सात फेरों का बंधन – संगीता त्रिपाठी

 गेट खुलने की आवाज से, बेचैनी से चक्कर काटती सावि, झट से दरवाजा खोल कर रधिया पर बरसने वाली थी,पर उसकी भेष -भूषा देख निःशब्द हो गई। तेल लगा कर संवारे गये रूखे केश,, मांग के बीच सिंदूर की लाल रेखा, माथे पर बड़ी सी बिंदी और साफ -सुथरी साड़ी पहनी रधिया रोज से कुछ अलग दिख रही थी।अंदर की खुशी ने उसके चेहरे को चमकदार बना दिया। सावि को रधिया आज कुछ अलग सी लग रही थी।रोज तो माथे पर शिकन की लकीरों पर लगी सिंदूर की बिंदी, अक्सर पसीने से धुल जाती थी, रूखे केश और मसली साड़ी, पहनने वाली की परेशानियों की कहानी बिना कहे ही कह दे रही थी।

 

      सावि का मन, उत्सुकता से भर गया। सारा गुस्सा तिरोहित हो गया। “क्या बात हैं रधिया, आज इतनी सजी -धजी और खुश दिख रही हो।”

 

“हाँ दीदी, आज मै बहुत खुश हूँ, दो साल बाद आज मेरा आदमी घर लौट आया “।

 “क्या…, और तूने उसे आने दिया। जो रोज दूसरी औरत के लिये तुझे मारता -पीटता था। सब भूल गई।”

   “मर्द हैं मेरा दीदी “…सिंदूर भरा हैं मेरी मांग में,सात फेरे लेकर हम पति -पत्नी विश्वास और प्रेम के बंधन में बंधे,आज लौट आया तो कैसे छोड़ देती।

   ” सिंदूर और फेरों का बंधन इतना बड़ा हैं रधिया की तू, मार -पिटाई, प्रताड़ना, दूसरी औरत सब सह गई।”

 



   “क्या करती दीदी, उसने माफ़ी मांग ली, मैंने माफ़ कर दिया।, बड़ी होती लड़कियों को अकेले घर में छोड़ कर आने में डर लगता था। बिना मर्द के घर को सब अपनी जायजाद समझ लेते हैं। दो साल मैंने डर कर बिताया। अक्सर रात में कोई पी कर दरवाजा खटखटा देता था।”तुझे रानी बना कर रखूँगा, आ जा मेरे पास “..। रोज इसी तरह का कोई ना कोई डायलॉग बोलता था। बेटियों को चिपका, मै ढंग की नींद नहीं ले पाती थी। सुबह -सवेरे काम पर आ जाती थी। परसों तो रात भर कोई दरवाजा खटखटता रहा।

 

      कल सुबह दरवाजे पर थाप पड़ी, खोला तो सामने खड़ा था सर झुकाये, पता चला, “वो “किसी और के साथ भाग गई। मैंने भी खूब सुनाया। एक शब्द नहीं बोला बस हाथ जोड़ खड़ा था। मेरा भी दिल पिघल गया। कुछ भी हो, हैं तो मेरा पति,इसके लगाये सिंदूर से ही मेरी रक्षा होती रही। इसी सिंदूर के बंधन से ही मै भटकी नहीं।दिल से परेम किया हैं दीदी, सुबह का भुला शाम को घर लौट आये तो दरवाजा खोल देना ही बुद्धिमानी है।

 

     एक कम पढ़ी -लिखी औरत की इतनी समझदार बातें सुन सावि भावुक हो गई।प्रेम और विश्वास के साथ ही एक स्त्री पुराने नाते भूल कर नये रिश्ते -नाते बनाती हैं। बहू, पत्नी, माँ, भाभी ना जाने कितने रिश्तों के बंधन में बांधने एक क्षण नहीं लगता उसे। आज रधिया ने उसे जीने का नया दृष्टिकोण दिया।

 

