सांझे सुख दुःख – सुनीता मिश्रा

पिता की तेरहवीं होने के कुछ दिन पश्चात् निखिल नें सावित्री से कहा “माँ मेरी छुट्टियाँ खत्म हो रहीं हैं। इस मंडे को मुझे ऑफिस ज्वाइन करना है।

मैं चाहता हूँ आप हमारे साथ चलें। दो दिन का समय है, आप तैयारी कर लें।”

सावित्री कुछ देर चुप रहीं, फिर एक गहरी साँस लेकर बोलीं “बेटा रात बहुत हो रही है। अभी तुम सो जाओ।कल बात करेंगे।”

निखिल के सोने जाने से पहिले वे खुद अपने कमरे में जाकर पलंग पर लेट गईं।

सावित्री पलंग पर लेट तो गईं, आँखें भी बंद कर ली, पर आँखें मूँद लेने भर से नींद आती है क्या? अतीत के बादल बरसते नहीं, टुकड़े -टुकड़े  याद बनकर चलचित्र से घूमते हैं बंद आँखों के पटल पर।

इस घर में ब्याह के आये चालीस बरस हो गये। माँ- -बाबू,जेठजी-जिठानी,उनका छोटा बबुआ, (दो साल का रहा होगा)देवर, और ननद रानी।भरा- भरा घर, बड़ा सा घर।

बाबू को पेड़ पौधों से कितना प्रेम रहा, उनके लगाए आम, अमरुद, अनार के पेड़, कितना फल देते थे,उनका लगाया बरगद,आज भी आँगन में खड़ा उनकी याद दिलाता है।

अम्मा को तो अपने कन्हैया से फुरसत नहीं मिलती थी, हमेशा पूजा पाठ में लगी रहतीं। बाबू अक्सर कहतें “मीरा, थोड़ा बहुत चौके में बहुओं का भी हाथ बटा लिया करो। चलो, बहुओं का हाथ न बटाओ तो हमारी ही खैर खबर ले लिया करो, अरे हम भी तो कृष्ण चंद  हैं (बाबू का नाम कृष्ण चंद था )।”कहते हुए जोर से हँसतें।अम्मा कहतीं “अब इस उमर में भी आपकी ठिठोली बंद नहीं होती। तनि भगवान की पूजा में  मन लगाइये न।”

“तुम तो कर  रही हो हमारे बदले में इतनी पूजा, हमें का जरूरत पूजा की।”

“अपने-अपने सुख दुःख खुद को ही भोगने पड़ते हैं , ए खातिर,खुद भी प्रभु का स्मरण करना चाहिए।समझे कृष्ण चंद जी।”अब अम्मा खिलखिला कर हँसती।

दोनों की नोकझोंक बराबरी से चलती।

अम्मा के शांत होने के बाद बाबू भी साल भर के अंदर



देवलोक गमन कर गये।

जेठ जी, वेटनरी डक्टर ,बिल्कुल बाबू का प्रतिरूप। शांत सरल, खुश मिजाज़। ऊँचा  बोल तो कभी सुना ही नहीं उनका।जिठानी जी कहतीं “सावित्री,  भोले शंकर हैं तुम्हारे जेठ भैया, मान -अपमान से परे। जब अपने छोटे भाई की शादी हम तुम्हाये जेठ भैया के साथ,अपने मायके गये रहे, तब हमाये बड़े भैया के पैर में खारिश से घाव हो गया था।हमाई भाभी बोलीं भैया से, दामाद जी से दवा पूछ लो, डाक्टर हैं वे।पता,–भैया का बोले?–बोले,  अरे बे तो जनावर के डाक्टर हैं, इन्सानन के थोड़ी।–हमें तो बहुतई बुरा लगा। जे कोई तरीका है, दामाद के लाने बोलबे का।”

मान -अपमान से ऊपर तो जेठ जी थे ही , दयालु भी रहे, पक्षी, जानवरों के असीम स्नेही।कुछ साल पहिले की ही तो बात है, एक घायल तोता आँगन में आकर गिरा, जेठ जी ने उसकी मलहम पट्टी की, पानी पिलाया, स्वस्थ होने पर उसे आकाश की ओर उड़ाने की कोशिश की, पर वह पलट कर आ जाता। बार -बार उनकी गोद में छुपने की कोशिश करता। आखिर उसके लिये पिंज़रा आया। घर में एक मेंबर और जुट गया, मिठ्ठू राजा नाम का।

यही कहानी बाद में शेरू की भी रही। शायद अपनी बिरादरी से जूझ कर, नुच -नुचा  कर, अनेक घाव लिये गेट के बाहर पड़ा था। इलाज किया जेठ भैया ने, उसके बाद तो इस घर का ही हो गया। अब किसी शेर से कम नहीं लगता। मज़ाल है कोई बाहर का आदमी गेट पर हाथ तो रख दे।

सावित्री ने अपनी कोहनियों से ऑंखें ढक लीं । मानो ऑंखें ढकने से यादें भी ढक जायेंगी। पर कहाँ ढकी यादें।यादों के तार तो मन मस्तिष्क से जुड़े हैं, ऑंखें तो मात्र दृश्य पटल हैं।

