कहानी है नेहा की—एक बहू, एक पत्नी और सबसे बढ़कर एक इंसान की। वो हँसमुख, शिक्षित और संस्कारी लड़की थी, जिसने अरमानों से भरकर रोहित से शादी की थी। शुरू-शुरू में सबकुछ ठीक चला, लेकिन शादी के दो साल बाद नेहा को ब्रेस्ट कैंसर होने का पता चला।
जैसे ही रिपोर्ट पॉज़िटिव आई, घर का माहौल बदल गया। रोहित की माँ ने सबसे पहले कहा—
“हमारा बेटा तो अभी जवान है। क्या उम्र भर एक बीमार औरत के साथ बिताएगा? और ऊपर से लाखों का खर्चा?”
पिता बोले—“लड़की को उसके घर भेज दो। हम ये बोझ नहीं उठा सकते।”
रोहित… चुप था। उसे नेहा से प्यार तो था, लेकिन माँ-बाप की बातों के आगे और पैसों के लालच के सामने प्यार छोटा पड़ गया।
नेहा को मायके भेज दिया गया। वहाँ भी हालात ठीक नहीं थे। पिता पहले ही रिटायर हो चुके थे। माँ ने गहने बेचकर इलाज शुरू करवाया। कुछ मदद नेहा के कुछ दोस्तों ने की, लेकिन बीमारी बढ़ती गई।
रोहित की दूसरी शादी जल्द ही करवा दी गई.
श्रुति नाम की लड़की से, जो खूबसूरत, आधुनिक और पैसेवाले घर से थी। नेहा को इस बात की भनक तक नहीं लगी। वो तो हॉस्पिटल के चक्कर और कीमोथैरेपी के दर्द में उलझी रही।
तीन साल बाद, नेहा ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया—चुपचाप, बिना कोई सवाल किए, बिना कोई शिकायत किए।
कुछ सालों में रोहित और श्रुति का एक बेटा हुआ। लेकिन खुशी ज्यादा दिन ठहर न सकी। अचानक रोहित को तेज सिरदर्द, उल्टियाँ और थकान रहने लगी। टेस्ट हुए तो रिपोर्ट में ब्रेन कैंसर निकला।
अब जब इलाज का खर्च आया, तो श्रुति ने एकदम अलग रूप दिखाया, मैं इतनी जवान हूं, किसी बीमार मर्द के साथ ज़िंदगी नहीं काट सकती। और तुम्हारी ये बीमारी तो लंबी चलेगी।
वो तलाक लेकर चली गई, अपने साथ 25 लाख की एलिमनी और बच्चा भी ले गई।
रोहित का सब कुछ बिक गया—कार, बिज़नेस, यहाँ तक कि पुश्तैनी मकान भी। माँ-बाप टूट चुके थे। पिता हार्ट अटैक से चल बसे, और माँ डिप्रेशन में चली गई।
अब रोहित भी जीना नहीं चाहता था, उसने नेहा के साथ जो किया उसकी सजा उसको मिल चुकी थी।
पर कहते हैं, कर्म का लेखा-जोखा सटीक होता है।
एक NGO ने रोहित की मदद की, उसका इलाज करवाया। लंबे इलाज के बाद रोहित बच तो गया, लेकिन अब वो वो रोहित नहीं था,
उसने अपने जीवन को एक मकसद दिया। वो उसी NGO के साथ जुड़ गया और कैंसर पीड़ितों की सेवा करने लगा। जो दर्द नेहा ने अकेले झेला, वो अब किसी और को न झेलना पड़े, यही उसका प्रण बन गया।
हर रोज़ जब वो हॉस्पिटल में मासूम बच्चों को कीमो के बाद मुस्कुराते देखता, उसकी आँखों में नेहा का चेहरा आ जाता। कभी-कभी वो खुद से पूछता—
“काश उस दिन मैंने उसका हाथ नहीं छोड़ा होता…”
प्रायश्चित उसके शब्दों में नहीं था—वो उसकी आँखों में था, उसके हर कर्म में था।
उसने एक छोटा सा ट्रस्ट शुरू किया—”नेहा स्मृति सेवा संस्थान”, जहाँ गरीब कैंसर मरीजों को दवा, खाना और इज़्ज़त मिलती थी।
और यही था उसका सच्चा प्रायश्चित—ना दिखावे वाला, ना झूठी माफ़ी मांगने वाला—बल्कि अपने पापों को धोने की एक चुप साधना।
साहिल जैन
गाज़ियाबाद
#प्रायश्चित