पेंशन पार्ट 2 – अरुण कुमार अविनाश

ओल्ड ऐज होम! 

 

सुमित्रा देवी विचारों के भंवर में डूब-उबर ही रही थी कि डोर बेल बजी – उठ कर उन्होंने दरवाज़ा खोला – निवेदिता थी।

अगले एक घँटे में निवेदिता जल्दी-जल्दी तैयार हुई और स्कूल जाने के लिये घर से बाहर निकल गयी।

इस समय सुबह के 09:15 हो रहें थे – निवेदिता की वापसी शाम को पौने पांच बजे तक होती थी – तब तक डॉली और घर उनके हवाले होता था – कल तक सुमित्रा देवी खुद को इस घर की स्वामिनी समझती थी –आज उन्हें लग रहा था कि वह तो महज एक मेड है – जिस पर घर के मालिकों को इतना विश्वास है कि उनकी मर्जी के बिना कोई ताला नहीं लगाया जाता ।

देखा जाये तो बात कुछ भी नहीं थी – परिवार के व्यक्ति से परिवार को सहयोग की अपेक्षा रहती ही है – बेटे और बहूँ ने कभी ऊँचे स्वर में बात नहीं की थी – उनकी आवश्यकताओं का पूरा-पूरा ध्यान रखा था – अंठावन (58) साल की उम्र में होने वाली शारीरिक व्याधियों से सुमित्रा देवी भी अछूती नहीं रहीं थी – उन तकलीफों का इलाज भी बेटा ही करवाता था। मशरूफियत की वजह से बेटा वक़्त तो नहीं दे पाता था –पर, ऑफिस से लौटने के बाद भले ही एक मिनट के लिये ही सही पर आ कर पूछ जाता था कि माँ कैसी हो ? तबियत कैसी है ? कोई ज़रूरत तो नहीं ?

 



सुमित्रा देवी इतने में ही निहाल हो जाती थी। पर कभी-कभी मन में चोट भी लगता था – खास तौर पर तब – जब बेटे-बहूँ के मित्र घर पर आते थे – उनका भी मन करता था कि वह नये लोगों से घुले-मिले पर – उन्हें उठ कर जाना पड़ता था – अगर वह खुद उठकर नहीं जाती तो मेहमान को लेकर बेटा-बहूँ दूसरे कमरे में चले जाते थे। अक्सर छुट्टियों वालें दिन बेटे-बहूँ कभी शॉपिंग करने –कभी किसी मित्र के घर या रेस्ट्रोरेंट  जाते थे – माँ तुम भी चलोगी ? – कभी किसी ने पूछा ही नहीं – हाँ फोन आ जाता था कि माँ खाना मत बनाना – हम लोग खा कर आ रहें है और आपके लिये भी खाना ला रहें है – कभी किसी मशहूर रेस्ट्रोरेंट का नाम छपे कार्ड बोर्ड के डब्बे में लजीज खाना होता था – तो कभी लंच बॉक्स में घरेलू दावत का खाना । वह मन मसोस कर खाना खा लेती थी – मुँह से कोई शिकायत भी नहीं करती थी पर दिल मे एक कसक तो रह ही जाता था – शरीर ही बूढा हुआ था – ख्वाहिशें कभी बूढ़ी नहीं होती – रेस्ट्रोरेंट में सिर्फ पेट नहीं भरा जाता – वहाँ के माहौल को भी एन्जॉय किया जाता है – नये-नये तौर-तरीके सीखें जाते है – लिबास सिर्फ तन ढकने के लिये पहना जाता तो एक चादर भी काफी था – नये फैशन के कपड़े पहनना क्यों जरूरी होता ? क्या आधुनिक जीवन जीने के लिये मुझें फिर से जन्म लेना होगा – पुनर्जन्म लेना होगा– या इसी जीवन में दकियानूसी विचारों से मुक्ति पानी होगी।

 

