‘ इज़्जत की रोटी ‘ – विभा गुप्ता 

शहर का प्रसिद्ध श्री कृष्णा सभागार आज लोगों से खचाखच भरा हुआ था।अवसर था ‘ लेडी ऑफ़ द ईयर ‘पुरस्कार देने का।मुख्य अतिथि के आते ही उनको  फूलों का हार पहनाकर ज़ोरदार स्वागत किया गया।उद्घोषक महोदय ने मंच पर आकर जैसे ही पुरस्कार की विजेता श्रीमती मालिनी शर्मा का नाम पुकारा तो सारा हाॅल तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा।दर्शक-दीर्घा से निकलकर गुलाबी रंग की कलफ़दार साड़ी पहने,अपने सफ़ेद बालों को करीने से पीछे करके मैचिंग के रबरबैंड से पाॅनीटेल किये और काले रंग का पर्स बगल में दबाये एक आकर्षक महिला श्रीमती मालिनी शर्मा जब तक मंच पर पहुँच नहीं गईं, तबतक लोगों की तालियाँ बजती रहीं।अतिथि महोदय ने मालिनी जी को ट्राॅफ़ी देकर बधाई दी और उनसे दो शब्द कहने की गुज़ारिश की।मालिनी जी माइक हाथ में लेकर बोली की कि इस ट्राॅफ़ी और सफ़लता की हकदार अकेली मैं ही नहीं बल्कि मेरी पूरी टीम हैं जिन्होंने ‘अन्नपूर्णा ‘ को घर-घर तक पहुँचाने में पूरा-पूरा सहयोग दिया है और फिर उन्होंने श्री मुरलीधर, श्रीमती उमा मुरलीधर, श्री दिवाकर और श्रीमती सुनयना के नाम पुकारकर उन्हें मंच पर आमंत्रित किया। 

          ‘अन्नपूर्णा ‘ यानि अनाज की देवी।मालिनी जी ने इस नाम को सार्थक कर दिया था।पाँच वर्ष पूर्व जब बड़े बेटे अंशुल ने उन्हें कहा था कि माँ,आपलोग गाँव का घर बेचकर दीजिए, शहर में एक बड़ा मकान खरीदकर सब लोग एक साथ रहेंगे तब उन्होंने साफ़ मना कर दिया था।पति नवीनचन्द्र जी कस्बे के स्कूल में अध्यापक रह चुके थें,पेंशन के पैसे से दोनों का जीवन मजे से गुजर रहा था।फिर छोटे बेटे प्रणय और बेटी नीता ने बहुत आग्रह किया और नवीनचन्द्र जी भी बोलें कि एक ही शहर में तीनों बच्चे रह रहें हैं और हम दोनों यहाँ अकेले, उनसे मिलने उतनी दूर जाना भी तो कष्टकारी है।कल को कुछ हो गया तो अंतिम समय में बच्चों का मुख भी देखना नसीब होगा,नाहक ज़िद किये बैठी हो, चलो, चलकर बच्चों के साथ रहते हैं।पति का बहुत आदर करतीं थीं, सो उनकी इच्छा वे टाल न सकी और घर का मोह त्यागकर उसे बेच दिया और दोनों प्राणी यहाँ चले आयें।




          बेटों ने चार कमरों का बड़ा-सा फ़्लैट खरीदा था जिनमें से एक कमरा इनको दिया गया था।कस्बे के  खुले घर में रहने वाले दोनों प्राणियों को यहाँ बंधन लगता था लेकिन फिर बच्चों के मोह में अपने मन को समझा लेते थें।धीरे-धीरे दोनों शहरी जीवन-शैली में स्वयं को ढ़ालने लगे और सोसाइटी के पार्क में सुबह-शाम की सैर के लिए जाने लगे।वहाँ उन्हें अपने उम्र के कई लोगों से परिचय हुआ जो आपस में एक- दूसरे को अपनी बात कहते-सुनते थें।