      शादी के बाद ससुराली रिश्तों को अपना बनाने की जगह उसने उन सब में कमियाँ निकालनी शुरु कर दी। वो भूल गई,रवि की माँ ने अकेले कितनी कठनाईयों से अपने तीन बच्चों को पाला -पोसा।रवि ने शुरु में कह दिया था। मेरी माँ और भाई -बहन मेरे साथ रहेंगे। तुम कभी मुझसे उन्हें जुदा ना होने देना।

पर रवि की इस इच्छा का सम्मान वो कहाँ कर पाई। शांत रवि की माँ को देख, जाने क्यों सावि को चिढ़ होने लगी। दिन भर भाभी -भाभी कहते देवर -ननद उसे अपनी सुनहरी गृहस्थी में कांटा लगने लगे। रवि का ऑफिस के बाद आ कर माँ के पास बैठना उसे बिल्कुल नहीं सुहाता। वो नवविवाहिता थी अतःरवि का सारा समय और प्रेम सिर्फ अपने लिये चाहती थी।उसे समझ में नहीं आया, वो आज आई है, माँ के साथ बैठना तो रवि की पुरानी आदत है, क्या हुआ जो कुछ पल, एक माँ की ममता को मिल जाते थे। क्यों वो इतनी स्वार्थी हो गई। पति को अपनाया पर उसके रिश्ते को नहीं..।

 


               सावि की जिद से रवि टूट गया पर माँ को छोड़ना गंवारा नहीं था उसे। सावि जिद में छोड़ आई थी उस घर को जहाँ उसे प्रेम और सम्मान मिलता था। संपन्न मायका भी कुछ समय बाद उसके लिये बदलने लगा। सावि भूल गई मायके में अब भाभी आ गई। वो भी वही स्वतंत्रता चाहती थी, जो उसने चाही। ऑंखें तो सावि की उसी समय खुल गई थी पर अहम आड़े आ रहा था। पर आज रधिया की बात सुन, सावि के मन का अहम निकल गया।उसकी तरफ से एक पहल तो बनता है।

 

                मोबाइल उठाया सीधे रवि का नम्बर लगाया। बहुत समय खो चुकी थी अब और नहीं…।रवि ने फोन उठाते ही बोला “कब आ रही हो सावि “

           ढलकते आँसुओं के साथ रुधे गले से सावि बड़ी मुश्किल से बोल पाई -आज ही..।

   शाम ढल रही थी पर सूर्योदय होने के लिये। घर बाहर से बिल्कुल वैसा ही था जैसा वो छोड़ गई थी। बेला का पेड़ फूलों से लदा था।घंटी बजाने से पहले ही दरवाजा खुल गया। माँ…, हाँ आज पहली बार सास नहीं माँ के नजरिये से देखा था, गले लगा ली। रवि पीछे खड़ा अपने आँसुओं के संग मुस्कुरा रहा था। दोनों नटखट देवर -ननद आज उसे प्यारे लगे। सही बात हैं प्रेम और विश्वास का बंधन एक स्त्री से ज्यादा कोई नहीं जानता..। कमरा वैसा ही था जैसा वो छोड़ गई। रात रवि के गले लग सावि बोली -मुझे माफ कर देना रवि….मै भूल गई थी विवाह के बाद पति के साथ और कई रिश्तों में भी बंधना पड़ता है, तभी सुखद गृहस्थी की नींव पड़ती है।सात फेरों का बंधन मै कितनी आसानी से तोड़ने चली थी, पर जान गई ये बंधन अटूट होता है।

              अरे तुम तो बहुत ज्ञानी हो गई सावि.. रवि हँस कर बोला।

  “सात फेरों के बंधन की कीमत तुम क्या जानो रवि बाबू…। बड़ी अदा से सावि ने डायलॉग मारा. दोनों खिलखिला कर हँस पड़े। बाहर से गुजरती माँ ने राहत की सांस ली।

#बंधन 

 

               —-संगीता त्रिपाठी 

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