घण्टों तक उधेड़बुन में लगा दिमाग बहुत कुछ सोच गया – सुमित्रा देवी शिक्षित थी –समझदार भी थी –सिर्फ चतुर बुद्धी नहीं थी – उन्होंने स्वयं के बारे में सोचना ही छोड़ दिया था – खुद को परिस्थितियों के अनुकूल ढाल लिया था – जब खुद के बारे में सोचना शुरू किया तब सबसे पहले एक ही वाक्य दिमाग मे आया कि – मैं किसी पर आश्रित नहीं हूँ – मैं किसी का मोहताज नहीं – पति ने मेरे लिये पुरखों की ज़मीन जायदाद – लखनऊ का घर – बैंक में बैलेंस और सबसे बड़ी चीज महाना पेंशन छोड़ा है – पैसों की कमी नहीं है – मैं जो दो-दो लौंडी रख कर खुद की सेवा करवा सकती हूँ मुझें इन बहुओं ने लौंडी समझ लिया है। मैं इनके लिये खाना बनाऊँ –महरी न आये तो झाड़ू-पोछा करुँ –इनके बच्चें पालू और महीनें के आखिरी दिनों में जब इन लोगों की जेब खाली हो तो खर्चे के लिये रुपये भी दूँ।

 

वाह भाई वाह ! त्याग मैं कर रहीं हूँ और त्यागी ये लोग कहलाते है कि – देखों, बूढ़ी माँ को कितना प्रेम से रखतें है।

आक्रोश से भरे मन से उन्होंने निर्णय ले लिया कि अब बहुत हुआ – अब किसी के साथ नहीं – खुद के साथ जीना है – दूसरों की इच्छा की नहीं – खुद की इच्छा की करनी है।

डॉली खेलते-खेलते सो गई थी – उन्होंने डॉली के चारों ओर तकिया लगाया ताकि वह लुढ़क कर गिरे नहीं – और अपनी अटैची से एक पुरानी-सी डायरी निकाल कर उसमें दर्ज लखनऊ के कुछ नम्बरों पर अपने मोबाइल फोन से बात की – वहाँ से उन्हें जो भी सुनने को मिला उनके हाथ-पाँव सुन्न हो गए थे – फिर उन्होंने गाँव के रिश्तेदारों को फोन किया – वहाँ की खबर भी अच्छी नहीं थी।

पति को मरे छः माह ही हुए थे कि बेटों ने लखनऊ का मकान बेच दिया था – अगले दो सालों में गाँव की संपत्ति भी बेच दी गयी थी – ज़रूर बैंक एकाउंट भी खाली ही होगा – अब समझ में आया कि बेटों ने दिल्ली-मुम्बई जैसे महँगी जगहों पर – वो भी पॉश इलाकों में – इतना जल्दी,  इतना बढ़िया मकान कैसे ले लिया था – इतनी महंगी गाड़ी कैसे ले ली थी – वह जिसे बेटों की तरक्की समझ रही थी वह धोखा था – फरेब था – खुद से –अपनी जड़ों से – अपनी माँ से – अपने पुरखों से।

 

सुमित्रा देवी लखनऊ के एक बैंक में अपने परिचित अधिकारी को फोन की – अपना परिचय दी – एकाउंट नम्बर बताया और अपने एकाउंट का स्वास्थ्य पूछा – अमूनन बैंक अधिकारी इस तरह की सूचना फोन पर नहीं देते पर पूर्वपरिचित होने का लाभ मिला – सुमित्रा देवी का अंदाज़ा सही निकला – सारे फिक्स-डिपॉजिट मैच्योर होने से पहले आहरित कर लिये गये थे – लॉकर में पड़े गहनों का भी कोई भरोसा नहीं था – अंगूठी चैन जो वह पहनी थी के अलावा सिर्फ पेंशन ही उनका सहारा था।

यही वो सहारा था जो कोई उनसे छीन नहीं सकता था। उनका भविष्य इसी पर निर्भर था –उनकी दाल-रोटी दवाईयों का आसरा था।

