सब्र का फल – शुभ्रा बैनर्जी : Moral Stories in Hindi

पिछले तीन सालों से मधु की छोटी बहन मायके नहीं आई थी।पांच भाई-बहनों में मधु ही सबसे बड़ी थी,और मीता सबसे छोटी।पहली कक्षा में थी ,जब पापा गुज़र गए।पिता की अंतिम यात्रा में अपनी दीदी का हांथ पकड़े पूछ रही थी

वह”दीदी,पापा को कहां ले जा रहें हैं?सब रो क्यों रहें हैं?अस्पताल जा रहें हैं क्या?उसकी नासमझ बातों का मधु के पास कोई जवाब नहीं था।उस दिन से मधु ही मीता के पापा बन गई थी।साथ में सुलाना,कंघी करना,स्कूल के लिए तैयार करना

,खाना खिलाना,नहलाना सब मधु ने अपने जिम्मे ले लिया था।मीता भी मां के आस -पास नहीं फटकती थी,दीदी को छोड़कर।

पापा के जाने का दुख सबका साझा था,पर मधु को हमेशा मीता का दुख ज्यादा लगता।छोटी थी ना बहुत।कोई फरमाइश नहीं,कोई ज़िद नहीं,जो दे दो खा लेती थी।दीदी की बात पत्थर की लकीर होती थी उसके लिए।मां अक्सर कहती

मधु से”इतना लाड़-प्यार देकर मत बिगाड़ो इसे।तू तो शादी करके ससुराल चली जाएगी,यह कुछ नहीं सीख पाएगी।”मधु मां की बात काटकर कहती”तुम देखना ,हमारी छोटी बहुत बड़े घर में ब्याहेगी।अच्छा पति मिलेगा।घर -परिवार समृद्ध होगा इसका।मेरा आशिर्वाद है इस पर।

देखते-देखते कई वर्ष बीत गए।मधु शादी कर अपने ससुराल आ गई। दसवीं तक पढ़ाई की उसने घर पर। ग्यारहवीं से मधु ने उसे अपने पास बुला लिया। कामर्स लिया था उसने।मधु को महारत थी कामर्स में।मधु ने बहन को अपने पास दो साल के लिए बुलाने से पहले पति से और सास से पूछा तो उन्होंने एक ही बात कही”

जब तुम इतने बच्चों को घर पर ट्यूशन पढ़ा ही रही हो,साथ में उसे भी पढ़ा दिया करना।अच्छा रिजल्ट आया तो नौकरी मिल जाएगी अच्छी।

पति और सास की स्वीकृति मिलते ही मधु ने मीता को अपने पास बुला लिया।कड़ी मेहनत करके अच्छे नंबरों से बारहवीं निकाली उसने।बचपन से लेकर आज तक मधु ,मीता को घर के तौर-तरीके, रस्मों -रिवाज के बारे में समझाती आई थी।

मीता के प्रति अतिरिक्त लाड़ का नतीजा यह हुआ कि वह छोटी ही रह गई।मां के पास जाकर ग्रैजुएशन कर लिया उसने।घर पर बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने लगी।घर के सारे काम मुंह बंद करके करती थी वह।कभी भी अपनी पसंद -नापसंद के बारे में खुलकर कुछ नहीं कहती।

दीदी के ना रहने से अब सारे सदस्य ताने देते थे उसे”दीदी की पिछलग्गू बन कर इतनी कामचोर हो गई है कि,समझती ही नहीं कि कब कौन सा‌ काम करना है।”मीता ने कभी किसी की बात का बुरा नहीं माना,ना ही पलटकर कभी जवाब दिया।

दीदी से दूर रहना उसके लिए आसान नहीं था,पर और कोई उपाय भी नहीं था।

भाग्य की विडंबना देखिए कि मां कैंसर की आखिरी स्टेज में डायग्नोस हुईं।छह महीने के अंदर ही मां चली गईं।मीता मां की लाश के सामने गुम सी बैठी थी।एक बूंद आंसू नहीं‌ निकला आंखों से।मधु जब पहुंची ,तो लिपटकर खूब रोई”दीदी,मैं

आज अनाथ हो गई।इतने बड़े घर में कैसे रहूंगी मैं अकेले?”मीता की बात में अस्वाभाविक कुछ भी नहीं था।दोनों भाई बाहर गए थे कमाने।मां अब रही नहीं।किसके सहारे रह पाएगी वहां?मां के सारे मरणोपरांत वाले आयोजन ख़त्म होते ही ,

सब अपने काम की जगह चले गए।अब मीता को रखने की बात चल पड़ी।रिश्तेदार तो श्राद्ध के बाद ऐसा भागे,जैसे गधे के सिर पर सींग उग आए हों। सासू मां के बड़प्पन ने मधु को हिम्मत दी मीता को अपने साथ रखने के लिए।

