“नवाब” – ललिता विम्मी : Moral Stories in Hindi

मैं नहीं जानती, तुम कहाँ हो ,कैसे हो जिन्दा भी हो या मर गए। मेरे लिए तो तुम ज़िन्दा और मरे बराबर ही हो।मैं तुम्हें लिखना तो नहीं चाहती थी,पर मुझ अनपढ़ के हाथ में ये हुनर आया है तो अब लिखे बिना रहा भी नहीं जाता।

 शुक्र गुज़ार हूँ,मैं मेरी जरीना बीबी की जिनके यहाँ मैं झाड़ू पोछे का काम करती थी।उन्होंने मुझे लिखना पढ़ना क्या सिखाया, मुझे तो जैसे उन्होंने दूसरी ज़िंदगी ही देदी।दुखों और गमों से बौझिल अपने सीने का भार मैं कागजों पर उडेल देती और बीबी उसे ठीक ठाक करके कभी किसी रिसाले या किसी अखबार में छपवा देती,उससे जो पैसा मिलता मैं छिप  छिप कर अपने नवाब की जरूरतें पूरा करती।

नाम और शक्ल का ही नवाब है मेरा नवाब,नसीब का नहीं, नसीब लिखती दफ़ह तो शायद अल्लाह मियां ने हरफ़ो की जगह कालिख ही पोत दी  थी। कितना बेरहम होता है न ये खुदा भी कभी , किसी  के साथ।

     पर तुम्हें इस से क्या ,नवाब जिए या मरे ,भीख माँगे या फिर किसी के बर्तन माँजें। तुम्हें तो अपनी ज़िंदगी गुलज़ार करनी थी आबिदा बेगम के साथ।कभी सोचती हूँ कि हम माँ बेटे का कसूर क्या था,हम क्यों किसी के गुऩाह की सजा भुगत रहे हैं, पर शायद कहीं न कहीं, किसी न किसी  जन्म में कोई जुर्म तो हमने भी किया ही होगा।  वरना इतनी बदतर सजा तो नहीं मिलनी थी।

अब तो तुम भी लगभग साठ बरस के हो गए होगे,शायद तुम्हारी उमड़ती भावनाओं में ठहराव आ गया होगा। कितने बरस बीत गए ,क्या तुम्हें कभी भी अपने  बच्चे की याद नहीं आई। कितने नाज़ो से तुमनें उसका नाम रखा था , ” नवाब”।

इंसान नहीं निरे काफ़िर हो तुम।तुम्हारा खून कैसी ज़िंदगी जी रहा होगा, कभी भी तुमने नहीं सोचा।

  मुझसे जितना हो सका मैंने किया और कर भी रही हूँ,पर उसके नसीब में ऐसी कालिख बिखरी है कि  हीरे की खान में हाथ डाले तो वो भी कोयला हो जाए। शायद मैं ही ये भूल जाती हूँ की हर चीज का उपर वाले ने एक वक्त  तय कर रखा होता है,

जब उसके मुकद्दर  में वो वक्त आयेगा तभी उसे कामयाबी मिलेगी। जरीना बीबी बहुत दिलासा देती हैं,  कहती हैं, परवीन उसे पढाई तो पूरी करने दे, बेचारा लगा तो रहता है साथ में काम भी करता है।

    मैं भी क्या करू, रहीम मियां से निकाह़ तो  इसलिए किया था  कि मेरे सर को छत व मेरे बेटे को बाप का आसरा मिल जाएगा, जो तुमने छीन लिया था, बढ़पर  अपनी औलादें होते ही उसके भी तेवर बदल गए। मुझे लगा  कि शायद मैं काम में मदद करूगी

तो घर में बरक़त भी होगी और ये मेरे बेटे को बोझ भी नहीं समझेगा, पर नहीं उसे तो इससे आरामखोरी की हवा और लग गई। कभी काम किया कभी नहीं किया,जो किया वो नशे के नाम कर दिया। फिर भी ताने कि, जो कमा रही हो अपने पिछलग्गु पर खर्च करती हो

मुझ पर कैसा अहसान और कैसा मेरे बच्चों पर ।मैंने तो माँ बेटे को मुफ्त में छत दे रखी है रहने को,पल भर में ही रहीम न केवल नवाब को बल्कि मुझ को भी पराया कर देता अपने से ही नहीं उन बच्चों से भी जिन्हें मैने पैदा किया है।

