रजत और आदित्य। नामों में तो सामंजस्य था, पर ज़िंदगी में सिर्फ प्रतिस्पर्धा थी। बचपन के दोस्त कब एक-दूसरे के सबसे कटु प्रतिद्वंद्वी बन गए, पता ही नहीं चला। स्कूल में अंकों की दौड़, कॉलेज में कैंपस प्लेसमेंट की जंग, और फिर कॉर्पोरेट जगत में पदोन्नति के लिए छीना-झपटी। रजत हमेशा खुद को दूसरे स्थान पर पाता। आदित्य उससे अधिक अंक ले आता, बेहतर नौकरी पकड़ लेता, और अब तो… प्रिया का दिल भी जीत लिया था, जिसे रजत चाहता था। हर सफलता रजत के कलेजे में ईर्ष्या की आग घोलती। उसका मन अशांत रहता, नींद उड़ी रहती। आदित्य का नाम सुनकर ही उसके जबड़े कस जाते, मन में प्रतिशोध की भावना उठती।
फिर एक दिन खबर आई – आदित्य बहुत बीमार है। कुछ गंभीर, अस्पताल में भर्ती। रजत के मन में पहली प्रतिक्रिया थी – शायद किस्मत ने उसे सबक सिखा दिया। पर फिर प्रिया का फोन आया, आवाज़ सिसकियों में डूबी हुई, “रजत… वो बहुत अकेला है। परिवार दूर है। कोई नहीं है उसके पास। तुम… तुम जानते हो न उसकी हालत?”
रजत चुप रहा। दिल में उथल-पुथल मची थी। जाना चाहिए? क्यों जाना चाहिए? उस आदमी के पास जिसने हर चीज़ उससे छीनी? पर प्रिया की बेबस आवाज़ और एक अजीब सी मानवीय करुणा ने उसे घसीटा। वह अस्पताल पहुँचा।
आईसीयू के बाहर काँच से झाँका तो साँस रुक गई। जिस आदित्य को उसने हमेशा चमकदार, जीवंत, विजयी देखा था, वह यहाँ पीली चादर में ढका, नसों में सुइयाँ घुसी, बेहोश पड़ा था। चेहरा धंसा हुआ, आँखों के नीचे गहरे काले घेरे। मौत से लड़ रहा था। अचानक, सालों की ईर्ष्या, प्रतिस्पर्धा, कुंठा… सब कुछ धुंधला सा होने लगा। एक पल में एहसास हुआ – यह तो उसका पुराना दोस्त है। वही जिसके साथ उसने साइकिल चलाई थी, वही जिसके साथ पहली बार सिनेमा गया था। क्या सच में वह इस हालत में उससे खुश हो सकता था?
दिन बीते। आदित्य की हालत नाजुक बनी रही। रजत न जाने क्यों, रोज आने लगा। शुरू में देर तक बैठता, फिर थोड़ा-थोड़ा करके काम करने लगा। नर्स को रिपोर्ट लेकर देना, डॉक्टर से बात करना, दवाइयों का टाइम याद रखना। प्रिया के साथ बारी बदकर रातें काटना। उसका कलेजा जो हमेशा आदित्य के नाम से जलता था, अब उसकी साँसों के लिए धड़क रहा था। प्रतिशोध की ज्वाला धीरे-धीरे बुझती जा रही थी, उसकी जगह एक गहरी चिंता और एक अजीब सी शांति ने ले ली थी। वह खुद को सिर्फ एक इंसान के रूप में देख पा रहा था, दूसरे इंसान की पीड़ा को समझते हुए।
करीब एक महीने बाद आदित्य आईसीयू से सामान्य वार्ड में आया। जाग रहा था, कमजोर पर जाग रहा था। जब उसकी नजर दरवाजे पर खड़े रजत पर पड़ी, तो उसकी आँखों में आश्चर्य और कमजोरी के बीच एक चमक दौड़ गई। उसने हाथ हिलाने की कोशिश की। रजत उसके पास गया, बिना कुछ कहे उसका हाथ अपने हाथों में ले लिया। आदित्य की आँखें नम थीं।
“रजत… तुम… तुम यहाँ?” आदित्य की आवाज़ फुसफुसाहट से ज्यादा नहीं थी।
“हाँ भाई, मैं यहीं हूँ,” रजत ने कहा, उसकी आवाज़ में एक ऐसी कोमलता थी जो उसे खुद भी आश्चर्यचकित कर रही थी।
“सब… सब बताया प्रिया ने… तुमने रातें… दिन…” आदित्य की आँखें और भर आईं, “मैं… मैं तुम्हारे लिए हमेशा… प्रतिद्वंद्वी रहा… माफ़ करना…”
रजत ने उसका हाथ थोड़ा और दबाया। उसके भीतर जो पत्थर जमा हुआ था, वह पिघल गया था। एक अद्भुत हल्कापन उसके सीने में भर रहा था। सालों का वह बोझ, वह जलन, वह अशांति… जैसे धुल गई हो। उसने देखा कि आदित्य के चेहरे पर जीवन लौट रहा था, उसकी आँखों में कृतज्ञता थी। इस पल में उसे कोई जीत या हार नहीं, बल्कि एक गहरा सुकून महसूस हुआ। उसके होंठों पर एक सच्ची, शांत मुस्कान खिली। उसने आदित्य की ओर देखते हुए कहा, जिसकी आवाज़ में पहली बार ईर्ष्या का नामोनिशान नहीं था, बल्कि दोस्ती की गर्माहट थी:
“कुछ नहीं भाई। बस तू ठीक हो जा। . अब तो पड़ जाएगी न तुम्हारे कलेजे में ठंडक? बीमारी का डर टला, सच्चा दोस्त मिला… और मेरा भी तो मन हल्का हो गया है।” उसने आदित्य का कंधा हल्के से थपथपाया।
कलेजे में पड़ी वह ठंडक सिर्फ बीमारी से मुक्ति का एहसास नहीं थी; यह उस जहरीली प्रतिस्पर्धा के अंत की राहत थी जिसने दोनों को जकड़ रखा था। यह स्वीकार करने का सुकून था कि मानवीय सम्बंध रैंक और उपलब्धियों से ऊपर होते हैं। आदित्य के आँसू और रजत की मुस्कान में सालों की दीवार ढह गई थी, और उसके मलबे से दोबारा जन्मी दोस्ती ने दोनों के जले हुए कलेजों पर शीतल मरहम का काम किया था। सबसे बड़ा निदान था – प्रेम और क्षमा का।
डॉ० मनीषा भारद्वाज
व्याड़ा (पालमपुर)
हिमाचल प्रदेश ।
Dr.Manisha Bhardwaj
(वाक्य प्रतियोगिता -अब तो पड़ जाएगी ना तुम्हारे कलेजे में ठंडक )