सच हुए सपने मेरे ” – सीमा वर्मा

सामने मंच पर खड़ी मिस ‘ दीप्ति भटनागर’ अपने सीनियर विंग कमांडर से स्वर्ण पदक लेती हुई सुशोभित हो रही है। और नीचे हॉल में लगी कुर्सियों की प्रथम पंक्ति में माँ ‘सुलभा’ और पिता ‘अशोक’ की आंखों से झरझर आंसुओं की धार बह  रही है।

पूरा हॉल तालियों की गड़गडाहट से गूंज रहा है।

आज उन दोनों की होनहार बिटिया ने सफलता की ऊंचाई को छू कर अपने ख्वाब पूरे कर लिए हैं।

इस दुनिया में असंख्य लोग हैं जो अपने गलत जगह होने का एहसास लिए पूरा जीवन काट लेते हैं।

जीवनपर्यंत शायद वे यह तै ही नहीं कर पाते हैं कि उन्हें कहाँ होना चाहिए था अथवा इस विशाल दुनिया में किस महत्ती उद्देश्य के लिए ईश्वर ने उन्हें भेजा है।

उनके कोई ख्वाब ही नहीं होते वे बस यों ही निर्रथक उद्देश्य विहीन जीवन जिए चले जाते हैं।

लेकिन अपनी सुलभा भाभी की बिटिया ‘ दिप्ती’ !

उसके साथ यह बात नहीं है।

पूरे दो बेटियों की मौत के बाद जब दीप्ति का जन्म हुआ था तो भाभी को वह किसी वरदान से कम नहीं लगी थी।

पहले दो बेटियों को खो देने का गम दीप्ति को पा लेने की खुशी में कम हो गया था।

अशोक भैया फौज में थे।

और भाभी बारहंवी पास कस्बे में आंगनबाड़ी की प्रशीक्षिका के पद पर काम करती हुई दीप्ति का लालनपालन बहुत चाव से करती हुईं उसे डॉक्टर बनाने के सपने देख रही थीं।

इसके ठीक विपरीत ‘दीप्ति बिटिया’ ने तो बचपन से कुछ और ही ख्वाब देख रखे थे।

वह अपने पापा के नक्शे कदम पर चलती हुई भारतीय सेना में अपने बलबूते सफलता के झंडे गाड़ने के ख्वाब बचपन से ही देखती आई है।

बहुत छोटी थी जब पापा ‘अशोक’ छुट्टियों में घर आते और उसे कंधे पर बिठा कर पूरे कस्बे का चक्कर लगा आते ,

‘ क्या शान हुआ करती थी ?

उस वक्त पापा की जब सारे उन्हें झुक कर सलाम करते और प्रति उत्तर में पापा सबको  ‘जयहिंद’ कहा करते ‘।


तभी अचानक कारगिल युद्ध शुरु हो चुका था।

जिसमें अशोक की भी ड्यूटी लग गई थी।

सब कुछ छोड़ कर अशोक चले गये थे।

देश के प्रति अपने कर्तव्यों को पूरा करने।

सुलभा के तो होश ही उड़ गये थे।

तब अकेली दीप्ति ने ही माँ के साथ सबकुछ घर-बाहर का बहुत दिलेरी से संभाल लिया था।

आए दिन शहीदों की खबर आती रहती थी।

उस आड़े वक्त में भी उसने अपने फौज में जाने के ख्वाब को अधूरा नहीं छोडा़ था एवं हर वक्त बीते दिनों का गीत गुनगुनाती रहती,

‘मौत आनी है आएगी इक दिन ,

जान जानी है जाएगी इक दिन ,ऐसी बातों से क्या घबराना ‘

जिसे सुनकर भयभीत हुई सुलभा उसके मुँह बंद कर दिया करती।

बहरहाल होनी बलवती होती है।

हो कर रही …

लड़ाई के मैदान में लड़ाई अशोक के कोई दस किलोमीटर आगे चल रही थी।

जबकि एक शक्तिशाली बम आकर के अशोक के नजदीक ही फट गया था।

उसकी जान तो बच गई थी पर वह वापस घर व्हीलचेयर पर आ पाया था।

और अब दीप्ति की फौज में जाने की चाहत पापा की इस हालत को देख कर भी जरा सी कम नहीं हुई है।

बल्कि वह तो अपने इस ख्वाब को पूरा करने के लिए दोगुनी जोश और हिम्मत के साथ प्रयास में जुट गयी है।

हाँ ये बात और है कि इस बात की खबर उसने ममा को कानों कान नहीं लगने दी है।

क्योंकि वह जानती है,

‘ ममा उसे अब फौज में जाने देने से तो रहीं अगर उनका वश चले तो वो दीप्ति को खुली हवा में सांस भी न लेने दे ‘

