अरे यार सीमा…! लेकर जाओ ना इसे यहां से… 1 दिन तो घर पर रहता हूं… उस पर भी इसे पकड़ा जाती हो…
रमन ने चीखते हुए कहा…
रमन का इतना कहना हुआ नहीं कि, उसकी मां रमावती कहती है… सच कहते हो बेटा..! छुट्टी के दिन तुझे और बाकी दिन मुझे… इसे तो बस बहाना चाहिए मुन्ने को हमें थमाने का…
सीमा रसोई से निकल कर आती है और कहती है…. यह कैसी बातें कर रहे हैं आप लोग..? मैं इसे थमाने के बहाने बनाती हूं..? पूरे घर का काम करना होता है… ऐसे में कोई तो होना चाहिए जो इसे संभाले..?
रमन: तो तुम्हें क्या लगता है…? मां ने मुझे नहीं संभाला था..? या फिर घर के काम नहीं किए थे…? घर और बच्चे संभालना दोनों ही औरतों के काम है… फिर तुम कुछ महान तो नहीं कर रही ना..?
रामावती जी: सही कहा बेटा तूने…! अरे… मैं तो तुझे और तेरे काका, बुआ दादा-दादी सभी को संभालती थी… इसे तो सिर्फ हम तीनों को ही संभालना होता है…. 2 लोगों का खाना बनाने में ही इसे दोपहर के 2:00 बज जाते हैं…. पता नहीं, इतनी आलस यह लाती कहां से है..?
सीमा अब कुछ नहीं कहती, क्योंकि यह उसके घर की रोज़ की बात थी… किसी ना किसी बहाने से उसे सुनाया ही जाता था… खाना लेट क्यों बना..? मुन्ना कैसे गिरा..? कपड़े अभी तक क्यों नहीं धुले..? वगैरा-वगैरा…
सीमा रसोई में चली तो जाती है… पर आज पता नहीं उसे कोई काम करने की इच्छा ही नहीं हो रही थी… वह सोच रही थी, जितना मैं करती चली जा रही हूं… उतना ही यह लोग मुझे मशीन समझते चले जा रहे हैं… पर अब बस..! बहुत हो गया मशीन बनना…. मैं भी इंसान हूं… और इन्हें अब यह बताना होगा…
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अगली सुबह…
रमन: सीमा..! सीमा..! मेरी फाइल नहीं मिल रही… ज़रा आकर निकाल दो और साथ में मेरा नाश्ता भी लेती आना…
सन्नाटा… कोई कुछ जवाब नहीं देता… तो इस पर रमन गुस्से में कमरे से निकलता है… और सीमा को ढूंढने लगता है… सीमा तो उसे नहीं मिलती पर रमावती जी ज़रूर मिल जाती है…
रमन: मां…! यह सीमा कहां है..? मेरे ऑफिस का टाइम हो गया है और अभी तक इसने मुझे नाश्ता भी नहीं दिया…
रमावती: पता नहीं बेटा..! तब से मैं भी इसे ही ढूंढ रही हूं… आज सुबह से मुझे एक कप चाय भी नहीं दिया उसने…
रमन: लगता है इसकी हिम्मत कुछ ज्यादा ही बढ़ गई है…
सीमा..! सीमा..! तो रमन और रमावती देखते हैं… सीमा बगीचे में बैठी, अपने बेटे को गोद में खिला रही है और बीच-बीच में चाय की चुस्कियां भी ले रही है…
यह देखकर दोनों मां-बेटे गुस्से में आकर कहते हैं… क्या कर रही हो तुम यहां..?
रमन: मेरा ऑफिस है, क्या तुम्हें पता नहीं..? मेरा नाश्ता, मां की चाय कहां है..? तुम यहां आराम से बैठ कर चाय पी रही हो और हम वहां कितने परेशान हो रहे हैं..?
सीमा हंसते हुए कहती है… अरे…. मैं तो आप लोगों का ही काम कर रही थी…
रमावती: हमारा काम..?
सीमा: हां…मां… आपने ही तो कल कहा था ना, कि पता नहीं इतनी आलस यह कहां से लाती है..? बस वही दिखाना था… अगर मैं आलसी होती तो, आप लोग इतने परेशान ना होते… जैसे अभी है…
सीमा की यह बात दोनों मां-बेटे के जुबान पर ताला थी और अब दोनों मां-बेटे सीमा की अहमियत समझ चुके थे…
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मुन्ने को संभालना हो या खाने में नमक कम… अब किसी की मजाल नहीं थी की, सीमा को छेड़े…
तो दोस्तों कभी-कभी हमें आलसी बन भी जाना चाहिए, ताकि कोई हमें मशीन ना समझे… क्यों सही कहा ना मैंने..?
स्वरचित/मौलिक/अप्रकाशित
#5वां जन्मोत्सव
धन्यवाद
रोनिता कुंडू