पगला कहीं का- रवीन्द्र कान्त त्यागी : Moral Stories in Hindi

लाला फकीर चंद की तंद्रा अब धीरे धीरे लौट रही थी। विलुप्त सा हो गया अहसास पुनर्जीवित हो रहा था। उन्हे लगा जैसे पूरे शरीर में आग सी लगी हुई है। ऐसा लग रहा था जैसे मैं किसी धधकती हुई भट्टी के निकट लेट रहे हैं। पहले धुंधला सा और धीरे धीरे कुछ स्पष्ट सा सब दिखाई देने लगा। कमरे की सीलिंग, फर्नीचर और टप टप बूंद टपकाती ग्लूकोज़ की बोतल दिखाई देने लगी। क्या… क्या ये नींद थी या मूर्छा। कैसा विलक्षण एहसास कि जैसे किसी दूसरे लोक में पहुँच कर लौट आया हूँ। स्वप्न था या नियति का कोई संकेत या आमंत्रण। ऐसा लगा कि बियाबान रेगिस्तान में एक सूखी पर्वत शीला पर चढ़ने का प्रयास कर रहे हैं किन्तु पाँवों ने और जिजीविषा ने जवाब दे दिया है। क्या वे जीवन के अतिरेक में पहुँचकर लौट आए हैं। क्या… क्या ये नियति ने कुछ पलों का जीवन अनुदान में दिया है। कहीं ये पुनःचेतना, वही चमक तो नहीं जो दीपक के बुझने से पहले दिखाई देती है। क्या चिर प्रतीक्षित अंत निकट आ पहुंचा है।

नीचे… नीचे कुछ गीला सा अनुभव हो रहा है। उफ़्फ़ क्या मूर्छा मेरा मूत्र विसर्जन हो गया है। हे परमात्मा। जब तुझसे मौत मांग ही रहा हूँ तो असमंजस कैसा। झिझक कैसी। जब मुझे ये दर्द भरा शरीर और एकाकी जीवन चाहिए ही नहीं तो…।” मस्तिष्क ने अब काम करना शुरू कर दिया था।

“खैराती। खैराती लाल।” उन्होने कमजोर से स्वर में आवाज लगाई।

“आया बाऊजी। तुस्सी उठ गए। भगवान दा शुकर है जी।” एक पैंतालीस साल के व्यक्ति ने प्रवेश किया था। ये खैराती लाल था। उनका बेटा? नहीं, बेटे जैसा। या समझो कि…। खैर उसके बारे में बाद में बात करेंगे।

“क्या मेरी आँख लग गई थीं खैराती।” उन्होने बीमार स्वर में बुदबुदाया।

“कुछ ऐसे ही समझो ललाजी। तेज बुखार था। डॉक्टर ने चार इंजेक्शन लगाए। मैं तो केया सी कि लाला जी नू भर्ती करावा देते हैं पर डॉक्टर साब ने कहा “पल्स, ब्लडप्रेशर वगहरा सब ठीक हैं। दवा दी हैं। बुखार उतार जाएगा तो धीरे धीरे चेतना भी लौट आएगी।”

“कितनी देर से मैं…।”

“छह घंटे हो गए बाऊजी। मैंने तो काके नू फोन केया सी पर वो मीटिंग में थे। मैं तो घबरा गया था लाला जी। छह घंटे से आप न बोल रहे थे न हिल रहे थे।”

“ओह… छह घंटे। तो…।”

“अरे… लाला जी, आप का तो बिस्तर गीला है। शायद मूर्छा में…।” उसने चौंक कर कहा।

“हाँ शायद… तू जरा पकड़कर मुझे बाथरूम तक पहुंचा दे। फिर मैं बदल लेता हूँ। और चादर भी।” उन्होने शर्मिंदा सा होकर नजरें झुकाकर कहा। “ये तो आज पहली बार ही हुआ है। शायद डॉक्टर ने बेहोशी की दावा दी होगी या नींद की।”

“नई लाला जी। डॉक्टर ने बिस्तर से उठने को मना किया है। गिर जाएंगे आप। मैं हुणे बादल देणा। बस आप लेटे रहो।”

और उसने बिलकुल बिना झिझके उनके कपड़े उतारकर दूसरे कपड़े पहना दिये थे। मन में बड़ी वितृष्णा पैदा हुई कि आज कितने बेबस हो गए हैं। अपने वस्त्र भी नहीं बदल पा रहे। कुछ पल ऐसे ही आँखें मूंदकर कुछ सोचते रहे। फिर धीरे से रुग्ण स्वर में कहा।

