीर्तन करने के मौके हों।  वह कभी पीछे नहीं हटता था। तन-मन-धन से सहयोग करने के लिए हमेशा तत्पर रहता था।

  उस साल शहर में बाबा विनायक की चल रही भागवत-कथा में वह ड्यूटी से लौटने के बाद शाम में प्रति दिन कथा सुनने के लिए जाने लगा और रात्रि में नौ-दश बजे तक डेरा लौटकर आने लगा। यह क्रम लगभग महीने-भर चला। वहांँ न जाने किस श्लोक के भावार्थ से या उपदेश के किस अंश व मंत्र ने उसके अतस्थल की अतल गहराइयों में जड़ जमा लिया या बाबा ने न जाने कौन सी लकड़ी सुंघा दी कि उसमें आमूलचूल परिवर्तन आ गया। उसकी आत्मा उस परम पिता परमेश्वर की साधना हेतु तड़पने लगा, व्यग्र होने लगा। देखते-देखते वह अपने परिवार के प्रति उदासीन हो गया। वसुधा कुछ पूछती तो उसका जवाब हांँ या ना में छोड़कर कुछ भी विस्तार से नहीं बतलाता।

  विनायक बाबा जहाँ-जहाँ जाकर प्रवचन देने के लिए प्रोग्राम बनाते, वह वहाँ-वहांँ पहुंँच जाता। कभी-कभी सप्ताह भर गायब हो जाता बिना सूचना दिए हुए, नौकरी की परवाह किए बिना। एक-दो बार सचिवालय में उसके विभाग के बड़े बाबू ने मना भी किया  कि ऐसी लापरवाही उसके हक में ठीक नहीं है। वह बाल-बच्चेदार आदमी है, नौकरी पर आंँच आ जाएगी तो क्या होगा, कुछ सोचा है उसने किन्तु वह मौन होकर मात्र सुन लेता, कोई जवाब नहीं देता। जिरह करने पर कहता, सब ऊपर वाला देख लेगा जो इतनी बड़ी सृष्टि को चला रहा है, मनुष्य में कोई शक्ति  थोड़े ही है, सब ईश्वर की मर्जी से ही होता है। वृक्ष के पत्ते भी बिना उसकी मर्जी के नहीं हिलते हैं। 




  उसके जवाब को सुनकर बड़े  बाबू उसके चेहरे को देखते रह गये थे। 

  विभाग की तरफ से टोका-टोकी होने पर उसने एक दिन बड़े बाबू को अपना त्यागपत्र दे दिया। 

  उस विभाग के लोगों ने उसे बहुत समझाया। उसकी पत्नी और बच्चों का वास्ता दिया। यहाँ तक कि विभाग के बाॅस के टेबल पर त्याग-पत्र तुरंत अग्रसारित न करके सप्ताह भर अपने पास रखे रहे, इस प्रत्याशा में कि हो सकता है इतने दिनों में उसकी मति फिर जाए, उसके विचार में परिवर्तन आ जाए, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। अंत में विभाग ने विभागीय नियमों का पालन करते हुए उसे बर्खास्त कर दिया। 

  घर-गृहस्थी त्यागकर वह आश्रम में रहने लगा

  साधुओं और सन्यासियों के साथ तीर्थयात्रा करना, धार्मिक प्रवचन सुनना, कीर्तन में भाग लेना और धर्मग्रंथों का अध्ययन करना उसकी दिनचर्या में शामिल हो गया। 

  उसकी पत्नी पर दुख का पहाड़ टूट पड़ा। दोनों छोटे बच्चों का पालन-पोषण करना, डेरा का किराया और घर-खर्च की विकराल समस्या उसके सामने खड़ी हो गई, जबकि आय का कोई स्त्रोत नहीं था। 

  महीने भर उसकी आश में वही शहर में किसी तरह बचत की गई राशि से घर-खर्च चलाती रही कि हो सकता है उसके पति को सुबुध्दि आये और वह लौटकर आ जाए। उनके कई सहकर्मियों से पता लगाने का प्रयास किया किन्तु उनका कुछ अता-पता नहीं चला। 

  जब फांकाकशी की नौबत आने लगी तो वह अपना बोरिया-बिस्तर बांँधकर अपने कस्बे में चली आई। रिश्तेदारों ने नजरें फेर ली। तब वहाँ से मायके चली गई अपने बच्चों के साथ। सप्ताह भर रहने के बाद ही भाइयों-भौजाइयों की उपेक्षा युक्त बर्ताव प्रारम्भ हो गया। भौजाइयों के माध्यम से प्रताड़ना और तानों-उलाहनाओं का खेल शुरू हो गया। अंत में विवश होकर वह अपने पति के पुश्तैनी मकान में चली आई, इस सोच के साथ कि भले ही उसे भूखों मरना पड़े, अपने ही घर में मरेंगे, दूसरे के दरवाजे पर नहीं। जिसने मेरी मांग को छूआ है, मेरी मांग भरी है, उसी के घर से मेरी अर्थी उठेगी। 




  उसके पास जितने जेवर थे, लगभग सभी इस दुर्दिन में बिक गए। 

  जब वह परिस्थितियों और कठिनाइयों से जूझ रही थी, संघर्ष कर रही थी। निकट संबंधियों और परिचितों ने भी मुंँह फेर लिया था उसकी तरफ से तो ऐसे ही समय में फरिश्ते की तरह उसके मामा का आगमन हुआ था उसके घर में। हाल-समाचार और चाय-पानी की औपचारिकता के बाद उसकी दुखद व दयनीय स्थिति से वे काफी दुखी हुए। उन्होंने उसे सांत्वना दिया। उसने किचन का मुआयना किया। उन्होंने पाया कि वहाँ थोड़ी सी चाय-पत्ती, चीनी और नमक के सिवाय कुछ  भी नहीं था। बाजार से कुछ राशन और जरूरत की सामग्री लाकर उन्होंने दिया। उसके बच्चों और उसके लिए मिठाइयाँ भी लाकर दी। उसकी दारुण दशा से वे विचलित हो गए थे। उनकी आंँखें भींग आई थी अपनी भगनी की ऐसी स्थिति देखकर। 

