‘ नीरजा ‘ – विभा गुप्ता

 ” हैलो मैडम…., दस मिनट के अंदर मैं तुझे दर्शन देने आ रही हूँ।” कहकर वह हँसने लगी और फोन डिस्कनेक्ट कर दिया।

         पूरे सात साल के बाद मैं नीरजा से मिलूँगी, कैसी दिखती होगी? दो महीने पहले फेसबुक पर उसने अपनी जो तस्वीर पोस्ट की थी,उससे तो लग रहा था कि ….., तभी डोरबेल बजी और दरवाज़ा खोलते ही वह खिलखिलाते हुए अंदर आ गई।पहले की तरह ही उसने मुझे नालायक कहा और मेरे गले लग गई।

             फेसबुक पर पोस्ट की गई तस्वीर से तो वह ज़रा भी मैच नहीं कर रही थी।उसके होंठों की मुस्कुराहट उसकी सूनी-पथराई आँखों से बिल्कुल भिन्न थी।मैंने पूछा, ” क्या खायेगी?” कहने लगी, “खाऊँगी नहीं माई डियर, पीऊँगी।तेरे हाथ की गरमा-गरम मसालेवाली चाय।” कितना कुछ उसके जीवन में घट चुका था, फिर भी उसे मेरे हाथ की मसालेवाली चाय याद है,यह सोचकर मुझे बहुत अच्छा लगा।

          चाय पीते-पीते वह अपने स्टूडेंट्स के किस्से भी बताती जा रही थी।मैंने पूछा, ” नीरजा, तेरा बेटा…।” हाँ-हाँ, सब अच्छा है।पता है, जीया और वैष्णव तो मुझसे इतनी बातें करते हैं कि क्या बताऊँ।” मेरे प्रश्न को नज़रअंदाज करते हुए वह फिर से अपने स्टूडेंट्स की बात करने लगी।मैंने फिर पूछा, ” नीरजा,चल इतना तो बता दे कि तेरे पति ….।” मेरी बात पूरी होने से पहले ही वह बोल पड़ी, ” ठीक कहती है तू , एजुकेशन सिस्टम में परिवर्तन तो होना ही चाहिए।बोरिंग टाॅपिक्स को तो हटा ही देना चाहिए।कितने बच्चे तो क्लास में ही सोने लगते हैं।” कहकर वह फिर से हँसने लगी।उसकी हँसी के पीछे छिपी पीड़ा को मैं बहुत अच्छी तरह से महसूस कर रही थी,आखिर चालीस साल का साथ था हमारा।अपनों की ठोकरें और हालात के थपेड़ों ने उसे दर्द को छुपाने के सभी गुर सिखा दिए थे।

            छठी कक्षा में ही तो उससे मेरा परिचय हुआ था।अपने नाम के अनुरूप कमल की तरह वह हमेशा खिली रहती थी।सातवीं और आठवीं कक्षा में तो वो मेरी रूममेट भी थी।तब मैंने उसे नजदीक से जाना था।सबके बीच हँसने-बोलने वाली नीरजा, अकेले में बैठकर घंटों आकाश निहारता करती थी।शाम का समय मैं खेलने में बिताती थी लेकिन वह घुड़सवारी और स्वीमिंग सीखने में स्वयं को व्यस्त रखती थी।

        स्कूल खत्म होने के बाद हमने काॅलेज़ में दाखिला लिया।विषय अलग-अलग होने के कारण हमारे होस्टल अलग-अलग थे,इसलिए मिलना कम होता था लेकिन छुट्टी के दिन कभी वो मेरे होस्टल आ जाती तो कभी मैं चली जाती और पहले की तरह ही हम खूब बातें करतें।उसी समय उसने मुझे नालायक कहना शुरु किया था।एक दिन मैंने पूछा भी था कि तू मुझे नालायक क्यों कहती है? सुनकर वह बहुत हँसी थी।अपने दोनों हाथों को चौड़ा करते हुए जवाब दिया था, ” लायक कहूँगी तो फूल कर कुप्पा हो जायेगी तू।”



