समझौता अब नहीं – निशा जैन : Moral Stories in Hindi

            मैं एक मध्यमवर्गीय परिवार से ताल्लुक रखने वाली लड़की जिसने ख्वावों में भी नही सोचा था कि मैं कभी दिल्ली, मुंबई जैसे शहरों को देखूंगी और वहां अपने जीवन के कुछ साल गुजारूंगी 

 उसकी किस्मत देखिए कि पतिदेव का ट्रांसफर धौलपुर जैसे छोटे नगर से सीधे मुंबई जैसे महानगर हो गया । और जिस दिन ,मेरा मतलब जिस रात हमें पता लगा कि ट्रांसफर मुंबई हो गया तो खुशी की जगह एक अजीब सी बैचैनी ने मन को घेर लिया , पूरी रात आंखों में ही गुजर गई, दूर दूर तक नींद का नामो निशान नही था दोनो की आंखों में। 

            बस ये ही सोचने में आ रहा था कि कैसे मैनेज होगा सब…… बच्चों की पढ़ाई, घर खर्चे, फैमिली क्युकी सबसे सुना था कि मुंबई फिल्मी नगरी है, बहुत महंगी है हम जैसे लोगों के लिए और हमारे होम टाउन अलवर से भी बहुत दूर….. ना तो जल्दी आ सकते ना जा सकते , सब कुछ अच्छे से सोच समझ के मैनेज करना पड़ेगा। पता नहीं कितना समझौता करना पड़ेगा ? और कब तक करना पड़ेगा?

           पर ट्रांसफर लेना भी जरूरी था क्युकी पतिदेव का प्रमोशन था तो ये अवसर बहुत मेहनत के बाद मिला था। खैर अब जो था उसके साथ ही चलना था तो निश्चय हुआ कि पतिदेव अकेले मुंबई जायेंगे और हमको अलवर शिफ्ट करेगें। 

            अगले 6 महिनों के लिए हो गए हम अलवर शिफ्ट ….सारे बजट की भी वाट लग गई थी क्योंकि पतिदेव का मुंबई से फ्लाइट से आना ,जाना, वहां किराए का घर लेकर रहना, ऑफिस से फ्लैट की दूरी मैनेज करना ….. सबके लिए सिर्फ पैसों की जरूरत थी और फिर बड़े शहरों के खर्चे भी बड़े ही होते हैं । बस 6 महीने इसी आपाधापी में गुजर गए पर अभी तो सिर्फ 6 महीने ही हुए थे , पता नही नौकरी कब तक मुंबई में रहे और कब तक पतिदेव को और मुझे परिस्थितियों से समझौते करने पड़े

तो फिर डिसाइड हुआ कि हम लोग (मैं और दोनो बच्चे) भी न्यू सेशन से वही शिफ्ट होंगे, देखा जायेगा जो होगा अब ऐसे बार बार मुंबई से इतना खर्चा करके आना जाना भी तो संभव नही था।

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            तो लो भई आ गए हम भी सपनो की नगरी मुंबई में अपना बोरिया बिस्तर लेकर।

            हवाईजहाज से मुंबई पहुंचने का वैसे तो अलग ही मजा था पर बड़े शहर जाने का खर्चा भी बहुत था, खैर अब आ ही गए तो एक बारगी मुंबई को देख तो ले जी भर के…… बड़ी बड़ी बिल्डिंग और लंबे लंबे रास्ते देखते देखते ही कब घर आ पहुंचे पता ही नही चला मुझे ..

            अब बड़े शहरों में किराए का मकान भी तो महंगा मिलेगा तो पहला बड़ा खर्चा अब शुरू हो चुका था और वहां तो अलग ही सिस्टम था फ्लैट भी ब्रोकर के द्वारा मिलता तो उसको देने की रकम और अलग से लगती वो भी एक महीने का पूरा किराया …… हे भगवान …मेरे मुंह से निकला 

जैसे ही मुझे पता लगा। पहला समझौता शुरू हुआ बड़े मकान की जगह छोटा मकान लेने से

            इस मामले मे हमारा छोटा शहर ही सही लगता है।अगले दिन से शुरू हुआ बजट का हिसाब किताब रखना इसलिए मैने एक डायरी बना ली थी जिससे पता लग सके कि छोटे शहर और बड़े शहर के बजट में कितना अंतर है, पर वाकई अंतर तो बहुत था जब देखा कि वहां सब्जियों के भाव भी आसमान छू रहे थे जो सब्जी धौलपुर, अलवर में 10,15 की पाव थी वहां वही 30रुपएकी पाव और फलों का तो कहना ही क्या ….सारे फल दुगुनी कीमत के मिलते वहां

 कई बार सोचती क्या खाए, क्या न खाएं

कई बार खाने की इच्छा होती तो भी दाम देखकर समझौते करने पड़ ही जाते और फिर एक किलो की जगह आधा किलो से काम चलाती