  काफ़ी चिन्तन-मनन करने के बाद उन्हें समझ में आया कि उसकी जिन्दगी को संवारने के लिए यह जरूरी है कि वसुधा सबसे पहले स्वावलंबी बने। इसके लिए उन्होंने शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालय में उसका नामांकन करवा दिया जो वहाँ से कुछ किलोमीटर की दूरी पर बाजार में स्थित था। वह इंटर तक पढ़ी हुई थी। 

  घर-खर्च चलाने के लिए अपने घर में ही कुछ बच्चों को पढ़ाने लगी। 

 प्रशिक्षण प्राप्त करने के दौरान अपने पति की दी हुई कठिनाइयों में भी बचाकर रखी गई अंतिम निशानी सोने का हार भले ही उसको बेच  देना पङा, लेकिन वह शिक्षिका बन गई। 




  स्वावलंबी बनकर अपना परिवार चलाने लगी।

     उस समय तक परीक्षित का कहीं अता-पता नहीं था। 

                                  दरवाजे के पास पहुंँचते ही उसने पहली नजर में ही उसको पहचान लिया कि वह परीक्षित ही है। उसको देखते ही उसके अंतस में उथल-पुथल मचने लगी। उसने गुस्से में उबलते हुए कहा, “यहांँ किस लिए आये हो?… भगवान का साक्षात दर्शन हो गया?… धार्मिक अनुष्ठान सब पूरा हो गया?… आपने घर-परिवार त्याग कर, अपनी पत्नी से रिश्ता तोड़कर, छोटे-छोटे बच्चों का मोह त्याग कर सन्यास ग्रहण किया, जिस घर-गृहस्थी पर थूक कर चले गये थे तो फिर उसीको चाटने चले आये? 

  “ऐसा क्यों कहती हो वसुधा?… मैं भ्रम में पड़ गया था।” 

  “सन्यासी का निवास मंदिर में होता है, तीर्थों में और मठों में होता है, यहांँ क्या लेने आये हैं?” 

  जब उसने शर्मिंदा होकर कोई जवाब नहीं दिया तो वसुधा ने पुनः कहा, “आपने कभी सोचा कि मेरी पत्नी अपने दोनों बच्चों के साथ कैसे परवरिश करेगी?… उसकी देख-रेख कौन करेगा?… कितना दुख सहा, उपेक्षा का दंश झेला, कितनी शामें भूखे रहकर गुजारनी पड़ी। जब मेरे भूखे बच्चे दूध के लिए विलखते थे तो कलेजा फट जाता था।” 

  परीक्षित ने मौन धारण कर लिया था और वसुधा विक्षिप्त की तरह भावावेश में अपने दिल का गुब्बार निकाल रही थी। उसने आगे कहा,




” मैंने क्या कसूर किया था, जो आपने इतनी बड़ी सजा दे दी, क्या मेरे पिताजी ने आपसे जबर्दश्ती शादी की थी?… बोलिए! “

 ” नहीं। “

 ” तो फिर क्यों आपने अपना वादा तोङा?… अग्नि के  सात फेरे लेने वक्त जो आपने शपथ ली थी उसकी क्यों उपेक्षा की?. आपको किसी लड़की का जीवन बर्बाद करने का क्या हक है”उसने बेबाकी से कहा। 

 ” बोलो!… तुमको जितना बोलना है, अपने दिल की भड़ास निकाल लो, लेकिन यह समझ लो मैं जीवन की सच्चाई से अवगत हो गया हूंँ। मेरे जीवन का बहुत लम्बा समय व्यर्थ के क्रिया-कलापों में निकल गया। मुझे समझ में आ गया कि जो शान्ति मुझे सन्यासी बनकर भी नहीं प्राप्त हुई वह मुझे गृहस्थ जीवन में प्राप्त हो जाएगी। अपने परिवार के साथ रहकर भी धार्मिक साधना करने में जो खुशी मिलेगी, वह अन्यत्र संभव नहीं है, मेरा यह व्यक्तिगत विचार है।… फिर भी तुम अनुमति दोगी तभी मैं घर के अन्दर प्रवेश करूंँगा, क्योंकि यह घर-संसार तुम्हारा बसाया हुआ है, इसलिए इसपर मेरा कोई अधिकार नहीं है।… गलतफहमी में मुझसे गलतियाँ हुई है, उसके लिए मैं तुमसे माफी मांगता हूँ। मेरे दिल में तुम्हारे प्रति और बच्चों के प्रति वही प्यार और स्नेह है, उसमें कोई बदलाव नहीं आया है। मैं वही परीक्षित हूंँ जो शादी के समय था “कहते-कहते उसकी आंँखें भर आई थी। 

  वसुधा दरवाजे पर से हट गई थी यह कहते हुए”आपकी मर्जी, आप चाहें तो फिर से हमलोगों को अपना सकते हैं या त्याग कर जा सकते हैं। यह जिंदगी आपकी अपनी है, जैसे चाहे आप जी सकते हैं, इस पर आपका अधिकार है। “

  जब वह घर के अन्दर जाने लगी तो परीक्षित भी वसुधा के पीछे-पीछे चलकर वह भी घर के अंदर प्रवेश कर गया। 

     # 5वां जन्मोत्सव 

बेटियां कहानी प्रतियोगिता 

  तीसरी कहानी 

स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित 

             मुकुन्द लाल(झारखंड)

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