नैना – मंजुला

“ताई जी और ताऊ जी दोनों सवेरे मंदिर गये हुए थे। शरद मौका पाकर नैना के कमरे में चला आया। डर और गुस्से से काँपती नैना चिल्लाना चाहती थी लेकिन शरद ने बायें हाथ से उसका मुँह बंद कर दिया। शरद की पकड़ से छूटने के लिए कसमसाती नैना का पैर जोर से कोने में रखे स्टूल पर पड़ा। स्टूल पर रखा काँच का गुलदान छन से टूटकर जमीन पर किरचा किरचा बिखर गया। 

 

“मैं छत पर टहल रहा था। जोर की आवाज और किसी की घुटी चीख सुनकर मैं तेजी से सीढ़ियाँ उतरता ताई जी की तरफ पहुँच गया।

 

“शरद के हाथ नैना के शरीर तक पहुँचते कि दरवाजा खोल ताई जी भीतर पहुँच चुकी थीं। डरी सहमी सी नैना ताई जी के पीछे जा छिपी। ताई जी को अचानक सामने देख शरद सकपका गया और सारा इल्ज़ाम नैना के मत्थे मढ़ बेशर्मी से बाहर निकल गया।”

 

“ताई जी ने नैना की तरफ आँखें तरेर कर कहा, “डायन मेरे एक बेटे को तो खा गई अब दूसरे के पीछे पड़ी है। निकल यहाँ से कहते हुए ताई जी ने नैना को लगभग धकियाते हुए किवाड़ बंद कर लिये। ऐसा करते हुए उन्हें अपने वारिस तक का भी ख़्याल नहीं आया। अगर मैंने सँभाला नहीं होता तो शायद वो गिर गई होती।”

 

“नैना के पाँव लहुलुहान थे। काँच के महीन टुकड़े उसके पैरों में धँसे थे। ठीक से चल भी नहीं पा रही थी वो। मैं सहारा देकर उसे अपने साथ घर ले आया। माँ ने नैना की ऐसी हालत देखी तो उनका मन भर आया। उन्होनें प्यार से नैना के सिर पर हाथ फेरते हुए पूछा, “क्या हुआ नैना? नैना माँ के गले से चिपक कर रो पड़ी। आँसुओं में डूबे उसके शब्द गडमड हो रहे थे।”




 

“मैंने माँ को सारा वृतांत कह सुनाया। सूरज के जाने के बाद ताई जी के डाँट उलाहने तो रोज की बात थी। पर आज तो उन्होंने हद ही कर दी थी। बेकसूर नैना को घर से निकाल दिया था।”

 

“मैं सोफे पर निढ़ाल बैठी नैना का आँसुओं से भीगा चेहरा देख रहा था। उफ्फ़ कुछ ही महीनों में कैसा निष्प्रभ हो आया था उसका चेहरा और उस पर फीकी बेरंग साड़ी उसके दुःख को और बढ़ाती हुई प्रतीत हो रही थी।”

 

“मेरी आँखों के आगे छः माह पहले का दृश्य तैरने लगा। जब सांझ के धुंधलके में मेरा दोस्त सूरज नैना को घर लेकर आया था। ताई जी से नैना को मिलवाते हुए सूरज ने कहा था, “माँ ये नैना है तुम्हारी बहू।”

 

“ताई जी को तो जैसे सदमा लग गया था। अपने इकलौते बेटे की शादी के कितने अरमान संजोये बैठी थीं वो दिल में। जो अब धरे रह गये थे। ताई जी के शोर मचाने पर पास पड़ोसियों ने अपने अपने खिड़की दरवाजों से उचक कर देखा था। मैं माँ और पापा भी ताई जी की तरफ ही आ गये थे। मैंने एक नज़र नैना को देखा।”

 

“हाथों में भरी भरी चूड़ियाँ, माथे पर छोटी बिंदिया, गुलाबी होंट और आँखें…आँखें तो बिल्कुल उसके नाम के अनुरूप थीं- बड़ी बड़ी बिल्लौरी आँखें। जिनमें लगे गहरे काजल की रेखा उसके चेहरे की लुनाई को और बढ़ा रही थी। चटक रंगों से सराबोर नैना कैसी खूबसूरत लग रही थी।”

 

“ताई जी ने नई बहु का स्वागत नहीं किया और रोती बिसुरती मुँह फेर कर भीतर चली गई थीं। ताऊ जी ने जैसे तैसे समझाबुझा कर ताई जी को बहु का स्वागत करने के लिए मनाया था। फिर भी पैर छुआई के वक्त आशीर्वाद के रूप में उन्होंने बस अपने बेटे के सिर पर हाथ धरा था नैना के नहीं।”

 




“ताईजी नैना से सख़्त ख़फा थीं। नैना के हर काम में मीन मेख निकाल कर जैसे उनके दिल को तसल्ली मिलती थी। पर नैना ने कभी पलट कर जवाब नहीं दिया। भोली सी एक मुस्कान हमेशा उसके होंठो पर तिरती रहती।”

 