            समय का पंछी अपनी गति से उड़ता गया, ग्रेजुएशन के बाद उसने समाजशास्त्र में और मैंने हिन्दी विषय में एम ए किया।एक सरकारी नौकरी वाले इंजीनियर लड़के से उसकी शादी हो गई और मैं बी एड करके अपने ही शहर के एक स्कूल में पढ़ाने लगी।

            पत्रों के माध्यम से हम एक- दूसरे की खैर-खबर लेते रहते थें।मैंने शादी के बाद उसे अपना नया पता दिया, वहाँ भी उसके पत्र आते थे लेकिन उन पत्रों में वह कभी भी अपने परिवार अथवा अपनी ज़िंदगी के बारे में कुछ नहीं लिखती थी।मैंने भी ज़्यादा कुरेदना उचित नहीं समझा।मेरे बच्चे बड़े होने लगे,ज़िम्मेदारियाँ भी बढ़ने लगी तो हमारे पत्रों का सिलसिला भी कम हो गया।हाँ, कभी-कभार फोन पर बात हो जाती थी जो कि सिर्फ़ हाय- हैलो तक ही सीमित थी।बाद में पत्रों के साथ-साथ फोन आने भी बंद हो गए।

               एक लंबे अंतराल के बाद जब फेसबुक पर उसकी तस्वीर देखी तो एकबारगी तो मैं पहचान ही नहीं पाई, कमल-सी खिली रहने वाली नीरजा न जाने कैसे कुम्हला गई थी।मैंने क्षण भर की भी देरी नहीं की और फ्रेंड रिक्वेस्ट भेज दिया।उसका ‘एक्सेप्ट ‘ देखकर तो मैं इतनी खुश हुई मानों कोई खज़ाना मिल गया हो।उसने फोन नंबर तो दिया लेकिन फोन करने पर हमेशा उसके पति से ही बात होती थी। नीरजा के बारे में पूछने पर कभी कहते कि मार्केट गई है तो कभी कहते कि सो गई है।मुझे लगा कि कुछ तो गलत है, पर क्या?, ये मैं समझ नहीं पा रही थी।

             एक दिन अनसेव नंबर से एक काॅल आया, फोन नीरजा का था।शायद उसके पति बाहर गए हुए थे तो उसने अपने किसी पड़ोसी के घर से फोन किया था।फोन क्या था, एक दर्द भरी दास्तान दी।पहले तो वह जी भर रोई, जी हल्का हुआ तो उसने बताया कि शादी के बाद से ही उसके पति अजीब-अजीब हरकतें करते थें, वो समझ नहीं पाती थी,सोचती थी कि समय के साथ सब ठीक हो जायेगा लेकिन कुछ भी ठीक नहीं हुआ।उसकी पहली प्रेग्नेंसी के समय वह सीढ़ी से उतर रही थी कि अचानक पीछे से आकर उसके पति ने उसे धक्का दे दिया, फिर तो वह सीढ़ियों से ऐसे गिरी कि बहुत कोशिशों के बाद डाॅक्टर उसके बच्चे को नहीं बचा सके।इस बारे में वह किसी को कुछ कहती, उससे पहले ही उसके पति ने सबको बता दिया कि नीरजा का पैर फिसल गया था।फिर तो उसने चुप्पी साध ली।पाँच सालों तक तरह -तरह के अत्याचारों से गुजरने के बाद ईश्वर को उस पर थोड़ी दया आई, उसने एक बेटे को जन्म दिया।सोचा,बेटे का प्यार उसके पति को बदल देगा लेकिन वह गलत थी।अक्सर ही उसे कमरे में बंद कर दिया जाता था।मेहमानों के बीच उसकी बेइज्जती करना तो उसके पति के लिए आम बात हो गई थी।