मैने लोगों की झूठन साफ करके और घर बुहार कर अपने तीनों  बच्चो को कैसे तालीम दिलवाई है ये मैं ही जानती हूँ। बहुत मुश्किल होता है अपनी हड्डियों से लहू निचोड़ कर किसी की परवरिश करना। नवाब को भी मैंने वो सब देने की कोशिश की, पर वो अहसास नहीं दे पाई

जैसे कि रहीम मियां चाहे नशे मे ही सही अपने बच्चों पर हक जताते जरूरतें पूछते। तब मेरे सीने में एक कसक उठती जो मुझे सिर्फ कोसती और जलील करती,काशः मैने  रहीम के साथ घर जोड़ने का फैसला न लिया होता।

कई बार नवाब को बोला कि उसे तुम्हारा यानि कि उस के बाप का पता दूं , पर बहुत गैरतमंद है बदनसीब, बोला,” अम्मी अगर बाप का भी पता ढूढं कर जाना पड़े तो वो बाप नहीं हो सकता, कोई गैर ही होगा।”

रहीम  मियां का जब दिल करता उसे धक्के मार कर घर से निकाल देते, फिर मैं चोरी छिपे अपनी मालकिनों से खाना माँग कर (बदले में उनका कुछ काम ज्यादा कर देती),अपने बेटे का पेट भरती।कभी स्टेशन पर तो कभी पार्क में सोकर  समय निकालता।

फिर दो चार रोज में जब रहीम मियां ठन्डे पड़ जाते तो मैं फिर उसकी चिरोरी करती,अरे चल बेटा तुझे तो अपना बड़ा बेटा मानता है वो तो बस नशे में ।हकीकत नवाब भी जानता है, और मैं भी बस वो तो ज़िंदगी की कुछ मजबूरियां ऐसी होती हैं

,जिनके तहत इंसान समझौतों की गर्त में गिरता जाता है। मैं उसे मना कर फिर घर ले आती और चंद दिनो बाद रहीम मियां का फिर  वही, साला, हरामी, माँ बेटे को कहीं ठोर नहीं सिवाय इस घर के। मेरे दोनो बच्चे भी इस परिवार विभाजन से एक दूसरे का मुँह ताकते।मैं तीनों बच्चों को समझाती हौसंला देती और जुट जाती अपने काम में।

वह कुछ पढ़ चुका है,कुछ पढ़ रहा है। कहता तो है अम्मी मंजिल बहुत जल्द ही करीब होगी। मैं अनपढ़ गवार क्या जानू कि किस राह से कौनसी मंजिल करीब है।

तुम्हें जो इतना लिखा है मियां ये मत समझना कि मैं तुमसे ख़त  – ओ -किताबत कर के अपना दर्द  सुनाना चाहती हूँ, ना मिया ना, मैंने तो ये  सब इसलिए लिखा कि मेरी जरीना बीबी बोली, “परवीन तू सिर्फ अकेली ऐसी खातून नहीं है

जिसका वास्ता रहीम और जुम्मन जैसे इंसानों से पड़ा, इस जह़ान में न जाने कितने जुम्मन है कितने रहीम और कितनी परवीन और कितनी आबिदा है।  तू अपने दर्द को कागजों पर उडेल ,मैं उसमें शब्दों का रंग डालकर अखबार के जरिये  लोगों  तक पहुंचाऊगी़,

ताकि हर मर्द और औरत इस  से कुछ सीख ले,और फिर तुझे हर बार की तरहं पैसे भी तो मिलेंगे, जो तेरे बच्चों के काम आयेंगे”!

मैने आपने आँसूओं की स्याही से ये पैगाम लिख भेजा है, मुझे नहीं पता इस दुनियां में कितने जुम्मन कितने रहीम है और कितने नवाब ,कितनी परवीन हैं  पर  यहाँ जो किरदार इन नामों  ने अदा किए हैं वो किरदार किसी को मत देना ,

मेरे मालिक, मेरे परवरदिगार, मेरे अल्लाह।

,

लेखिका, ललिताविम्मी।

कहानी,(नवाब)

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!