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‘ पहल तो करें ‘ – विभा गुप्ता

   ” ये तू क्या कह रही नैना, विधवा का विवाह!जगहँसाई करानी है क्या? पिछली होली पर तुम लोगों ने उस पर रंग डाला,मैंने कुछ नहीं कहा,पर अब शादी..।हर्गिज़ नहीं।” अयोध्या बाबू तीखे स्वर में अपनी बेटी से बोलें तो नैना ने कहा, ” लेकिन पापा इसमें हर्ज़ ही क्या है? आखिर भाभी की अभी उम्र ही क्या है?और पापा, आप कब से जगहँसाई की परवाह करने लगे?आपने तो कभी भी जाति-धर्म,क्लास को महत्व नहीं दिया है,फिर भाभी के पुनर्विवाह पर आपत्ति क्यों?रवि कोई गैर नहीं है,मेरा देवर है,मेरे परिवार से भी आप बखूबी वाकिफ़ हैं।” बेटी की बात सुनकर वे नरम हो गये।बोले, ” फिर भी मुझे सोचने का समय चाहिए।”

” ज़रूर पापा,आज का पूरा दिन है आपके पास।मैं कल शगुन लेकर ही आऊँगी।” कहकर वह चली गई और अयोध्या बाबू दुविधा में थें कि क्या करें? एक तरफ़ बहू के आगे पूरी ज़िदगी पड़ी है और दूसरी तरफ़ उनका समाज,उनकी रूढ़ियाँ।

         चार बरस पहले ही अयोध्या बाबू ने अपने बेटे प्रकाश का विवाह अपने मित्र की बेटी किरण के साथ धूमधाम से किया था।शादी के एक साल बाद दोनों घूमकर लौट रहें थें कि ट्रेन का एक्सीडेंट हो गया,किरण की जान तो बच गई लेकिन प्रकाश ने वहीं दम तोड़ दिया था।बहुत मुश्किल से किरण ने अपने आपको संभाला था।अयोध्या बाबू और उनकी पत्नी को दिन-रात यही चिंता सताए रहती थी कि हमारे बाद किरण का क्या होगा।दिल की नरम और स्वभाव की सरल किरण जब भी अपनी सूनी माँग लिए ससुर के सामने आती तो उनका कलेजा मुँह को आ जाता।

      पिछली होली में जब नैना अपने परिवार संग पिता के घर होली खेलने आई थी,तब उसने अपनी भाभी पर भी रंग डाल दिया था।तब रवि पहली बार किरण को देखा था तो देखता ही रह गया था।रवि नैना का चचेरा देवर था जो दिल्ली में जाॅब करता था।नैना और उसकी उम्र में उन्नीस-बीस का ही अंतर था लेकिन प्यार तो इन सीमाओं को मानता नहीं।सो वह किरण को दिल दे बैठा।जब भी अपने घर आता तो किरण को देखने किसी न किसी बहाने से यहाँ आ जाता था।अयोध्या बाबू की अनुभवी आँखों ने रवि के मन की बात को समझ लिया था।वे किरण की भावनाओं की भी कद्र करते थें लेकिन पुरानी परंपराओं के हाथों में मजबूर थें।




          वे इसी असमंजस में थें कि पत्नी बोलीं, ” क्या सोच रहें हैं? कुछ दिन पहले ही तो आप अग्रवाल भाईसाहब को कह रहें थें कि मरने वाले के साथ  मरा तो नहीं जाता।जब बेटे का दूसरा विवाह कर सकते हैं तो बहू का पुनर्विवाह क्यों नहीं?”

” सलाह देने और उसे मानने में बहुत फ़र्क होता है।”

” जानती हूँ लेकिन कभी न कभी तो पहल करनी ही होगी, तो आज ही क्यों नहीं?हमारा क्या भरोसा,कल रहें ना रहें,जीते जी ये ज़िम्मेदारी पूरी कर देना ही उचित है।और फिर रवि को तो आप भी जानते हैं।हमारी दोनों बच्चियाँ एक परिवार में रहेंगी,इससे खुशी की बात और क्या हो सकती है।”

      पत्नी की बात से अयोध्या बाबू संतुष्ट हुए,बोले कि एक बार समधी जी यानि किरण के पिता से भी बात कर लेता हूँ, तभी उनके फ़ोन पर किरण के पिता का मैसेज़ आया, ‘किरण आपकी बेटी है।आपका निर्णय हमें स्वीकार है।” साथ में स्माइली का स्टीकर भी था।

       अगले दिन अयोध्या बाबू पत्नी के साथ बेटी के ससुराल निकल ही रहें थें कि एक कार उनके घर के आगे आकर रुक गई।नैना अपने ससुर,रवि के माता-पिता और रवि के साथ शादी का शगुन लेकर कार से उतरी।  

             परिजनों की उपस्थिति में किरण ने रवि को और रवि ने किरण को अंगूठी पहनाई।दोनों ने पैर छूकर बड़ों का आशीर्वाद लिया।रवि अयोध्या बाबू से बोला,” अंकल, अब तो होली पर किरण को रंग लगा सकता हूँ।”

 ” ज़रूर, लेकिन पहले मुझे पापा कहोगे तब।” हँसते हुए वे बोले तो सभी लोग ठहाका मारकर हँस पड़े।उनकी इस  पहल की सबने मुक्त कंठ से प्रशंसा की।

                             –विभा गुप्ता

                                स्वरचित

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