सासू मां के साथ ही सोती थी मीता।मुंह से कभी कुछ ना कहकर परिस्थितियों से ताल मेल बैठाने में वह माहिर थी।मधु उसे हमेशा टोकती”ऐसे कर,वैसे कर।अपनी बात भी रखा कर।यूं चुपचाप सबकी सुनती ही रहेगी,तो हो चुका तेरा कल्याण।

“वह हमेशा की तरह मुस्कुरा कर चुप ही रहती।ना जाने सासू मां की ममता उसके प्रति कैसे इतनी बढ़ी कि उन्हीं के जोर देने पर मीताके लिए पास ही ससुराल भी मिल गया।शादी के समय भी मधु लगातार समझाती रही उसे”देख ,

बात किया कर,चुप मत रहा कर।ससुराल में बहुत कुछ सहना होता है,पर कभी-कभार प्रतिवाद भी जरूरी होता है।”

लाख समझाइशों के बाद भी मीता का मुंह बंद ही रहा।ससुराल में सास और ससुर दोनों तेज थे।जब कभी अचानक मधु पहुंची थी उनके घर,वे बड़बड़ाते ही मिले “ये नहीं आता,वो नहीं आता।कुछ काम ढंग से नहीं करती ये तो।”मधु का खून खौल जाता था पर,

अपना प्रतिकार तो उसे खुद ही करना होगा।ना कभी कोई फरमाइश,ना ज़िद,ना ही अभिमान।मीता को भगवान ने जाने कितना सबर दिया था।एक बेटी की मां बन चुकी थी मीता।बड़ी होती बेटी को देखकर मधु को तसल्ली हुई कि वह अपनी मां की आवाज बनेगी।ईश्वर की कृपा से हुआ भी ऐसा ही।पढ़ाई के साथ-साथ खेलकूद व सांस्कृतिक गतिविधियों में मीता की बेटी अव्वल रहती।अपनी मां के मार्गदर्शन में वह छठवीं कक्षा में पहुंच गई।

मधु के प्रति गहरा प्रेम और सम्मान था मीता की बेटी के मन में।अब मीता को कुछ नहीं बोलती थी मधु,बल्कि उसकी बेटी को ही समझाती।बेटी अपनी मां की छाया बन चुकी थी।अपनी मां के प्रति अनावश्यक असम्मान वह सहन नहीं करती थी।

मीता के सारी ज़िंदगी का संबल थी वह।मायके के नाम पर मधु का घर ही था मीता के लिए। भाई और भाभी के यहां कुछ दिनों के लिए ही जाना होता था।मीता की बेटी तो मधु की सास को ही अपनी नानी समझती थी।

यहां आने से पहले पिछले दो सालों से फोन पर वह कहती “दीदी,अब जब आऊंगी ना,तो कैमोर जाऊंगी दादा के पास।वहां से मंझली दीदी के पास इंदौर जाऊंगी।मिट्ठू(बेटी)को कब से बोलकर रखा है,वाटर पार्क घुमाने के लिए।

वह कहीं नहीं जा पाती।”मधु ,मीता की निश्छलता और भोले पन को महसूस कर सकती थी।पैंतीस वर्षों से चुप रहने वाली लड़की की जबान अब खुली है।इस बार भी मीता के पति ने टालते हुए कहा दिया था उससे”इंदौर की टिकट कंफर्म नहीं हो पा रही।

तुम्हें बड़ी दीदी के पास छोड़ आ सकता हूं।बहुत गर्मी है। वहीं रहकर आ जाना।ठंडी में इंदौर जाने का रिजर्वेशन करवा दूंगा।”वाकई में मीता और बेटी को लेकर पति मधु के घर आए।मधु बड़ी बहन कम मां ज्यादा थी।जब छोड़कर जाने लगे मीता को ,तो मधु से कहा उसके पति ने”दीदी,ज़रा आप ही समझाना इसे।

जबरदस्ती की जिद पकड़े बैठी है।इंदौर जाना मजाक है क्या?इतनी भयानक गर्मी में बच्ची को लू लग सकती है।ये तो अड़ी बैठी है जाने को।बेटी भी अब इसी के सुर में सुर मिलाती है।आप कहेंगी तो मान जाएगी।”

मधु ने भी बहुत सोचा फिर मीता से कहा”सच ही तो कह रहा है सौरभ(मीता का पति)इतनी भयानक गर्मी में अकेली बेटी के साथ कैसे जा पाएगी।ठंड में वह साथ में लेकर जाएगा तो क्या दिक्कत है।अभी तू कैंसिल कर दे यहां-वहां जाने का फैसला।

