“रागिनी! यार क्या तुम भी, जब देखो घर के काम निपटते ही यह तानपुरा हाथ में उठा लेती हो। कुछ हम लोगों के साथ बैठो-उठो, हमारी किटी में आओ, कुछ अपनी कहो, कुछ हमारी सुनो।” शाम को अपने बगीचे में पौधों को पानी देती रागिनी को देख रीता ने चुटकी ली।
“जी! मेरा इन सब बातों में मन नहीं लगता। मुझे खाली समय में अपने शौक के साथ जीना अच्छा लगता है।”रागिनी ने सरलता से जवाब दिया।
“यह कैसा शौक है भला? न किसी से बतियाना, न मिलना- जुलना! चलो मान लिया कि संगीत तुम्हारा शौक है तो कुछ तड़कते-भड़कते गानों पर हमारे साथ नाच-गा लेना। रीता की सखी पारुल बोली।
“अरे, नहीं! नहीं! तड़कते-भड़कते गानों को तो हमारी रागिनी जी शोर कहती हैं।” मोना ने तंज़ कसा।
“जी! आप सही कह रही हैं। आपके लिए संगीत का मतलब शोर-शराबा, फूहड़ गानों पर नाचना है पर मेरे लिए यह आत्मिक सुकून है।” रागिनी ने प्रत्युत्तर दिया।
स्वरचित
डॉ ऋतु अग्रवाल
मेरठ, उत्तरप्रदेश