संस्कार – नीलम सौरभ

बड़ी हवेली में काम करने वाली राधा, आज जल्दी काम निबटाने की गरज से अपने साथ बिटिया रेवती को भी लेती आयी थी। आते ही दोनों, फैले-बिखरे घर को समेटने और धो-पोंछ कर चमकाने में जुट गयीं।

                  गृहस्वामिनी शोभना जी देख रही थीं कि छोटी सी लड़की किस फुर्ती और सफाई से माँ के कामों में हाथ बँटा रही है जबकि लाख कोशिशों के बाद भी उनकी 17-18 वर्षीया बेटी अपने ख़ुद के काम आजतक पूरी तरह से नहीं कर पाती। करना भी नहीं चाहती। कपड़े प्रेस करना हो या जूते पॉलिश करना, खुद की अल्मारी जमाना हो या अपने बालों में तेल लगाना, ये सब या तो माँ करेगी या यूँ ही पड़ा रहेगा सबकुछ। करता तो 19-20 वर्षीय बेटा भी नहीं पर उसकी छोड़ो! वो तो लड़का है!….सब करके देने के बाद भी दोनों बच्चे उनसे सीधे मुँह बात तक नहीं करते कभी, बात-बात पर उन्हें ही नसीहतें देते रहते हैं।

“आप न ममा, जब कुछ जानती नहीं तो ज्यादा बोला मत करो!”

“मुझे न दिनभर प्रवचन मत दिया करो आप!”

“जब आजकल की पढ़ाई के बारे में कुछ पता नहीं आपको फिर दिनरात पीछे क्यों पड़ती हो पढ़ने के!”


शोभना जी जो अपने-आप से बतिया रही थीं जैसे, अचानक राधा से पूछ पड़ीं।

“तेरी बेटी तो बड़ी लायक है रे राधा! घर के हर काम में माहिर….क्या करके तूने ये सब सिखाया इसे?”

“मैंने तो कभी कुछ नहीं सिखाया इसे दीदी, यह शुरू से ऐसी ही निकली है, पता नहीं कैसे!”

राधा सरलता से बोली।

“ताज़्जुब है, बिना बोले अपने से ही घर में भी करती है तेरी मदद?” शोभना जी के प्रश्न में अचरज ही अचरज था।

“हाँ दीदी! हमेशा करती है….परिच्छा के दिनों में तो घर में सब मना भी करते हैं कि पढ़ाई का नुक़सान होगा पर यह तब भी नहीं मानती!….कहती है कि मेरी माँ बाहर भी काम पर जाती है, घर पर भी इतना खटती है…. थक नहीं जाएगी अकेले करेगी तो!”

“हँय! यह पढ़ती भी है?….कौन सी कक्षा में?…कहाँ पढ़ती है??” अब तो घोर आश्चर्य से घिर गयी थीं वो।

“नौवीं में है इन साल। घर से 4 किलोमीटर दूर है सरकारी इस्कूल, वहीं जाती है!…बहुत हुसियार है हमरी रेवती पढ़ने में भी!”  राधा के स्वर से ममत्व के साथ गर्व भी छलक रहा था।

“इतनी दूर? कैसे जाती होगी फिर रोज??”

“साइकिल मिली है न इस्कूल से!….परसाल जब खूब अच्छा नम्बर से पास हुई रही तो!”

“अरे वाह!!” शोभना जी के मुँह से अनायास निकला।

“जिस दिन हमको देर हो जाती है न दीदी, घर पहुँचने में… तो घर के दूसरे काम के साथ अपने दादी-बाबा को नहलाना-धुलाना और खाना परोस कर खिलाना…दोनों छोटे भाइयों को पढ़ाना, सब खुद ही कर डालती है!”

“अच्छा! तेरे भी सास-ससुर साथ ही रहते हैं तेरे?”

“नहीं दीदी! हमलोग उनके साथ रहते हैं,….घर में जितना है, जो है, सब उन्हीं के आशीष से तो है भरापूरा।” बोलते हुए राधा की आँखों में प्रेम और सम्मान से बढ़कर कुछ और ही था… शायद ‘श्रद्धा’।

“सब भरापूरा है तो फिर बाहर निकल कर घर-घर काम करने की क्या जरूरत?” खिसियानी हँसी के साथ शोभना जी के स्वर में तनिक व्यंग्य उतर आया था।


“घर में तो सब ही मना करते हैं दीदी! लेकिन लइकन के खाली पालना ही नहीं पढ़ाना-लिखाना भी है न!…..हम तो पढ़ नहीं पाये चार अच्छर भी, चाहते हैं हमारे बच्चे जितना चाहें, उतना पढ़ें! तो …अकेले रेवती के बापू कितना करेंगे!”

अब तक रेवती ऊपर छत की पूरी सफाई करके नीचे आ गयी थी।

“माँ! मैं सायकिल से जाकर दादी को ले आती हूँ, तब तक तुम पैदल चलती जाना, अच्छा!”

रेवती बाहर की ओर बढ़ती हुई बोली।

“ठीक है, अब चलते हैं दीदी!….सब काम निबट गया है।….आज राशन की लाइन में लगना है तो सोच रहे हैं, अपनी अम्माँजी को भी लेते जायेंगे।…. पास के सरकारी हस्पताल में उनको दिखा देंगे फिर पास वाले पारक में ऊ थोड़ा जी बहला लेंगी, ऐसे तो बिचारी अम्माँ घर से निकल ही नहीं पातीं।” माथे पर साड़ी का आँचल ठीक करती हुई राधा बोली।

माँ-बेटी के जाते ही शोभना जी वहीं सोफे पर बैठ किसी गहरी सोच में डूब गयीं। फिर एकाएक वे उठीं और कितने दिनों के बाद…या हफ़्तों के बाद उनके पाँव, बिस्तर पर पड़ी अपनी सास के कमरे की ओर ख़ुद-ब-ख़ुद चल पड़े। न जाने क्यों, न जाने कैसे!!

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