रूपा की शादी को आज पूरे आठ साल हो गए थे। गांव के नज़दीक एक छोटे कस्बे में उसका ससुराल था। शादी के दिन उसे सजाकर जैसे ही विदा किया गया था, घर भर में मानो कोई देवी आई हो—सबके चेहरे पर मुस्कान थी। लेकिन ये मुस्कान रूपा की किस्मत में जिंदगी भर के लिए नहीं थी, सिर्फ उस दिन के लिए थी।
सास ने पहले ही दिन से आदेशों की पोटली उसके सिर पर लाद दी थी—”सुबह चार बजे उठना, पहले सबके लिए चाय बनाना, फिर गोशाला देखना। और हाँ, हमारे घर की बहुएँ अपने लिए कुछ नहीं सोचतीं।”
रूपा मुस्कुरा दी थी। उसे लगा था—शायद यही हर घर का दस्तूर होता है। वह कुछ कहे बिना, दिन-रात घर की ज़िम्मेदारियों में लग गई। खाना बनाना, झाड़ू-पोंछा, कपड़े धोना, ननद की फरमाइशें और देवर की खट्टी-मीठी बातें—रूपा ने सब निभाया।
राजू, उसका पति, सीधा-सादा आदमी था। नौकरी करता था और घर में किसी से बहस करने से बचता था। रूपा को पसंद करता था, पर कभी उसके पक्ष में खड़ा नहीं हुआ। जब भी रूपा कुछ कहने की कोशिश करती, राजू यही कहता—”छोटे-छोटे मामलों को दिल पे मत लिया कर। तू समझदार है न?”
धीरे-धीरे रूपा की समझदारी बोझ बनने लगी।
वह मां बनी, पर प्रसव के बाद भी घरवालों ने दो दिन से ज़्यादा आराम नहीं करने दिया। ननद ने कहा—”हमने भी बच्चे जनें हैं, क्या तू पहली है?” देवर ने ताना मारा—”अब तो बहन से ज़्यादा भाभी का नखरा दिख रहा है।”
रूपा बस चुप रही। बच्चे को गोद में उठाए जब भी उसकी नज़र छत पर पड़ती, लगता जैसे वह नीला आसमान ही उसकी एकमात्र आज़ादी है।
समय बीतता गया, पर हालात नहीं बदले।
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फिर एक दिन—जुलाई की उमस भरी दोपहर थी। रूपा रसोई में खड़ी-खड़ी अचानक चक्कर खाकर गिर गई। सब भागे। सास की आवाज़ गूंजी—”इतना काम करती है, कोई मशीन थोड़े ही है!” राजू उसे अस्पताल ले गया। डॉक्टर ने कहा—”शरीर में विटामिन की भारी कमी है, खून की कमी है और सबसे बड़ी बात—थकान ने इसे तोड़ दिया है। अगर अब भी इसे आराम नहीं मिला, तो ये किसी दिन हमेशा के लिए गिर जाएगी।”
घर लौटते वक़्त रूपा चुप थी। राजू भी। पहली बार, राजू के चेहरे पर चिंता साफ़ दिख रही थी।
“रूपा,” उसने धीमे स्वर में कहा, “माफ़ कर देना। मैंने तुझे कभी तेरी तकलीफें कहने का मौका नहीं दिया।”
रूपा ने कुछ नहीं कहा।
घर पहुँचे तो माहौल बदला-बदला सा था। देवर दौड़कर आया, बैग उठाया। ननद ने पानी लाकर दिया। सास कुछ कहने को आई, पर शब्दों की जगह आँखों से झिझक झलक रही थी।
अगले कुछ दिनों तक रूपा के हाथ में झाड़ू नहीं आया। देवर ने बर्तन साफ किए, ननद ने खाना बनाया।
एक दिन चाय बनाते हुए देवर ने कहा,
“भाभी, चाय कैसी बनती है…?”
रूपा मुस्कुरा दी। पहली बार किसी ने ‘भाभी’ कहकर उसका मान किया था।
ननद पास आई, उसके बाल सँवारते हुए बोली—”भाभी, पता नहीं आप जैसी सहनशीलता हममें होती या नहीं।”
रूपा की आंखें भर आईं। ये वही ननद थी जो उसे कभी नौकरानी समझती थी।
सास चुपचाप उसके पास आई और बैठ गई।
“बहू, तू ही इस घर की रीढ़ है। अगर तू न होती न, तो ये घर घर न रह जाता।”
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रूपा ने कुछ नहीं कहा। अब वो रो नहीं रही थी। न हँस रही थी। बस एक हल्का सा सुकून उसके चेहरे पर था, जैसे कोई लंबी तपस्या रंग लाई हो।
वह कमरे में गई, बच्चे को गोद में उठाया और खिड़की से बाहर नीले आसमान की ओर देखा।
अब वही आसमान उसे खुला महसूस हुआ।
उसने मन ही मन सोचा:
“पत्नी तो कब की बन गई थी, पर बहू और भाभी आज बनी…”
पता नहीं कब बहुओं को भी परिवार के बाकी सदस्यों की तरह ही समझा जाएगा।
मायके वाले कहते है तुम्हें पराए घर जाना है और सुसराल वाले कहते है तुम पराए घर से आई हो। आखिर क्या करे एक स्त्री?????
रुपा जैसी ना जाने कितनी ही स्त्रियाँ है जो कितनी ही बीमार क्यों ना हो जाएं लेकिन उन्हें इंसान समझा ही नहीं जाता, बस वो एक मशीन है और कुछ नहीं।
आखिर कब तक चलेगा ये सब ??
तृप्ति सिंह……