अपना अपना पश्चाताप – बालेश्वर गुप्ता

 क्यूँ, आशीष क्या तुम लोगो को अपने कामकाज के सामने अपने बाप को सुकून से मर सके,ऐसी स्थिति रखने जैसी हैसियत भी नही थी? अरे बिशन बाबू नगर की शान हुआ करते थे,ऐसे चले जायेंगे,सोचा नही था।ठीक ही हुआ चले गये,अब सब चैन से रहेंगे।

     आप क्या कह रहे हैं, अंकल, बाबूजी के लिये हम दोनों भाई क्या नही कर सकते थे,क्या नही किया?उनके द्वारा दिये मार्गदर्शन के सहारे ही तो हमने ये मुकाम पाया है।

      उनकी पीड़ा को तुम कहाँ समझ पाये।चलो भई भगवान तुम्हारा भला करे।

    बिशन बाबू अपने नगर के एक प्रतिष्ठित व्यवसायी, लोकप्रिय, दानवीर ,मिलनसार,व्यक्तित्व थे।दो बार तो बिशन बाबू नगर के चेयरमैन भी रह चुके थे।सामाजिक और व्यवसायी जीवन मे वो गजब का संतुलन रखते थे।शाम के समय तो उनकी कोठी में नगर के गणमान्य व्यक्तियों का प्रतिदिन जमघट लगा रहता।इतना व्यस्त जीवन होने पर भी वो अपने दोनों बेटों का भरपूर ध्यान रखते।उनकी पढ़ाई,उनके हावभाव उनकी रुचि पर बिशन बाबू की गहरी दृष्टि रहती थी।यही कारण रहा कि उनके दोनों बेटे उनको सम्मान देने वाले और मेधावी निकले।

      एक बेटा आशीष तो बैंगलोर में एक अच्छे जॉब पर लग गया।दूसरा बेटा रवीश हालांकि जॉब ही करना चाहता था पर बिशन बाबू ने उसे जॉब की अनुमति न देकर अपने की व्यवसाय को संभालने की जिम्मेदारी दे दी।रविश ने बहुत अच्छे तरीके से अपने पिता के व्यवसाय को संभाल भी लिया।




       सब ठीक चल रहा था।व्यवसाय रवीश ने संभाल ही लिया था इस कारण बिशन बाबू धीरे धीरे अपने को व्यवसाय से अलग कर रवीश को ही सौप रहे थे।अब उनके पास खूब समय रहने लगा था।सामाजिक कार्यो में उनकी रुचि बढ़ गयी थी।आशीष बीच बीच मे घर आता तो बस पिता के पास ही बैठा रहता।उनकी बात सुनता,संस्मरण सुनता।बिशन बाबू को अच्छा लगता।

      एक दिन बिशन बाबू बाथरूम में फिसल कर गिर पड़े, कूल्हे की हड्डी में फ्रैक्चर हो गया।हालांकि कूल्हे को बदलवा दिया फिर भी उनका सामान्य जीवन वापस नही आ पाया।रवीश तो एक माह जा अवकाश ले अपने पिता की सेवा में ही लगा रहा।एक नर्स की घर मे व्यवस्था कर दी गयी,जो बिशन बाबू की देखभाल में रहती। कुछ दिन तो इसी प्रकार निकल गये।आशीष आ गया था,उससे बतियाते, पोते से बात करते,समय कब व्यतीत हो जाता, पता ही नही चलता।आशीष को आखिर जॉब पर लौटना ही था,वो चला गया,पोता भी उसके साथ जाना ही था ,चला गया।पहली बार बिशन बाबू को अपने ही घर मे सूनापन लगा।रवीश अपने पिता का ध्यान तो रखता पर उतना समय नही दे पाता,उसका सोचना था,नर्स रख तो दी है, देखभाल कर तो रही है।

     बिशन बाबू के कूल्हे के ऑपरेशन में शायद कमी रह गयी,पूरी तरह वो ठीक हो नही पाये।समय के साथ अकेलापन उन्हें काटने को दौड़ता,पूरा जीवन समाज मे रहे थे,अब वो बंध कर रह गये थे एक पलंग से।रवीश के पास एक तो समय का अभाव रहता,कुछ वो पत्नी के पास भी समय देना पड़ता, सो घर मे रहते हुये भी रवीश पर बिशन बाबू के लिये समय कम ही रहता।




       एक दिन बिशन बाबू ने रवीश से कह ही दिया,बेटा अकेले  पड़े पड़े टाइम पास नही होता,मेरे पास भी तो बैठा कर।रवीश का उत्तर सुन बिशन बाबू तो हक्के बक्के रह गये।रवीश बोला  आपने मुझे नौकरी तो करने नही दी,अपने व्यवसाय में लगाया है तो उसे कर तो रहा हूँ,यहां बैठूंगा तो काम कौन करेगा?बड़े भाई की तरह नौकरी में होता तो मैं भी छुट्टी लेकर आ जाता।बिशन बाबू अवाक रह गये।उन्हें पश्चाताप हो रहा था,उन्होंने आखिर अपनी मर्जी अपने बेटे पर क्यो थोपी?