“खैराती… तू कौन है रे मेरा। नियति के किस आदेश से आगया मेरी जिंदगी में पगलेया।” वे भावुक हो रहे थे।

“पुत्तर हूँ जी त्वाड्डा। बेब्बे जी के पेट से जनम नहीं लिया तो क्या। परमात्मा दी महर है कि मुझे आप की सेवा करने का अवसर मिल रहा है। आप तो भगवान हो जी मेरे।”

“अरे ऐसे कोई किसी का भगवान नहीं बन जाता पुत्तर। सब कुदरत का खेल है। अपना खून तो वहाँ बैठा है चेन्नई में। उसे तो बाप की सुध लेने की भी फुरसत नहीं। क्या पता मेरे मरने का इंतजार ही कर रहा हो और तू। तू क्या लगता है मेरा। अपना काम धंधा छोड़कर यहाँ इस बूढ़े के गू मूत…।” उनकी आँखों की कोर भीग गईं।

“चिकनगुनिया है जी। इसीलिए डॉक्टर ने भर्ती नहीं किया। कहता था कि इसमें बदन दर्द और बुखार बहुत तेज होता है मगर दो चार दिन में अपने आप उतर जाता है। बस जोड़ों का दर्द कई दिन रहता है। चिंता ना करो जी। जल्दी चंगे हो जाओगे आप।”

“पर तेरे भी बाल बच्चे हैं खराती। काम का हर्जा…। दो रात हो गईं तुझे घर गए हुए।”

खैराती लाल वहीं लाला जी के पास बैठ गया। अपनी हथेलियों से उनकी आँखों के कौनों में आए आँसू पौंछ दिये। फिर उनके बालों में उँगलियाँ घुमाने लगा। फिर धीरे से बोला “लाला जी, वो पंजाब नेशनल बैंक वाली गली के नुक्काड पर एक चाय वाला है।”

“हाँ तो? तू कैसे जानता है उसे।”

“मेरे ही पिंड दा हैगा जी वो दर्शन लाल। पैंतालीस की उम्र में बूढ़ा हो गया है। दाँत टूट गए हैं। सत्तर तरह की बीमारी लगा ली हैं जी मुफ़लिसी में। खिचड़ी दाढ़ी और उलझे बालों से सत्तर साल का लगता है।”

फिर वो शांत हो गया जैसे अतीत में झांक रहा हो। फिर डूबती से आवाज में बोला “गाँव में हमारे घर से बड़ा घर था जी उनका। जमीदारी थी। तनतना था जी उनके परिवार का पूरे गाँव में। पाकिस्तान बना तो… तो अपने सब बिछड़ गए। पता नहीं मर गए या…। मेरे घर वालों की तरह उनका भी कुछ पता नहीं।”

“अरे। तू मिलता है उस से। चाय वाले से।”

“हाँ लाला जी। कभी कभी साथ बैठकर पुराने दिनों को याद करते हैं। रोते हैं। जिंदगी गुजर गई जी उसकी मुफ़लिसी में। बीवी का इलाज न करावा सका तो टाइम से पहले गुजर गई। तीन बार नगर निगम उसकी टपरी को उजाड़ चुका है। ऊपर से दमे की बीमारी ने जकड़ रखा है।”

“भाग है पुत्तर सब का। रब दी मरजी के आगे किसकी चली है।”

“भाग नहीं…। हाँ भाग ही होगा। उसे कोई आप के जैसा देवता नहीं मिला न बाऊजी। चौदह साल की उम्र थी। एक दिन गाँव में हल्ला मचा। भागो। सब भागने लगे। मैं भी भागने लगा। सब जिधर भाग रहे थे, मैं भी उधर ही भाग रहा था। भागता रहा। भागता रहा। लाशों पर पाँव रखकर भागता रहा। धू धूकर जलते गांवों को, खेत खलियानों को पीछे छोड़ता हुआ… बस भागता रहा।

पता है बाऊजी। एक ऐसा दौर आता है कि जब इंसान को कुछ दिखाई नहीं देता। न माँ बाप, न भाई बहन। बस वो भागता है, मौत से बचने के लिए। अपनी… सिर्फ अपनी जिंदगी बचाने के लिए। मौत का खौफ़ ही ऐसा है।

