संस्कृति का हंसता खेलता परिवार उस समय उजड़ गया जब अचानक पति सोहम रोड एक्सीडेंट में उसे छोड़कर चले गए। रह गई अकेली संस्कृति और उसके दो बच्चे। कहने को रुपए पैसे की कोई कमी नहीं थी, सोहम ने इंश्योरेंस, किराए और कई ऐसी स्कीम्स पर इन्वेस्ट कर रखा था कि संस्कृति और बच्चों का जीवनयापन आसानी से हो सके। पर जिम्मेदारियां, सामाजिक दबाव तो कभी अकेलापन, सब संस्कृति को काटने को दौड़ता।
इस दौरान संस्कृति के सास ससुर ने उसे कहा भी कि वह चाहे तो उनके पास रहने आ सकती है।सोहम उनका अकेला बेटा था तो बच्चे रहेंगे तो उनका मन भी लगा रहेगा और संस्कृति और बच्चों को भी सहारा रहेगा। वह इस बारे में सोच ही रही थी कि उसी कमज़ोर पल में वह सोहम के ऑफिस सहकर्मी आशुतोष से कुछ अकाउंटस ट्रांसफर के सिलसिले में मिली।
आशुतोष के मददगार स्वभाव, बच्चों के प्रति स्नेह भाव से संस्कृति का झुकाव बहुत जल्दी उसकी तरफ हो गया। यह जानते हुए भी आशुतोष दो बच्चों का बाप है, उस बाहर की दुनिया से लड़ाई में वह अपनी अंदरूनी लड़ाई से हार गई और आशुतोष की तरफ आसक्त हो गई।
सास ससुर की कई मनुहार के बावजूद अब वह अपने और आशुतोष के रिश्ते के बारे में सोच, उन्हें टाल मटोल करती रही।
आशुतोष और उसके बीच नजदीकियां बढ़ती जा रही थी। इस दौरान एक आधी बार संस्कृति ने सोहम से उसके परिवार के बारे में पूछा भी, पर आशुतोष हमेशा उसके ऐसे सवालों को अनसुना ही करता था। संस्कृति भी अपने रिश्ते की हदों से वाकिफ थी, तो उसने कभी ज्यादा कुरेदा नहीं। यूं भी कुरेदने का अर्थ था, अपने आप को और अधिक परेशान करना।
फिर भी एक अनकहा सा रिश्ता दोनों के बीच गहराता जा रहा था, जिसमें वह आशुतोष की दैहिक जरूरतें पूरी करती थी और आशुतोष उसके घर बाहर के काम निपटाता और उसे भावनात्मक सहारा देता। पर आखिर कब तक वह इस झूठे दर्पण में खुद को देखकर खुश होती।धीरे धीरे संस्कृति की आशाएं आशुतोष से बढ़ती जा रही थी और आशुतोष का मन भी उस से ऊबने लगा था।
पर सिर्फ यही उसे परेशान करने के लिए काफी नहीं था, समय के साथ उसके बच्चे बड़े हो रहे थे, खासतौर से उसकी बेटी जो अब चौदह की हो गई थी।एक दिन उसने अपनी बेटी की किसी से चैट पढ़ी, जिसमें उसने किसी से मिलने का समय निश्चित किया हुआ था। संस्कृति ने ज्यादा कुछ चर्चा न करके सीधा उस नम्बर पर फोन किया और पता ले, वह वहीं पहुंच गई।
वहां पहुंचकर वह यह देख दंग रह गई कि यह आशुतोष का ही घर था, और उसकी बेटी किसी और से नहीं बल्कि आशुतोष के बेटे से ही बात कर रही थी। वहां आशुतोष के बेटे के अलावा उसकी भोली भाली, खूबसूरत सी पत्नी, बेटा और माता- पिता थे।स्थिति देख संस्कृति ने वहां आराम से बात की,
और उसने महसूस किया कि आशुतोष की पत्नी बड़ी सुलझी हुई है। उसने संस्कृति को आश्वस्त किया कि वह अपने बेटे को समझाएगी और उसे भी समझाया कि बच्चे इस उम्र में ऐसी गलती करते हैं तो आप ज़्यादा भावुक न हो बल्कि अपनी बेटी को कुछ अन्य कामों या कुछ क्लासेज में व्यस्त रखें ताकि उसका ध्यान इधर उधर कम भटके, पर बढ़ती उम्र में ज़ोर जबरदस्ती न करें, इस से बात बनने की बजाय बिगड़ सकती है।
घर आकर उसने आशुतोष को फोन कर बुलाया ताकि इस समस्या का कोई हल निकल सके और मन भी हल्का हो। उसने सारी बात आशुतोष को बताई। इस पर उसका पहला जवाब था कि तुम्हारी बेटी ने ही पहल की होगी, जैसी माँ वैसी बेटी। संस्कृति ने ऐसे जवाब की आशा न की थी। वह कहना चाहती थी कि मैं तो अकेली थी मजबूर थी, पर तुम्हारे पास तो सब होते हुए, तुम मेरे पास आए।
आशुतोष के जाने के बाद वह रह रहकर उस पल को कोस रही थी, जब पति सोहम के जाने के बाद उस कमजोर पल में वह महज़ एक भावनात्मक सहारे के लिए आशुतोष के साथ बातचीत करने लगी थी और फिर चीजें बढ़ती गई।
वह इस सोच में डूबी ही थी कि अचानक उसके ससुर का फोन आया कि सास की तबीयत खराब है, वह और बच्चे एक बार मिलने भर आ जाते। थोड़ी देर सोचकर संस्कृति ने फैसला किया कि जो हुआ उसे तो वह नहीं बदल सकती पर शायद अपने स्वार्थ में उसने जो सोहम के बच्चों को उसके दादा दादी से दूर करने का जुर्म किया है, उसका प्रायश्चित करने का समय आ गया है।
अगली सुबह ही उसने सास ससुर को फोन कर बताया कि वह अब बच्चों के साथ उनके साथ ही रहना चाहती है। दो चार दिन में ही वह आशुतोष से सारे रिश्ते तोड़, सामान बांध ससुराल पहुंच गई।
उन्हें देखते ही, सास ससुर की बूढ़ी आंखों से निर्झर आँसू बह रहे थे कि बेटा न सही बेटे की यादों के तौर पर कम से कम पोता पोती और बहू तो उनके पास रहेगी, वहीं संस्कृति भी मन बना चुकी थी कि वह अब मृगतृष्णा में न पड़, सास ससुर की सेवा कर, उनके साथ ही बच्चों में मन लगाएगी।
लेखिका
ऋतु यादव
रेवाड़ी (हरियाणा)