“ज़िंदगी जैसे तैसे चल रही थी। पर एक रोज एक्सीडेंट में सूरज के अस्त होने के बाद नैना पर जैसे कहर टूट पड़ा था। नौबत उसे घर से निकाल देने तक की आयी पर नैना के भीतर सांस लेती सूरज की आखिरी निशानी की खातिर रहने दिया ताई जी ने उसे घर में।”

 

“शेखर! हम जरा दीदी से बात करके आते हैं, “माँ की आवाज से मेरा ध्यान टूटा।”

 

“माँ पापा निराश होकर घर लौटे थे। ताई जी नैना को घर में लेने के लिए हरगिज़ तैयार न थी। जब तक नैना का कोई दूसरा बंदोबस्त नहीं होता तब तक के लिए माँ ने नैना के लिए किचन से सटा छोटा कमरा खोल दिया था।”

 

“इस हादसे के बाद नैना बहुत खामोश हो गयी थी। पर माँ पापा के प्यार ने उसमें फिर से जीने की इच्छा जगाई। अब वो माँ पापा से बातें करने लगी थी। माँ के साथ बराबर काम भी कराती। मुझसे भी वो थोड़ा थोड़ा खुलने लगी थी।”

 

“इतवार की शाम मैं आॅफिस से आ कपड़े चैंज कर बाहर छत पर चला आया था। फिर टहलते टहलते गहरे आसमान को देखने लगा। तभी नैना चाय का कप थामें आती दिखाई दी। ठीक उसी वक्त आसमान में चाँद उतरा था। पूर्णिमा का भरा पूरा सुडौल चाँद। चाँद के निकलते ही उजाले की सुनहरी किरणें छिटकी तो उदासियों की पाँत पाँत झरने लगी।”

 

“मेरे होंठो पर अनायस एक मुस्कान तिर आई। नैना को देख मैं बुदबुदाया, “उफ्फ़ दूजा चाँद!”

 




“मेरी बात पर वो उन्मुक्त भाव से हँसी थी- बिल्कुल शीतल झरने की तरह।”

 

“उसे हँसते देख मैंने कहा, “नैना, तुम हँसती हुई बहुत अच्छी लगती हो। मेरी बात सुनकर वो एकदम से चुप हो गई। उसकी आँखों के इर्द गिर्द उदासी की लकीरें खिंच आई थी। बिना कुछ कहे वो उठकर भीतर चली गई। मैं जानता था अंदर जाकर खूब रोई होगी वो। हमारे बीच भावनाओं का एक अनाम रिश्ता जरूर था पर मेरे पास वो हक नहीं था कि मैं भीतर जाकर उसके आँसू पौंछ पाता।”

 

“अगली सुबह नैना बाहर पौधों में पानी डाल रही थी। ना जाने कहाँ से शरद चला आया। नैना के साथ बदतमीजी करते हुए शरद ने उसका हाथ कसकर पकड़ लिया। नैना पूरी ताकत से चिल्लाई, “शेखर!!

 

“नैना की आवाज सुनकर मैं दौड़कर नीचे आया। मुझे आता देख शरद भाग गया। तब तक पापा भी दौड़ कर बाहर आ चुके थे। नैना की कलाई पर शरद की उँगलियों की छाप उभर आयी थी। वो अभी तक डर से काँप रही थी। मैं और पापा उसे भीतर ले आये।”

 

“कुछ दिनों तक मेरा मन बहुत बेचैन रहा फिर एक रोज हिम्मत करके मैंने माँ से कहा, “माँ, मैं नैना से शादी करना चाहता हूँ। मेरी बात सुनकर माँ बिफ़र पड़ी। माँ ने कहा, “तू पागल हो गया है शेखर? एक तो वो विधवा है और फिर उसका बच्चा? ये मोहल्लेवाले, रिश्तेदार और समाज क्या कहेगा?

 

“मैं ऊँची आवाज में चिल्लाया! समाज? 

 

“माँ! किस समाज की बात कर रही हैं आप?

 

“वो समाज जिसने एक दरिंदे को अपनी माँ समान भाभी पर बुरी नज़र डालने की पूरी छूट दे रखी है? कहाँ गया था वो समाज तब जब बेकसूर नैना को घर से निकाल दिया गया था। वो भी उस वक्त जब नैना को परिवार की सबसे ज्यादा जरूरत थी। बताओ न माँ, कहाँ था ये समाज तब? क्यूँ नहीं दिलवा पाया वो नैना को न्याय?कहते कहते मेरी आवाज़ भर्राने लगी थी।

 

“माँ चुप हो गई..”

 

“बस अब और नहीं कहते हुए मैंने दरवाजे की ओट से झाँकती नैना की ओर हाथ बढ़ाते पूछा, “नैना, क्या तुम ज़िंदगी के इस सफ़र में मेरी संगिनी बनोगी?

 

“डरी सहमी नैना पैर के अँगूठे से चुपचाप जमीन कुरेदती रही थी।”

 

“मैंने मंदिर से सिंदूर उठाया और नैना की सूनी माँग भर दी।”

 

“पापा ने आगे बढ़कर अपना हाथ आशीर्वाद के रूप में हमदोनों के सिर पर रख दिया। माँ ने भी नैना को गले लगाकर अपना लिया था।”

 

-मंजुला

 

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