           एक दिन श्रीमति सुनयना ने अपनी व्यथा मालिनी जी से शेयर की।पति के देहांत के बाद बेटा यहाँ ले आया और फिर वही सब..कोई मान-सम्मान नहीं दिवाकर जी की कहानी भी सुनयना जी से मिलती-जुलती ही थी।तब मालिनी जी को बड़ा अजीब लगता था कि कैसे कोई बेटा या बेटी अपने माता-पिता को अपमानित कर देते हैं।

        एक सुबह जब दोनों सैर के लिए निकल रहें थें,उनका पोता अंकुर भी ब्रेकफास्ट कर रहा था,सैंडविच के दो टुकड़े खाकर बाकी छोड़ दिये तो बड़ी बहू ने उसे डस्टबिन में फेंक दिया।मालिनी जी से अन्न का अनादर देखा न गया, बहू को बोल दिया कि फेंका क्यों, बाहर इतने लोग भूखे रहते हैं, जीव-जन्तुओं को खिला देती।बस..बहू ने तपाक से कह दिया,मेरा घर है, मेरी चीज़ें हैं, खाऊँ या फेंकूँ, आपके पेट में दर्द क्यों होता है।आपकी टोका-टोकी से मैं परेशान हो चुकी हूँ।शोर सुनकर प्रणय अपने कमरे से निकला,बोला, ” माँ, भाभी ठीक ही तो कह रहीं हैं,छोटी बहू को भी आप..।गनीमत समझिये कि आपलोगों को दो रोटी मिल जाती है।” कहकर वह वहाँ से चला गया और मालिनी जी जड़वत् हो गई।दो रोटी..” शब्द उन्हें तीर की तरह चुभे।नवीनचन्द्र जी उन्हें संभाला और सैर के लिए निकल पड़े।रास्ते भर दोनों चुप थें।




           शाम की चाय बड़ी बहू ने यह कहकर नहीं दी कि दूध खत्म हो गया है।रात को बेटी ने भी फ़ोन करके पिता से कहा कि माँ को समझाइये कि दूसरों की लाइफ़ में दख़लअंदाज़ी न करें।उन्हें तो भाभी का एहसान…,नवीनचन्द्र जी बेटी की बात नहीं सुने और फ़ोन डिस्कनेक्ट कर दिया।बच्चों के व्यवहार से दोनों को गहरा आघात लगा था।रात करवटें बदलकर काटीं और सुबह की सैर के लिए जब पार्क पहुँचें तो सब लोग एकत्रित हुए और तब मालिनी जी ने सबसे पूछा, “इज़्जत की रोटी खाना पसंद करेंगे या इसी तरह बेइज़्जत होते रहेंगे?” सबने एक स्वर में कहा, ” इज़्जत की रोटी।” और तब मालिनी जी ने उन्हें अपना प्लान बताया और अगले ही पल से छह लोगों की उनकी टीम प्लान के मुताबिक काम में जुट गई।

          मालिनी जी ने अपने गहने बेचकर एक कमरा किराये पर लिया,नवीनचन्द्र और दिवाकर ने पेंशन के पैसों से फ़र्नीचर की व्यवस्था की, सुनयना जी राशन-पानी की लिस्ट बनाई, मुरलीधर दंपत्ति ने कैश और बरतनों के मैनेजमेंट को संभाला और इन सभी को गाइड किया मुरलीधर के बेटे निशांत ने जो कि उनका दत्तक पुत्र था।एक सप्ताह के अंदर ही उनका ‘अन्नपूर्णा’ सबका पेट भरने लगा।अन्नपूर्णा उन सभी को पेट भर खाना खिलाता था जो कचरे से बीनकर खाते थें अथवा भूखे पेट सो जाते थें।उनका पेट भरने के बाद जब वे लोग अपने मुँह में निवाला डालते तो उन्हें बहुत सुकून मिलता था।सैर के बहाने निकली टीम सुबह-सुबह ही अन्नपूर्णा के दरवाज़े खोल देती,सबकी क्षुधा को तृप्त करती और शाम की सैर करके वापस अपने घर आ जाती।मुरलीधर के बेटे-बहू तो उनके सहभागी थें लेकिन बाकी के नहीं। एक दिन उनकी औलादें आ धमकीं।सबने एक स्वर में कहा कि इस तरह हमारी इज़्जत उछालते हुए आपलोगों को शर्म नहीं आती और तब नवीनचन्द्र बोले, ” एक कप चाय के लिये अपने माँ-बाप को तरसाने में तुम्हारी कौन-सी इज़्जत बढ़ जाती थी।आज हमलोग अपनी मेहनत से इज़्जत की रोटी खा रहें हैं और दूसरों को भी खिला रहें हैं ताकि उनका भी सम्मान के साथ पेट भरा रहे।इससे तुम्हारी इज़्जत घटती है तो घटा करे।”