              एक दिन तो हद हो गयी।वह अपने दो वर्षीय बेटे को सुला रही थी कि उसके पति ने आकर एक बाल्टी ठंडा पानी दोनों के ऊपर डाल दिया और साॅरी कहकर चले गये।खून का घूँट पीकर रह गई थी वह।निमोनिया न हो जाए, इस डर से वह बेटे को लेकर तुरन्त हाॅस्पीटल भागी थी।वह कहती थी, ” दिन तो डर के साये में गुज़र जाता था और रात कल के इंतज़ार में आँखों में ही कट जाती थी।”

          घर के ऐसे माहोल में जहाँ कभी भी कुछ भी हो सकता था, बेटे की सुरक्षा और भलाई सोचकर उसने बेटे को सातवीं कक्षा के बाद हाॅस्टल में डाल दिया।बेटे के हॉस्टल चले जाने के बाद तो जैसे उस पर कहर ही बरस गया।खाना फेंक देना, फ़र्श पर पानी फैला देना, हर वक्त उसकी कमियाँ निकालना, पड़ोसियों से उसकी शिकायत करना तो उसके पति की दिनचर्या हो गई थी।इस वजह से उसने छुट्टियों में बेटे को घर बुलाना छोड़ दिया।माँ थी ना, बेटे की भलाई के लिए अपने कलेजे पर पत्थर रख लिया था उसने।

        शायद ज़ुल्म सहने की उसकी शक्ति समाप्त हो गई थी या फिर ईश्वर उसकी एक नई परीक्षा ले रहा था।एक दिन अचानक वह मेरे घर आई।हाथ में मात्र एक बैग था।चेहरे पर पड़े चोटों के निशान उसके दर्द की दास्ताँ बयाँ कर रही थी।शरीर एक ढ़ाँचा बनकर रह गया था।उस वक्त मैंने कुछ भी पूछना उचित नहीं समझा।उसने बताना चाहा लेकिन मैंने ‘चल छोड़ यार ‘ कहकर टाल दिया।सोचा, कल इत्मीनान से बैठकर उसकी सुनूँगी लेकिन कल नहीं आया।हमारे उठने से पहले ही वह चली गई थी,साथ ही पाँच हज़ार रूपये भी वह टेबल पर एक चिट लिखकर रख गई थी जो मैंने उसके बैग में चुपके-से रख दिये थे।चिट में लिखा था, ” मुझे तेरा थोड़ा वक्त चाहिए था, पैसा नहीं।” इतनी तकलीफ़ों के बाद भी उसने अपने स्वाभिमान को जिंदा रखा था।

             छह महीने बाद उसका फ़ोन आया।लंबे संघर्ष के बाद उसे एक प्ले स्कूल में काम मिल गया था।पार्ट टाइम के लिए एक एनजीओ भी ज्वाइन कर लिया था जहाँ वह महिलाओं को पढ़ाती थी।उसने अपना पता तो नहीं बताया, पर हाँ, महीने दो महीने में अपनी कुशलता का समाचार अवश्य दे देती थी।मिलने को कहती तो जवाब देती, “तेरे लायक बन जाऊँ तब आऊँगी।” उसने जो कहा वो कर दिखाया।जीवन के इस पड़ाव पर भी वह एक योद्धा की तरह ज़िदगी के हर जंग से लड़ने के लिए तत्पर और अथक यात्रा के लिए तैयार खड़ी थी।कल वह कहना चाहती थी तो मैं सुनना नहीं चाहती थी।आज मैं सुनना चाहती हूँ तो वह टालती जा रही थी।मैं भी उसके ज़ख्मों को कुरेदकर फिर से उसे खोना…। “अरे, चाय तो तूने पी ही नहीं,अब क्या शरबत बनाकर पियेगी।” उसकी आवाज़ से मैं हड़बड़ा गई।मुझे देखते हुए वह हँसी,फिर धीरे-से बोली,  “मेरे बारे में सोच रही थी।” मैंने कहा, ” नहीं तो।” सुनकर वह ज़ोर-से हँसी और बोली, ” आज भी तू ठीक तरह से झूठ नहीं बोल पाती है।” जवाब में मैं ने मुस्कुरा दिया और हम बेफ़िक्र होकर स्कूल के दिनों को याद करने लगे।

 

                         —– विभा गुप्ता 

 

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!