पतिदेव मैं अपने लिए अकेले काफी हूँ। – चेतना अग्रवाल

सिया, शाम को तैयार रहना…. आज की मूवी के टिकट बुक कर दिये हैं।” आरव ने ऑफिस से फोन किया तो सिया खुश होने के बजाय सोच में पड़ गई। अपनी सोच को एक तरफ कर सिया काम निपटाने लगी।शाम को उसने दोनों बच्चों को तैयार किया और खुद भी तैयार हो गई। आरव का इंतजार कर ही रही थी कि तभी आरव आ गये।

 “चाची नमस्ते…” आरव के पीछे से उसकी भतीजी शिवानी की आवाज आई तो सिया का दिल धक से रह गया। जिसका ड़र था, वही हो गया।आरव के साथ उसके भैया-भाभी और उनके बच्चे भी थे। खैर बुझे मन से सिया घर बंद करने लगी। बच्चे और सब लोग गाड़ी में चले गये। खराब मूड़ से ही उसने मूवी देखी, क्योंकि आरव तो अपने भाई के साथ ही बात करता रहा। बाद में सबने खाना खाया और जेठ-जेठानी अपने घर को चले गये।लौटते समय सिया ने आरव से कहा, “भैया-भाभी को लाने की क्या जरूरत थी। कम से कम अब तो मूवी देखने अकेले चल लेते।”

“अरे सिया, तुम कहाँ तक बच्चों को सँभालती। अब देखो शिवानी ने बच्चों को सँभाल लिया तो कम से कम तुमने भी आराम से मूवी देख ली। तुम्हें भी सहारा मिल गया।” आरव हँसते हुए बोला।”बस कीजिए आरव, जानती हूँ कौन बच्चों को सँभालता है और किसे सहारा मिलता है। बच्चों को तो अकेले मैंने हो सँभाल रखा था, बाकी सब तो मजे से मूवी देख रहे थे।  

मुझे जरूरत नहीं किसी के सहारे की…. बच्चे मेरे हैं तो मैं खुद सँभाल लूँगी। लेकिन आज के बाद मेरे साथ कहीं घूमने जाना है तो सिर्फ मेरे साथ जाना, किसी और के साथ नहीं। शुरू से आज तक यह सुनती आ रही हूँ कि तुम्हें सहारा मिल जायेगा। क्या मैं अपने आप में सक्षम नहीं हूँ। जब मैं अकेला घर सँभाल सकती हूँ तो अपने आप को और बच्चों को क्यों नहीं सँभाल सकती। अब बस कीजिए, बहुत सहारा मिल गया मुझे…. और सहारा नहीं चाहिए।” कहकर सिया ने आरव के आगे हाथ जोड़ दिये।




आरव सिया का मुँह देख रहा था। उसे याद आया शादी के बाद हनीमून का समय…. कभी मूवी तो कभी घूमने का समय…. कभी दोस्तों के घर जाने का समय… हमेशा आरव अपने भाई-भाभी या उनकी बेटी को साथ ले जाता और सिया को यह कहकर चुप कर देता कि तुम अकेले बोर हो जाओगी, तुम्हें सहारा मिल जायेगा।जब सिया के बच्चे होने वाले थे तो काम के ड़र से जेठानी अलग हो गई। जिस समय सिया को सहारे की सच में जरूरत थी, 

उस समय वह अकेली थी। सास तो पहले ही नहीं थी, इसीलिए जेठानी  का प्रभाव आरव पर कुछ ज्यादा ही था। ऐसे समय पर भी आरव ने भाभी से कुछ नहीं कहा, बस अपने फर्ज पूरे करता रहा। सिया घर पर अकेले बच्चे और घर दोनों सँभालती तो आरव कभी कुछ नहीं कहता लेकिन जब भी कभी कहीं घूमने जाने की बात हो या मूवी या चाट-पकौड़ी खाने की बात…. तब भैया-भाभी का परिवार जरूर सिया को सहारा देने पहुँच जाता और असल में सिया तो बच्चों को खुद ही सँभालती,

 वो सब तो आरव के साथ एन्जॉय करते रहते और सिया अंदर ही अंदर कुढ़ती रहती। आज भी आरव का फोन आने के बाद सिया यही सोचकर परेशान थी कि मूवी देखने वो अकेले तो जा ही नहीं सकती थी, आ जायेंगे सब….खैर आज सिया का मन भर गया था, इसलिए उसने आरव से हाथ जोड़कर कह ही दिया कि “मुझे किसी सहारे की जरूरत नहीं है। मैं अपने और अपने बच्चों के लिए अकेले काफी हूँ। इसलिए आगे से कहीं जाना हो तो उसके साथ अकेले जाना, वरना सिया उनके साथ नहीं जायेगी। बहुत हो गई शरम… अब वो उनके सामने ही मना कर देगी।

“सिया को दृढ़ता देखकर आरव केवल सिया का मुँह देखता लह गया, उसे समझ आ गया था कि उसकी गलती कहाँ है। हालांकि अभी उसके अंदर अपने भाई-भाभी के लिए इतनी कड़वाहट नहीं थी कि उन्हें मना कर सके। लेकिन सिया के फैसला भी सामने थे कि अब वो नहीं जायेगी। अब तो आरव को सोचना ही पड़ेगा कि उसे सिया की बात माननी ही पडेगी।दोस्तों आपको क्या लगता है कि सिया ने सही किया या गलत… कमेन्ट बॉक्स में बताइए। आपकी प्रतिक्रिया का इंतजार रहेगा

#सहारा 

धन्यवाद

चेतना अग्रवाल

 

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