एवं उसे सात तालों में बंद रख कर अपनी पलकों से उसके राह में आने वाले हर कांटो को चुनती रहें ‘

लेकिन दीप्ति भी अपनी धुन की पक्की है।

बचपन से उसने एक ही तो ख्वाब देखे हैं,


‘ मेहनत के बल पर फौज में शामिल हो कर देश की रक्षा करना ‘

जिसे उसे किसी भी कीमत में पूरा करना है।

बस इस वक्त घर में उसका यह ऐलान उसकी  मंजिल प्राप्ति की ओर बढ़ते हुए पहले कदम में शामिल है ,

‘ ममा मुझे फौज में जाना ही है ‘

‘दीप्ति’ की इस ढृढ़ आवाज ने घर में पिछले हफ्ते से चल रहे विचार-विमर्श पर पूर्ण विराम लगा दिया है।

‘ क्या कह रही हो दीप्ति ? ‘

— सुलभा हैरान रह गई है।

जब से कारगिल युद्ध में अशोक अपने दोनों हाथ, पैर गंवा कर व्हीलचेयर पर आ गये हैं।

सुलभा अपनी एकमात्र संतान के प्रति अति सजग हो सीमा प्रांत से दूर इस छोटे से कस्बे नुमा शहर में आ गई है।

‘ कहाँ खो गईं आप ममा ? ये देखिए मैं फार्म ले आई हूँ  ‘

‘ लेकिन क्यों  दीप्ति ? मुझे डर लगता है ‘

‘ किस बात का ममा ?  ‘

सुलभा की आँख भर आई  ,

‘ युद्ध में मारे जाने का बेटा देख नहीं रही हो पापा की हालत ‘

लाड़ से दीप्ति बोली ,

‘ ममा लेकिन मौत कहाँ नहीं है ? क्या सिविल में लोग नहीं मरते ?

‘ युद्ध में तो लोग शहीद होते हैं।

ममा,

उनको मर जाना कह कर अपमानित मत करिए ‘

‘ फिर सुना नहीं आपने ?

अभी पिछले दिनों पहाड़ों में लैंड स्लाइड होने की वजह से कितने लोग अकारण ही काल के गाल में समा गये ? ‘

‘  सिर्फ इसी डर से मैं फौज में ना जाऊँ …यह तो गलत होगा ना ममा ? ‘

‘ लेकिन बेटा … “

उसकी बात खत्म होने से पहले ही दीप्ति ने सुलभा को टोक दिया,

‘ फौजी एक अलग ही तरह का शख्स होता है ममा।  वह एक जज़्बा होता है ‘

आप पापा को ही देख लें सुलभा ने देखा


अशोक भी वहाँ अपने व्हील चेयर खिसकाते हुए आ गये हैं।

और माँ -बेटी के बीच चल रही इस नरम-गरम बात पर मंद-मंद मुस्कुरा रहे हैं।

‘ एक आम आदमी को जहाँ युध्द से डर लगता है।

वहाँ फौजी उसे स्वीकार कर सहज ही झेल जाता है ‘

उसकी  प्रेरणा भरी बातों को सुन कर

अशोक  को उसके भरण-पोषण पर गर्व हो आया।

वे भावविह्वल हो कर अपने चौड़े सीने को फुलाते हुए दीप्ति की पीठ थपथपाते हुए कह उठे,

‘अब तुम ही तो मेरे छोड़े हुए अधूरे कार्य को पूरा कर फौजी के अधूरे ख्वाब को पूरा करोगी बेटा  ‘

सुलभा समझ गई ,

‘दीप्ति को फौज में जाने की प्रेरणा कहाँ से और कितनी गहराई में जा कर मिली है ।

‘ बिटिया सयानी हो गई है ‘ उसे पहली बार महसूस हुआ।

‘  जाओ बिटिया रानी !

भर दो फार्म जब तुम्हारी यही इच्छा है कर लो अपने मन की

फैला लो अपनी विशाल पंखो को आकाश में ऊंची उड़ान भरने को दीप्ति ‘

‘ हमारे आशीर्वाद सदैव तुम्हारे साथ है ‘।

जिसे सुनकर तब दीप्ति की आंखें भी अनोखे तेज और चमक से भर उठी थीं।

एवं आज वो अपने माँ-पापा के इस भरोसे की बदौलत ही अपने पूरे दमखम से आकाश में दैदीप्यमान सितारे की तरह चमक रही है।

सीमा वर्मा /स्वरचित

    नोएडा

 

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