            अब आप सब ही सोच लीजिए कितनी महंगाई है बड़े शहर में…. राशन देखो तो आस पास कोई परचून की दुकान ही नही मिलती, जहां देखो वहां सुपर मार्केट कोई ईजी डे, कोई डेली बाजार, कोई डी मार्ट तो कोई रिलायंस

            मरता क्या न करता अब लाओ सारा राशन वहां से ही, कोई मोल भाव नही, कुछ नही बस जितना रेट है ले आओ उठा कर , छोटे शहरों की तरह कोई कम ज्यादा नही। समझौते करने की कोई गुंजाइश ही नहीं थी । फिर भी आदत से मजबूर रेट देखकर ही सामान खरीदती और ऑफर चले तो कहने ही क्या

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          वो कहावत है ना जैसा देश वैसा भेष तो भई अब कपड़े खरीदो वहां की जीवन शैली के अनुरूप तो वो भी अतिरिक्त खर्चे बढ़ जाते हैं बड़े शहरों में

साड़ी और दुपट्टे में लिपटी रहने वाली मै भी आ गई मॉडर्न रंग में और खरीद लिए दो चार पश्चिमी परिधान

          और गलती से बीमार पड़ गए तो डॉक्टर की फीस सुनते ही मानो एक बार तो कलेजा मुंह को आ जाता है जैसे…….वहां तो समझौता भी नहीं कर सकते जनाब

          परामर्श फीस ही 500 रुपयों से शुरू होती है वहां जहां छोटे शहरों में डॉक्टर की फीस और दवाइयां मिलके भी इतना नही होता है। अभी दवाइयां लेना तो बाकी है मेरे दोस्त…..

          स्कूल की तो बात ही न पूछो अब , एडमिशन फीस ही 20,000 से 30,000 होती है वहां मतलब एक बार एडमिशन करवाने में लग गए 1 लाख रुपए और बच्चे अगर दो हो तो फिर बात ही क्या

          भई अब कमी करे तो कौनसे खर्चे में ..

सारे काम ही जरूरी हैं पर जाए तो जाए कहां और समझौता करे कब तक?

          और अभी तो घर आने जाने का काम भी हैं सोचो तो फिर लगने लगो हिसाब किताब में…. एक बार आने जाने के कम से कम भी करो तो लगते 30,000रुपए

          हमारी तो सारी जमा पूंजी जो छोटे शहरों में रहकर इकट्ठी हुई वो सब बाहर निकल आई अब वो ही एक सहारा था खर्चों को जो चलाना था।

        और एक बात ….बड़े शहरों की लाइफ स्टाइल छोटे शहरों से बिल्कुल जुदा होती है , यदि वहां रहना है तो फिर उसी में ढलना होगा तभी जीने का मजा है नही तो मर मर कर जीने का कोई फायदा नही और खर्चों के बारे में छोड़कर उनके साथ ही जीना सीखना होगा । कोई समझौता अब नहीं करना होगा

मैने भी बहुत कोशिश की किसी तरह खर्चे कम किए जाए पर कोई कोशिश काम नही आई।फिर क्या …मैं भी सीख गई जीना खर्चों के साथ और बस खुद से कहने लगी समझौता अब नहीं 

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जिंदगी में मौके बार बार नहीं मिलते इसलिए जब भी मौका मिले बिना समझौते के उसके मजे लिए जाएं 

वाकई जब बिना सोचे समझे , सिर्फ अपने और परिवार के लिए जिंदगी जीना शुरू किया ( समझौतों से इतर) तो एक सकारात्मक सोच और दिशा मिल गई और जिंदगी और भी खूबसूरत लगने लगी

दोस्तों मेरी ये रचना अपने खुद के अनुभवों पर आधारित है बाकी बड़े शहरों में रहने का भी अपना एक अलग ही मजा है और वो निर्भर करता है आपके रहने के सलीके पर। मैने तो अपनी जिंदगी के पूरे मज़े लिए मुंबई रहकर और काफी कुछ सीखा भी। शुरू में बहुत समझौते किए पर जब लगा या तो समझौते कर लो या जिंदगी हंसी खुशी जी लो तो मुझे दूसरा विकल्प ज्यादा सही लगा 

                     बचत भले ही नहीं थी पर अपनों के साथ जो पल साथ बिताए वो हमेशा के लिए यादों की गुल्लक में कैद हो गए और सिखा गए कि कभी कभी समझौता नहीं करना भी ज़रूरी है।

ये मेरे अपने विचार है अन्यथा न लें 

और हमेशा की तरह अपने विचारों से मेरा उत्साहवर्धन करना भी नहीं भूलें 

धन्यवाद

निशा जैन

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