प्रतिज्ञा – तरन्नुम तन्हा

चार दिन बाद घर लौटी तो बीमार माँ की सेवा में लगी फुलटाइम मेड-नर्स, नीना, ने बताया कि माँ बस जूस और सूप ले रही हैं; दलिया तो देखती भी नहीं।

“उनकी पसंद का कुछ और बना लेती न!”

“बच्चे की तरह जिद पर हैं कि सुहानी के हाथ से ही खाऊँगी,” नीना बहुत होपलैस लगी कि कहीं मैं उसे इनएफिशिएंट (अक्षम) न मान लूँ। लेकिन मैं तो अपनी माँ को जानती हूँ न।

मैं दो दिन दिन के लिए ऑफिस टूर पर थी, वहीं फोन आ गया कि थोड़ा और आगे देख लूँ, वर्ना अगले हफ्ते फिर यात्रा करनी होगी। अब सीनियर मैनेजर की पोस्ट पर पद्दोनति के बाद मुझे टूर भी करने पड़ते थे, तो सोचा कि अगले हफ्ते तक समस्या को छोड़ना मेरा सर्विस रिकॉर्ड ही खराब करेगा, अभी काम निपटा लिया जाए। मुझे ये तसल्ली थी कि नीना तो है ही, माँ को देख लेगी। माँ से फोन पर एक बार भी ठीक से बात नहीं हो पाई तो उन्हें तसल्ली नहीं हुई।

पिता जी की असामयिक मृत्यु के बाद दोनों शादीशुदा बहनें बँटवारे की बात करने लगी थीं। मैं माँ के साथ रहती थी। माँ ने मना किया कि सुहानी की शादी से पहले बँटवारा कैसे हो सकता है? बहनें इस बात पर माँ से ख़फा थीं। माँ को इस बात का भी दुख था। मँझली दीदी दिल्ली में थीं, लेकिन बड़ी दीदी ने तो लोकल होने के बावज़ूद पल्ला झाड़ लिया था।

घर आते ही नीना ने ये सब बताया तो मैं चिंतित हो उठी। माँ के कमरे में जाकर देखा, शायद वह कुछ नींद में थीं और सामने दलिया ज्यों का त्यों रखा था। मैंने तुरंत नीना से दो गर्म चपाती बनाने के लिए कहा और माँ से लाड जता कर उन्हें उठाया। फिर जल्दी से मैंने हाथ-मुँह धोए और गर्म चपाती में दो चम्मच घी डाला फिर थोड़ा सा नमक मिला कर चूरा कर दिया। फिर माँ के पास आकर उन्हें खिलाने लगी।

“मुझे नहीं खाना कुछ। कुछ अच्छा नहीं लगता”।



“ये आपको अच्छा लगेगा, माँ। मुँह खोलो आSSS,” मैं बोली तो माँ हँसने लगी।

मैंने झटपट मुँह में निवाला डाल दिया। माँ खाने लगी। गर्म रोटी में देसी घी की चूरी माँ मुझे खिलाया करती थीं, जब मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लगता था। मज़ा आ जाता था, मुझे आज भी याद है।

“वाह मज़ा गया, गर्मागर्म चूरी का,” माँ बोलीं, तो सुनकर मुझे खुशी भरी तसल्ली हुई।

मैं खिलाने लगी, माँ प्रसन्नता से खाने लगीं। मुझे पता था, माँ खुश तो मेरे उनके पास होने से थीं। मेरे बाहर होने पर उन्हें चिंता रहती थी। अक्सर कहती थीं, तेरी शादी कर दूँ, फिर मैं मरुंगी तसल्ली से, और मैं उनकी इस बात से परेशान हो जाती।

नीना मेरे लिए चाय बना कर ले आई। मैंने कप से थोड़ी चाय निकाल कर प्लेट में डाली और फूँक मारने लगी। ये देख कर माँ फिर मुस्कुरा दीं मगर चाय पीते हुए उनकी आँखों में आँसू आ गए।

“अब क्या हुआ?” मैं तो माँ के चेहरे पर खुशी देखना चाहती थी।

“तेरी शादी हो जाएगी तो मेरा इतना ख्याल कौन रखेगा? तू भी अपनी बहनों जैसी हो जाएगी!” माँ के दिल की बात निकली।

“कैसी बात कर रही हो माँ? मैं आपको छोड़ कर कहीँ नहीं जाऊँगी, शादी के बाद भी नहीं”।

“पागल है मेरी बेटी,” अचानक माँ का स्नेह उमड़ आया।

“माँ, आपको अमर याद है, जिसका रिश्ता आपने मेरे लिए ठुकरा दिया था”।



“हाँ याद है। कैसे भेजती तुझे उसके किराए के घर में? लड़के वालों को लड़की वालों से मजबूत होना चाहिए, इसी में समझदारी है”।

“मगर मैं उससे प्यार करती हूँ, माँ। और उसने भी मेरी खातिर अब तक शादी नहीं की है”।

“प्यार-व्यार सब दो दिन के चौंचले होते हैं, बेटी। अगर संसाधन न हों तो प्यार दो दिन का मेहमान होता है। हम तेरा भला ही चाहते थे, चाहते हैं,” माँ ने प्लेट रख कर स्नेह से उसके सिर पर हाथ फिराना चाहा तो सुहानी ने अपना सर उनकी गोद में रख दिया।

“माँ, अगर मैं अमर को शादी के बाद हमारे साथ ही रहने के लिए मना लूँ तो?”

“सोच ले। मैं तो राजी हूँ, इस बहाने तू मेरे साथ ही रहेगी, लेकिन दुनियांवाले क्या कहेंगे?”

“दुनियांवाले! कौन दुनियांवाले माँ? कौन हमारे साथ खड़ा हुआ पापा के जाने के बाद? यहाँ तो बहनें भी बँटवारे की बात करने लगीं। मैंने बड़ी दीदी को फोन किया था कि मुझे दो दिन और टूर पर रहना होगा, आप माँ का ध्यान रख लेना। बोली मैं नहीं जा सकती, बच्चों के एग्जैम्स हैं। मैं अब किसी की परवाह नहीं करती माँ”।

“ठीक कहती है, बेटी। अब मुझे भी समझ आ गया है। अगर तुझे लगता है अमर तेरे लिए अच्छा है, तुझसे सच्चा प्रेम करता है, तो मुझे कोई एतराज़ नहीं है। बल्कि…”

“बल्कि क्या माँ?” माँ का इशारा समझ कर मुझे लगा मेरी खुशी अधिक ही होने वाली है।

“अमर के माता-पिता भी हमारे साथ रहें तो अच्छा होगा। वे अकेले रह जाएंगे। मैं नहीं चाहती कि उन्हें बहू का सुख न मिले”।

“आप दुनियाँ की सबसे प्यारी माँ हो, माँ!” मैं माँ से लिपट गई।

माँ की संवेदनशीलता ने मेरी ज़िंदगी सुहानी, और मुश्किल आसान कर दी।

 (तरन्नुम तन्हा)

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