गर्मियों की छुट्टियाँ चल रही थीं। गली में बच्चों की मस्ती पूरे शबाब पर थी। कभी कोई पतंग काटता, तो कोई चिल्ला कर उसकी तरफ दौड़ता। गेंदें इधर-उधर लुड़कतीं, और हर नुक्कड़ पर शोरगुल गूंजता रहता।
इन्हीं सब के बीच, गली के एक कोने में एक टूटी-सी बेंच पर हर रोज़ एक बूढ़ी औरत बैठती थी — सफेद साड़ी, झुर्रियों से भरा चेहरा, माथे पर एक छोटी-सी बिंदी और हाथ में पुराने कपड़े का थैला। उसके पास कोई नहीं बैठता था। बच्चे उसे देखकर हँसते और फुसफुसाते,
“देखो भूतनी आ गई!”
“अरे यार, मेरी पतंग कहीं उसके घर न गिर जाए।”
कई बच्चों के लिए वो एक डरावनी परछाईं थी। लेकिन फिर भी, हर शाम वो वहीं बैठी रहती। जैसे किसी का इंतज़ार कर रही हो।
एक दिन शरारती चिंटू ने दोस्तों से कहा,
“चलो, आज काकी के घर की छत पर पतंग गिरा देते हैं, फिर बहाना बनाकर अंदर झांकेंगे।”
बच्चों ने हँसते हुए उसकी बात मान ली। पतंग काकी के आंगन में गिराई गई और चिंटू दबे पांव अंदर चला गया।
घर बहुत पुराना था। दीवारों की पपड़ी उधड़ी हुई थी। आंगन में तुलसी का एक सूखा गमला पड़ा था। अंदर से एक पुरानी फिल्म का गाना सुनाई दे रहा था —
“बाबुल की दुआएं लेती जा…”
कमरे में हल्की रोशनी थी। एक लकड़ी की कुर्सी पर काकी बैठी थीं, वही सफेद साड़ी, वही थैला उनके पास। उन्होंने धीरे से पूछा,
“पतंग लेने आया है?”
चिंटू सकपका गया, लेकिन सिर हिलाकर बोला, “हाँ।”
काकी मुस्कुराईं।
“ले ले बेटा… तेरा खिलौना न टूटे इसलिए मैं रोज़ बैठती हूँ। कभी तुम्हारे जैसे बच्चे आते हैं, कभी नहीं आते। पर मैं बैठी रहती हूँ।”
चिंटू चुपचाप खड़ा रहा। उसकी नजर एक टीन के बक्से पर गई। उसमें एक छोटे बच्चे की तस्वीर थी, जो शायद तीन-चार साल का रहा होगा। पास में एक चिट्ठी पड़ी थी —
“दादी, जब मैं बड़ा हो जाऊँगा, आपके लिए बहुत सारी मिठाइयाँ लाऊँगा।”
चिंटू ने धीरे से पूछा, “ये कौन है काकी?”
काकी ने तस्वीर को धीरे से सहलाया।
“ये मेरा पोता है… मेरा बेटा अमेरिका में रहता है। वहीं बस गया है। कई सालों से नहीं आया। पहले चिट्ठियाँ आती थीं, अब फोन भी नहीं आता। फोटो ही है जो रह गया है।”
कुछ पल चुप रहकर काकी ने पूछा —
“ये मेरा पोता है… तुम जैसा ही होगा ना? तभी तो मैं तुम लोगों का इंतजार करती हूँ…”
उसकी आंखों में चमक और नमी साथ-साथ थीं। चिंटू कुछ न कह सका। कुछ टूटा उसमें अंदर ही अंदर।
बाहर आकर उसने अपने दोस्तों को सारी बात बताई। बच्चों की आंखों में अपराधबोध उतर आया। सबकी शरारतें जैसे कहीं छुप गईं।
अगले दिन सुबह गली का दृश्य कुछ बदला हुआ था। चिंटू, पिंकी, सोनू, राजू – सभी हाथों में बाल्टियाँ, झाड़ू, ब्रश और फूलों के गमले लेकर काकी के घर पहुँचे।
किसी ने आंगन धोया, किसी ने दीवारों पर हल्का पेंट लगाया। टूटे गमलों में फूल लगाए गए। वो पुरानी बेंच रंग दी गई।
काकी दरवाज़े पर आईं, तो कुछ समझ न सकीं।
“अरे ये क्या हो रहा है?”
चिंटू बुदबुदाया;” प्रायश्चित”
फिर उनके पास गया, उनके हाथ थामकर बोला —
“हमसे गलती हो गई थी काकी… अब से हम आपके पोते-पोती हैं। अब आप रोज़ हमारा इंतज़ार मत कीजिए, हम खुद आ जाया करेंगे।”
काकी की आंखों से आंसू निकल पड़े। वो थरथराती आवाज़ में बस इतना कह सकीं —
“भगवान तुम्हें खुश रखे बेटा… अब ये झुर्रियाँ अकेली नहीं लगेंगी।”
उस शाम पहली बार काकी के आंगन में बच्चों की हँसी गूंजी। कहानियाँ चलीं, मूँगफली चबाई गई और गली की रौनक में एक नया रंग भर गया।
अब वो सिर्फ ‘पुरानी काकी’ नहीं थीं — अब वो सबकी ‘दादी’ थीं।
झुर्रियाँ अभी भी थीं, पर उनमें अकेलापन नहीं था — अपनापन था, प्रेम था, और इंतज़ार की जगह अब उम्मीदें थीं।
दीपा माथुर