         धीरे-धीरे उनकी प्रसिद्धि बढ़ने लगी और ‘अन्नपूर्णा ‘ सबकी पहली पसंद बन गयी।लोग खाकर संतुष्ट होते और अपनी इच्छा से कैशबाॅक्स में अपना सहयोग कर जाते।एक दिन निशांत ने कहा कि सेवा के साथ-साथ थोड़ी कमाई भी हो जाए तो कैसा रहेगा।तब उसने एक फूड डिलीवरी कंपनी से संपर्क किया,सबके फ़ोन में एप डाउनलोड कर दिया और इस तरह से उन्हें शहर के कोने-कोने से खाने के आर्डर मिलने लगे।स्टार रेटिंग देखकर सबके चेहरे खिल उठते थें।

      फिर आ गई महामारी।कोरोना ने अन्नपूर्णा के दरवाज़े पर ताला लगा दिया।फिर से मालिनी जी को घर में बैठे देखकर उनकी बहुओं का तो कलेज़ा ठंडा हो गया लेकिन उनके बिना कितने लोग भूखे हैं,यह सोचकर मालिनी जी की बैचेनी बढ़ गई।उनसे खाना निगलते नहीं बन रहा था और तब उन्होंने निर्णय लिया कि वे अन्नपूर्णा में ही रहेंगी,न जाने कब कौन भूखा भगवान का रूप धरकर आ जाए।इस तरह उनकी टीम ने अन्नपूर्णा को अपना बसेरा भी बना लिया।एक तरफ़ एप से आर्डर पार्सल होने लगे तो दूसरी तरफ़ सुनयना जी और उमा  मुरलीधर फूड पैकेट भी तैयार कर देती जो निशांत और दिवाकर जी मज़दूरों की बस्ती में जाकर बाँट आते थें।

           सब अच्छा चल रहा था कि फिर कोरोना की दूसरी लहर आ गई जो जाते वक्त नवीनचन्द्र को भी अपने साथ हमेशा के लिए ले गई।पति का बिछोह मालिनी जी के लिए असहनीय था,फिर भी उन्होंने अपने आपको संभाला और अन्नपूर्णा को समर्पित साक्षात् अन्नपूर्णा बन गईं जिसने भूखे को भोजन कराना ही अपना लक्ष्य बना लिया था।आज उनके इसी सेवा-भाव को पुरस्कृत किया गया था।




              मालिनी जी जब अपनी टीम के साथ लेडी ऑफ़ द ईयर की ट्राॅफ़ी लेकर अन्नपूर्णा पहुँची तो अंशुल-प्रणय के साथ सुनयना जी और दिवाकर जी औलादें भी उनके स्वागत में वहाँ खड़े थें।तभी मालिनी जी का पोता और सुनयना जी की पोती अपनी दादी की ऊँगली पकड़कर बोले , ” दादी, घर चलो ना।” सुनकर दोनों एक-दूसरे को देखकर मुस्कुराईं और अन्नपूर्णा की तरफ़ इशारा करते हुए बोलीं, ” बच्चों, यही तो मेरा घर है जहाँ मैं अपने परिवार संग इज़्जत की रोटी खाती हूँ।” 

                                – विभा गुप्ता 

        # इज़्जत              स्वरचित 

                बुज़ुर्गों को अपनों से सिर्फ़ थोड़ा स्नेह और सम्मान की अपेक्षा होती है।न मिलने पर वे स्वयं इज़्जत कमाना सीख जाते हैं क्योंकि अपमानित होकर दूसरों के टुकड़ों पर आश्रित रहने से बेहतर है मेहनत करके इज़्जत की रोटी खाना।कहानी के पात्र हम सभी के लिए एक प्रेरणा है।

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