बहुत कुछ घट गया इतने सालों में। देवर, साहित्य में पी.एच.डी.कर इसी शहर के कॉलेज में व्याख्याता हो गये। पढ़ी लिखी,सुन्दर,प्यारी सी, निम्मी देवरानी बनकर इस घर में आ गई। घर की रसोई, निम्मी के सुघढ़ हाथों ने संभाल ली थी। रसोई घर में मिट्टी के चूल्हे की जगह गैस चूल्हे ने ले ली थी।

शादी के चार साल के अंदर  दो नन्ही परियों की माँ भी बन गई निम्मी।

बबुआ ने कॉमर्स विषय ले कॉलेज में दाखिला ले लिया था। बी. कॉम. फाइनल में था।

निखिल इंटर के बाद इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिये दूसरे शहर चले गये।चौदह साल की मुन्नी,निखिल की छोटी बहिन जो जन्म से मानसिक विकलांग थी, पूरा परिवार “प्रभु इच्छा “समझ निस्वार्थ भाव से उसकी सेवा में लगा रहता। निखिल के पापा कहते “सावित्री, हम भाग्यशाली हैं, भगवान,मुन्नी के रूप में हमारे घर आयें हैं अपनी सेवा लेने। पुण्यवानों को ऐसे अवसर मिलते हैं।”

सावित्री अपनी माँ की मृत्यु पर मुन्नी को इस परिवार के विश्वास पर ही छोड़ कर माँ के अंतिम दर्शन को जा पायी थी। जब जब मुन्नी को लेकर सावित्री दुःखी होती, परिवार ही उसे संबल देता।

समय की पीठ पर जिंदगी बेताल की तरह लदी,चल रही थी।

भाग्य का लिखा कोई मिटा नहीं पाया है, होनी को कोई रोक सका है भला।कभी हवा सी शीतल हुई, कभी वृष राशि के सूर्य तरह तपी है जिंदगी।

कैसे भूले वो काला दिन, घटाटोप बादलों से बरसता पानी, आंधी, बिजली का रौद्र रूप। बिजली  कड़कती आवाज़ के साथ ऐसी चमकती जैसे अंधकार चीर कर रख देगी।



कॉलेज से लौटते हुए बबुआ के लिये बिजली काल बन गई। कोहराम मच गया घर में। जवान बेटे की मौत, जिठानी जी सही न पाई, बिस्तर पकड़ लिया उन्होंने।

जेठ भैया उन्हें डॉक्टर को दिखा अस्पताल से लौट रहे थे कि किसी गाड़ी ने उनके स्कूटर को टक्कर मार दी।

दो जीवन वहीं थम गये। दो साँसों के तार टूट गये।

फिर मुन्नी को भी उसके कष्टों से ईश्वर ने मुक्त कर दिया।

इतने पर भी दुर्भाग्य को दया नहीं आई, मृत्यु ने जैसे यही घर पसंद कर लिया हो। निर्दयी भाग्य ने निम्मी का सिंदूर उजाड़ दिया। देवर अचानक हार्ट अटेक से चल बसे। पीछे छोड़ गये दो बेटियाँ और बिलखता परिवार।

लगातार होती दुःखद घटनाओं ने सबको तोड़ कर रख दिया। निखिल के पापा का स्वास्थ्य अस्थिर हो गया। शारीरिक व्याधियों ने उनसे नाता जोड़ लिया।

परिवार के टूटे, बिखरे, निराश मन को जीवन की आशा बँधाई बुआ ने। जैसे टूटती छत को थाम ले एक स्तम्भ। बुआ यानि वसुधा। बबुआ वसुधा को बुआ बोलता था। धीरे धीरे वह घर के सभी सदस्यों की बुआ हो गई।

पोलियो ग्रस्त वसुधा, तीनों भाइयों में सबसे बड़ी। लाड़ली वसुधा। हारी नहीं ज़िन्दगी से। बैसाखी को उसने अपनी हिम्मत, अपना हौसला बनाया।  

एम.ए. बी. एड.की डिग्री ली। अपने बड़े से घर के दो कमरों में प्राइवेट स्कूल खोला। प्राइमरी से मिडिल स्कूल हुआ, और फिर वहीं विस्तार लेकर,शहर का विख्यात,शासकीय मान्यता प्राप्त प्राइवेट हायर सैकेंड्री स्कूल बना। वसुधा संचालिका है अपने विद्यालय की। कुछ रिश्ते भी आये उसके विवाह के लिये, उसने साफ इंकार कर दिया था।

निम्मी की बेटियों की शिक्षा, शादी ब्याह सब निर्वाह वसुधा करती रही।निम्मी से कह दिया उसने “भाभी चिंता न करना इन बच्चीयों का दायित्व मुझ पर है।”

कहा तो निभाया भी वसुधा ने।परिवार की धुरी है वसुधा।

करवट बदली सावित्री ने, पर  करवट रास न आई। गला शुष्क लगा, उठकर पानी पिया। थोड़ी देर कमरे में  अनमनी सी टहलती रही। मन कैसा -कैसा