 फिर एक दिन इस शहर में खुद को अकेला बैठा पाया जहां मेरे जैसे अपनी शाख से उजड़े हुए सैकड़ों पत्ते हवा में उड़ रहे थे। पूरे देश में भसड़ मची हुई थी। कोई किसी को पूछने वाला नहीं था। गली गली पाकिस्तान से विस्थापित होकर आए लोग आसरा और रोजगार ढूंड़ते फिर रहे थे। कोई किसी की सुध लेने वाला नहीं था। तीन दिन का दिन भूखा प्यासा पेड़ के नीचे बेहोश सा हो गया था। तब… तब लगा कि पाकिस्तान से तो भाग कर आ गई पर अब भूख से मौत निगल जाएगी। फिर आप अपनी गाड़ी में उठाकर मुझे अपने घर ले आए।” और भावुकता में उसका स्वर भीग गया। गले में आवाज रुँध गई। कुछ देर मौन रहा। फिर बोलने लगा। “उस दिन… उस दिन आप मुझे देवता की तरह दिखाई दिये थे बाऊजी। जिंदगी का देवता। सड़क से उठाकर लाये थे लाला जी मुझे पर… पर अपना नौकर नहीं बनाया। अपने बच्चों के साथ स्कूल मेँ एडमीशन कराया।” उस से बोला नहीं जा रहा था।

“कोई भी यही करता पुत्तर। वो तो रब दी मेहर है कि मेरा शहर बँटवारे में इस तरफ आ गया वरना हम भी न जाने… तू साड्डे पंजाब दा किन्ना प्यारा सा बच्चा सी। मुझे तो अपने सगे बेटे जैसा लगता था। कई लोगों ने पंजाब से आए, अपने परिजनों से बिछड़ गए बच्चों को अडौप्ट किया है। दुखी मत हो। सब ठीक हो जाएगा।”

“अड़ौप्ट किया! किसने अड़ौप्ट किया। बड़े भोले हो लाला जी। सब आप के जैसे नहीं होते बाऊजी। नौकर बनकर रह गए जी उनके। यौन शोषण तक झेलना पड़ा बच्चों को। पर… पंजाबी में एक जीवट होता है न। या आपदा ने तपाकर उन्हे फौलाद बना दिया था। बड़े होते होते सब अपने पाँवों पर खड़े हो गए। किसी ने भीख नहीं मांगी और चोरी चाकरी नहीं की।”

“ओ चल पुत्तर। ज्यादा इमोशनल न हो। जा थोड़ी चा बणवा ला। अब बुखार उतर गया लगता है। ओ तू काम पर नहीं गया आज।”

“आज… आज पूजा कर रहा हूँ अपने देवता की। काम तो चलता ही रहेगा लाला जी। मेरी जिंदगी में आप नहीं आते तो क्या पता किशोरावस्था में मेरे भी कोई कपड़े उतार रहा होता। मेरे स्वाभिमान को और अहम को चूर चूर कर रहा होता या किसी ढ़ाब्बे पर बर्तन माँजते हुए गुजर जाती जिंदगी। क्या पता मैं पाकिस्तान से आए हजारों बच्चों की तरह किसी पटरी पर भूख प्यास या ठंड से मरा हुआ पाया जाता और दस लाख लावारिस लाशों की तरह… जिन्हे मुखाग्नि भी नसीब नहीं हुई।” और वो फूट फूटकर रोने लगा।

“आज क्या नहीं है मेरे पास। ऊंची डिगरी है। इज्जतदार नौकरी है। अपना घर है। बाल बच्चे हैं।” उसने दोबारा कहा।

तभी फोन की घंटी बजी। खैराती लाल ने टेबल से फोन उठाया और लाला जी के हाथ में थमाने लगा।

“ओए किस दा फोन है पुत्तर।”

“लाला जी, काक्के दा फोन है। चेन्नेई से।”

“कट दे पुत्तर। मैन्नू नी करणी बात। या… या बोल दे कि लाला जी की तबीयत ठीक नहीं है। बात नई करना चाहते। या सुन। साफ कह दे। जिस पुत्तर की मुझे जरूरत है वो मेरे पास है। तू कर ले अपनी नौकरी। ध्यान रख ‘अपनी’ फैमिली का। मेरी अस्थियों का गंगा में विसर्जन मेरा खैराती पुत्तर कर देगा।” और उन्होने चादर से चेहरा ढ़क लिया।

रवीन्द्र कान्त त्यागी

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