तभी तो हर कर्मचारी संगठन पुराने पेंशन स्कीम की अनुशंसा करते है। इन्ही हालातों से बचने के लिये पेंशन की जरूरत है। कर्मचारियों ने पूरी जवानी इस आसरे के लिये मशक्कत की, कि बुढापे में चैन से रहें।

सिर्फ पेंशन के भरोसे वह चैन की जिंदगी जी सकती थी।

सुमित्रा देवी की आँखें डबडबा गयी – थोड़ी ही देर में सर दर्द से फटने लगा – जी चाहा कि बुक्का फाड़ कर रो ले –पर डॉली जग न जायें इस डर से उन्होंने अपनी पीड़ा को पी लिया। चीखों को अपने गले मे घोट दिया।

डॉक्टर बिटिया लन्दन में रहती थी – इस समय वहाँ रात थी – वह सोई हुई होगी – या हो सकता है नाइट ड्यूटी पर हो – सुमित्रा देवी ने व्हाट्सएप पर मैसेज भेजा –इमरजेंसी, तुरन्त बात करो– और वह प्रतीक्षा करने लगीं।

सुमित्रा देवी के फोन में अंतरराष्ट्रीय काल की सुविधा नहीं थी इसलिये जब भी बेटी से बात करनी होती थी वह व्हाट्सएप पर मैसेज भेजती थी – बेटी अपने सुविधानुसार कॉल कर लेती थी।

आज भी वही हुआ पांच मिनट के अंदर कॉल आया – सुमित्रा देवी ने कभी सुबकते कभी रोते हुए अपनी भड़ास निकाली जब चुप हुई तो बेटी का संक्षिप्त जबाब – ” मुझें सब मालूम है ।”

” पर मेरी मर्ज़ी के खिलाफ – मेरे दस्खत के बिना ये कैसे सम्भव है ।”

 

” पापा की डेथ के बाद, लखनऊ छोड़ने से पहले – आपने मकान किराये पर उठाने के लिये जो करारनामा  साइन किया था – उसी समय आपने पावर ऑफ अटॉर्नी विजय भईया के नाम लिख दिया था – बाद में भी आपने कई कागज़ों पर बिना देखे –बिना पढ़े साइन किया है – मुझसे भी दोनों भाईयों ने अनापत्ति प्रमाण पत्र लिया है – बकायदा स्टाम्प पेपर पर दस्खत करवा कर।”

” तुमनें भी साइन कर दिया !”

” तो, क्या करती ?”

” तुमनें मुझें बताना जरूरी भी न समझा ?”

” माँ – ज़रा सी बात को क्यों इशू बना रही हो – संपत्ति उनकी है – वहाँ जा कर उन्हें रहना नहीं है – जब आज नहीं कल बेचना ही है –तो क्या फर्क पड़ता है कि आज बेचा या कल बेचा – और दोनों भाइयों ने धन उजाड़ा नहीं है – अपना-अपना मकान खरीद लिया – शहर में और भी प्लाट ले लिया !”

 

” फर्क पड़ता है बेटी – पड़ता है फर्क – वक़्त से पहले कोई काम नहीं – मेरे मरने के बाद , मेरी देह ये बेटे ही जलायेंगे तब ये अंतिम संस्कार कहलायेगा – आज जला दें तो हत्या कहलायेगी।” – कह कर सुमित्रा देवी ने फोन काट दिया।

रात के आठ बजे रहें थे – विकास घर लौटा तो पता चला कि माँ की तबियत ठीक नहीं है – न शाम की चाय पी है न रोज की तरह काम करके रखी है –बस बिस्तर पर पड़ी है।

विकास ऑफिस के कपड़ों में ही माँ के कमरें में आया –” क्या हुआ माँ ?” – माँ का ललाट छूता हुआ बोला।

” मुझें लखनऊ जाना है।” – स्वर को भरसक सन्तुलित रखते हुए सुमित्रा देवी बोली।

” लखनऊ में क्या रखा है माँ !”