“मधु बोलकर पलटी ही थी कि मीता ने रोते हुए कहा”दीदी ,पिछले ग्यारह सालों से मैंने अपने लिए कुछ नहीं मांगा उनसे।सास -ससुर की इच्छा से ही चलती आई हूं।कुछ भी करने से पहले दीदी(बड़ी ननद)से ,सास से,ससुर से पूछना पड़ता है।

बेटी को बॉलीवॉल खेलने की परमिशन भी बड़ी मुश्किल से मिली। पार्क में टहलने जाने के पहले भी परमिशन लेना पड़ता है।मुझे कोई परेशानी नहीं।मैंने इसे अपना भाग्य मानकर स्वीकार कर लिया था।मेरी बेटी पिछले तीन साल से लाकर पार्क जाने की बात कह रही है,

ये टालते जा रहें हैं। गर्मी की लंबी छुट्टियों में भीषण गर्मी,और क्रिसमस की लंबी छुट्टियों में कड़ाके की ठंड का डर दिखाते जा रहें हैं हर कोई।मैं अपने लिए नहीं,मिट्ठू के लिए जाऊंगी।अपनी मां से इतना मांगने का अधिकार तो है

ना इसे।हर साल क्लास में फर्स्ट आने पर एक टॉफी से खुश हो जाती है।अब अगर नहीं घूम पाई कहीं,फिर बड़ी होकर क्या याद रखेगी?वो जानबूझकर तुमसे मना करवाना चाहतें हैं,ताकि हम कहीं ना जाए।”आज पहली बार मीता के बंद मुंह से प्रतिकार निकलता देखकर मधु अचंभित थी।

यह अप्रत्याशित था उसके लिए।आज तक जिसने कभी खाने में अपनी पसंद को तवज्जो नहीं दी,वह मीता अपनी बेटी की यादों को सहेजने के लिए अपने डर से बाहर आई थी।आज एक मां की हिम्मत सबको हरा सकती थी।

मधु ने खुश होकर पूछा ,अच्छा ठीक है।शहडोल से इंदौर की टिकट करवा देती हूं।तू जा बेटी को लेकर।अगली बार ठंड में दादा के पास चली जाना।”आशा के विपरीत उसने दृढ़ता से कहा”नहीं दीदी,मैं दादा के पास भी जाऊंगी।

सौरभ से आज ही बोलूंगी कटनी का टिकट करवा दे।वहां जाने के लिए मना नहीं करेंगे।”मधु दंग तो तब हुई जब सच में बेटी से कहलवाकर कटनी का टिकट पति से करवा लिया मीता ने।अब मधु से कहा मीता ने”दिमाग ठंडा हो गया है

अब सौरभ का।मैं भैया (मधु का बेटा)से बोलूंगी इंदौर का कंफर्म टिकट अगर करवा सके।सौरभ पैसे भेजे देगा।”मधु अब अवाक हो गई।हैं,इतनी हिम्मत कैसे आई इस छोटी में?भैया से भी कभी ज्यादा बात नहीं किया था उसने।

छोटी मौसी लाड़ से बोली बेटे को”भैया, इंदौर की दो टिकट करवा देगा क्या?”बेटे ने तुरंत करवा कर फोन में टिकट भेज भी दिया।मीता के बार-बार जोर देने पर भी भैया ने पैसे लेने से मना कर दिया।बोला”अब कमाता हूं मौसी,

तुमसे क्यों पैसे लूंगा?मुझ पर हक है तुम्हारा।रात दो बजे है ट्रेन कटनी से।तुम जा पाओगी ना मिट्ठू के साथ इतनी रात को?हां क्यों नहीं जा पाओगी?अब तो मिट्ठू भी बड़ी हो गई।जब मेरी मम्मी जा सकती है,तो तुम क्यों नहीं जा सकती?

मधु दंग थी मीता का आत्मविश्वास देखकर।अपनी बेटी से किए गए वादे की सत्यता को प्रमाणित करने के लिए बौरी बनी रही एक औरत आज अपनी जबान खोलना सीख गई थी।पति की नाराज़गी का जिक्र करने पर बोली वह”तुम चिंता मत करो दीदी,सब कुछ ठीक है।जब गुस्सा उतर जाता है तो सौरभ सामान्य हो जाता है।मैं सबर रखना जानती हूं।तुम बिल्कुल परेशान मत होना।”

हां आज से मधु परेशान नहीं होगी,अपनी छोटी के लिए।ख़ुद तो मुंहफट होकर भी इतना साहस दिखा नहीं पाई कभी।आज छोटी बहन के सबर ने उसे बौना बना दिया था।एक मां का सबर जीतते हुए देखना भी बहुत सुख दे रहा था मधु को आज।

शुभ्रा बैनर्जी

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