तो होने लगा।

वापिस पलंग पर लेट गई। यादों के बवंडर थमने का नाम नहीं ले रहे थे। नींद किसी दूसरी दुनियाँ में जाकर बस गई थी। दुःख तो अपनी जगह अटल थे। खुशियों को निमंत्रण देना पड़ता है कि,आये और दुःख का बोझ हल्का करे।

निखिल की इंजीयरिंग पढ़ाई पूरी हुई। बहुराष्ट्रीय कम्पनी में जॉब लगा। घर में ढोलक पर थाप पड़ी, कुलदेवी पूजी गईं। निखिल की बारात चढ़ी।

नयी बहू की पायलों की छम -छम से घर आँगन गूंजने लगा। निम्मी की बेटियाँ, दामाद, नाती, नातिन, रिश्तेदारों से घर आबाद हो गया।कुछ दिनों के लिये ही सही, घर जीवंत हो गया।

निखिल बीच -बीच में बहू और बच्चों के साथ आता। सावित्री और अपने पापा से साथ चलने की ज़िद करता। वो तो यहाँ तक कहता कि निम्मी चाची और बुआ भी साथ चलें। सब वहीं साथ रहेंगे। बड़ा सा  डुप्लेक्स ले लिया था उसने।निखिल के पापा का यही जवाब रहता “बेटा हम लोगो कि उम्र बीत गई, इस शहर और इस घर में रहते हुए। अम्मा -बाबू, तुम्हारे ताऊ -ताई, बबुआ, मुन्नी, और छोटे (निम्मी के पति ) कि यादें बसी हैं इस घर में । इन सबको छोड़ कर जाना?—-अब ये मन और बूढ़े शरीर सही नहीं पायेंगे।”

“ठीक ही तो कहते थे निखिल के पापा।”सावित्री ने सोचा। इस घर में चूल्हा एक था, सबके सुख -दुःख एक थे, कुछ भी बटा नहीं था।

बाबू ने ये घर बनाया, जेठ भैया ने इसे संवारा,निखिल के पापा ने इसमें रंग भरा,देवर ने इसे खुशियों से सरोबार किया।और वसुधा ने इसे प्रेम, दया, अपनत्व, कर्तव्य से भर दिया।

बाबू इस घर कि छत थे तो वसुधा,जेठ जी, निखिल के पापा, और देवर। छत को साधे चार स्तम्भ।



“सावित्री –सावित्री राम -राम।” मिठ्ठू राजा पिंजरे में चक्कर काटने लगे। सुबह पाँच बजे का अलार्म है मिठ्ठू राजा।रोज़ नियम है उसका, सावित्री को जगा देना।

सावित्री उठकर पिंजरे के पास गई, बोली —

“राम -राम मिठ्ठू राजा।”

मिठ्ठू राजा ने चैन की साँस ली। अब उसका काम ख़त्म, सावित्री का काम शुरू।

पिंजरे की सफाई, उसमें दाना -पानी रखना।फिर बाहर गेट का ताला  खोलना,शेरू का दौड़ कर उनके पास आना, दस पाँच मिनिट उनसे लड़िया न ले, तब तक वो सावित्री को नहीं छोड़ता। उसके बाद घर मंदिर की सफाई और कन्हैया के पूजा पाठ भार अम्मा ने सावित्री पर छोड़ दिया था।

अपना काम निपटा, सावित्री आँगन में बैठी ही थी की निम्मी चाय लेकर आ गई। वसुधा भी वहीं आकर बैठ गई। रोज़ का नियम चला आ रहा था सालों से। तीनों सुबह की चाय साथ पीते हुए गपियाती, हँसती, खिलखिलाती।

आज तीनों चुप थीं। तीनों के मन में अनबूझा दर्द था।

घर से सभी रिश्तेदार जा चुके थे।यहाँ तक निम्मी की बेटियाँ, दामाद भी।

निखिल अपने सूटकेस, और सामान के साथ आँगन में

आ गये थे, निखिल की पत्नी, दोनों बच्चे, वसुधा, निम्मी भी वहीं थीं।

सावित्री का इंतज़ार हो रहा था।थोड़ी देर में सावित्री भी वहाँ आईं लेकिन बिना किसी सामान के। निखिल की पत्नी ने, वसुधा, सावित्री, निम्मी के पैर छुए। सबकी आँखें भरी हुई थीं।

“निखिल मैं तेरे साथ चलती पर ——-“आगे शब्द गले में फँस गये सावित्री के।भरी आँखों से वसुधा,निम्मी और निखिल को देखा उसने।

“कुछ मत बोलो माँ। आप लोग अपना ध्यान रखना, मैं मिलने आता रहूँगा।”आँखों से अविरल अश्रु धारा बहने  से रोक न पाया निखिल अपने को,और इन लोगों की ओर देखे बिना ,अपना सामान टैक्सी में रखने लगा।

#कभी_खुशी_कभी_गम

सुनीता मिश्रा

भोपाल

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