 



” क्या नहीं है लखनऊ में – मेरा घर है – वहाँ के बैंक में मेरी FD है – पेंशन एकाउंट है – पड़ोसी है – मित्र है। या मकान और FD की तरह सब कुछ खत्म हो गया “– सुमित्रा देवी फट पड़ी।

विकास को जैसे सांप सुंध गया हो – जाने कितनी ही देर तक वह किंकर्तव्यविमूढ़ सा खड़ा रहा फिर बड़े भाई विजय को दोषी और खुद को निर्दोष सिद्ध करने की कोशिश करने लगा।

” रहने दे, बहुत से पेपर मुझसे तुमनें भी साइन करवायें है – जान बूझ कर हड़बड़ाहट प्रदर्शित करते हुए कि ऑफिस जाने में देर हो रही है – तुम्हें देर न हो जाये इसलियें बिना पढ़े –बिना सोचे-विचारें मैंने ये सोच कर साइन कर दिया कि बेटा ही तो साईन करवा रहा है – जब बेटे से ही विश्वासघात मिला हो तो शिकायत किससे करुँ।”

” आखिर चाहती क्या हो ?”

” तुमसे तो कुछ नहीं – आज आखिरी रात है जो मैं तुम्हारें घर में तुम लोगों के साथ हूँ – कल की रात मै यहाँ नहीं रहना चाहती।”

” मैं विजय भईया के पास दिल्ली का टिकट ——-।”

” कहीं नहीं रहना मुझें  – न मुम्बई न दिल्ली न लन्दन –लखनऊ जाऊँगी – वहीं किराये पर मकान ले कर रहूँगी या गाँव चली जाऊँगी कहीं कोई ठौर न मिला तो ओल्ड ऐज होम में रहूँगी – पर तुम लोगों के साथ रहना अब मुमकिन नहीं – ज़बरदस्ती करोगें तो बिल्डिंग की छत से कूद कर जान दे दूँगी।”

” कोई ज़बरदस्ती नहीं करेगा – मैं लखनऊ में आपके रहने-खाने की व्यवस्था कर दूँगा – पर अभी तो उठो –हाथ मुँह धो कर खाना खा लो।”

” खाना रख जाओं – जब भूख लगेगी तब खा लूंगी ।” कह कर सुमित्रा देवी ने करवट बदल कर मुँह फेर लिया।

 

विकास थोड़ी देर तक वहीं खड़ा रहा – फिर अपने कमरें में चला आया – जेब से मोबाईल निकाला और बड़े भाई विजय को वस्तुस्थिति समझानें लगा।

” मैं पहली फ्लाइट से मुंबई आ रहा हूँ।” विजय ने कह कर फोन काटा और ट्रेवल एजेंट को फोन करने लगा।

अगली सुबह हुई – डॉली ने उन्हें जगाया – वे देर रात तक दिल्ली और लन्दन बातें करते रहें थे – भविष्य की योजनायें बनायी गयीं थी। देर से सोने के कारण सुबह नींद नहीं खुली थी।

किचन में कोई खट-पट नहीं , कोई हलचल नहीं – जबकि माँ रोज सुबह जग जाती थी और निवेदिता के जगने से पहले किचन का आधा से ज़्यादा काम हो चुका होता था – माँ नाराज़ है ये तो वह जानती थी पर तत्कालिक कारण क्या था वह समझ नहीं पायी थी ।

बुढापे की सनक है – सोच कर वह सास के कमरें में पहुँची – लाइट जलायी – पलँग पर नजर पड़ते ही उसकी चीख निकल गयी – सुमित्रा देवी अपने वादे के मुताबिक इस घर से तो क्या – इस दुनियां को भी सदा के लिये अलविदा कह गयी थी।

मृत चेहरे पर पीड़ा के भाव परिलक्षित हो रहें थे और साइड टेबल पर ढक कर रखा खाना वैसे ही पड़ा था जैसे बीते रात निवेदिता छोड़ गयी थी।

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