  अब बिशन बाबू इसी सोच से भी घुटन महसूस करने लगे कि रवीश से अन्याय हो गया। अब उन्हें अपने ही बेटे रवीश से डर सा लगने लगा था,कही वो फिर से ताना ना मार दे।वे रवीश को समझाने से भी कतराने लगे थे कि कोशिशों के बाद भी जब उसकी नौकरी नही लगी थी तब उसे अपने व्यवसाय में डाला था। उस दिन के बाद बिशन बाबू अपने को  अपने ही घर मे नितांत अकेला समझने लगे।

       एक दिन बिशन बाबू ने हिम्मत करके अपने बड़े बेटे आशीष को फोन किया ,बोले बेटा कुछ दिन तेरे पास रहना चाहता हूं,मेरा कुछ बदलाव भी हो जायेगा और मुन्ना के साथ मन भी लग जायेगा।क्यों नही बाबूजी,ये तो बहुत अच्छा रहेगा।मैं अगले माह आऊंगा और आपको अपने साथ ही लिवा लाऊंगा। बिशन बाबू तो अधीर थे सो फिर कहा बेटा, रवीश यहां दिल्ली से हवाईजहाज में बिठा देगा वहां तुम होंगे ही।अरे नही बाबूजी मैं ही आप मेरे ही साथ आना।ठीक है, बेटा।




       दरवाजे पर मिलने आये बिशन बाबू के मित्र और पड़ौसी गिरधारी इस वार्तालाप को सुन रहे थे। वे बिशन बाबू की पीड़ा समझ रहे थे,समाज मे हरदम रहने वाला प्राणी आज कैसे अकेलेपन से झूझ रहा है।कैसे अपने ही बेटे से उसके पास आने की गुहार कर रहा है।

        उदासीन चेहरे को उठा कर बिशनबाबू ने गिरधारीलाल को खड़े पाया तो दूसरी तरफ मुँह करके भीगी आंखों को पौछ कर उन्होंने गिरधारी का स्वागत किया।गिरधारीलाल जी को ये तो मालूम था नही कि आशीष ने बिशन बाबू को क्या उत्तर दिये थे,उन्होंने आशय निकाल लिया था,कि बिशनबाबू आशीष के पास जाना चाहते थे,और उसने उन्हें टरका दिया है।तभी तो उन्होंने बिशन बाबू की मृत्यु पर आशीष से कहा था सुकून से मर जाते क्या ऐसा भी नही कर सकते थे।

   उधर रवीश अपने पिता से कड़वा बोल गया तो सोचने लगा कि मेरी नौकरी नही लगी थी तो बाबूजी का क्या कसूर,उन्होंने तो मुझे अपना वारिस ही बना दिया,सारा व्यवसाय ही मुझे सौप दिया।मुझे बाबूजी से ऐसे बोलने का अधिकार नही था।हे भगवान मैं अपने बाबूजी से ऐसा कैसे बोल गया।कैसे बाबूजी को अपना मुँह दिखाऊँ?

      आशीष ने बाद में सोचा कि पहली बार बाबूजी ने मेरे पास आने की इच्छा जाहिर की और मैंने अगले माह के लिये कह दिया,पता नही बाबूजी क्या सोच रहे होंगे?मैं अबकि बार इसी शुक्रवार को जाकर बाबूजी को लिवा कर ले ही आऊंगा,जब तक भी रुकेंगे मुझे भी बाबूजी की सेवा का अवसर मिलेगा।

       सोचा पूरा हो जाये  तो फिर भगवान को कौन माने?बुधवार को ही बिशन बाबू हृदयाघात से स्वर्ग प्रस्थान कर गये।तभी तुरंत आशीष को भी आना पड़ा।अंतिम संस्कार हो गया।बड़े स्तर पर आरिष्टि भी हो गयी।सामाजिक थे तो व्यापार संघ ने अलग से शोक सभा भी आयोजित की।

       टीस थी तो आशीष के मन मे  वो बाबूजी के कहते ही उन्हें अपने पास क्यो नही ले आया?टीस थी तो रवीश के मन मे क्यूँ उसने बाबूजी के अकेलेपन को नही समझा और उस दिन कटु भी बोल गया?कैसे प्रतिकार करे?एक टीस तो बिशन बाबू भी मन मे लेकर चले गये कि रवीश यदि नौकरी करना चाहता था तो क्यों उन्होंने उसे व्यवसाय में लगाया?

  बिशन बाबू तो चले गये पर अपने अकेलेपन की टीस को ही व्यक्त ना कर पाये और ना कोई समझ सका।गिरधारीलाल सोच रहे थे वो भी तो अकेला था तो क्यो नही उसने अपने अकेलेपन को बिशन बाबू के साथ शेयर किया?काश वो कर पाता,समझ पाता?

#पछतावा

        बालेश्वर गुप्ता, नोयडा

स्वरचित, अप्रकाशित।

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