मेरी माँ और यादें – family drama story

बचपन से ही मैं अपनी माँ के बहुत करीब रही हूँ । हम दोनों माँ बेटी होने के साथ ही एक अच्छी दोस्त भी हैं। जब भी हमें फुर्सत होती माँ अपने जीवन की हर छोटी बड़ी घटनाओं को मुझे बताती । आज माँ के द्वारा बतलायी वे सभी बातें मैं अपने पाठकों तक उन्हीं के शब्दों में पहुँचाने का प्रयास कर रही हूँ। ) हर व्यक्ति का जीवन एक खुली किताब ही तो है जिसे वह किसी से बांटना चाहता है। लेकिन सच्चाई यह है कि ईमानदारी से कोई भी व्यक्ति पूरा का पूरा अपनी भावनाओं को, अपने जीवन को हर किसी के सामने नहीं रख पाता। जिंदगी के अनेकों उतार चढ़ाव के बीच अपने सुख दुःख को भोगा है मैंने। मेरे मानस पटल पर अंकित बचपन से लेकर आज तक की छवियों एवम् खट्टी मीठी यादों को इन पृष्ठों पर संजोने का प्रयास किया है मैंने।

“मन्नू, देख बेटी, आज तेरे एक फूफा जी को मैंने खाने पर बुलाया है, तू उनके साथ खाने के लिए मत बैठ जाना। माँ का कहा यह शब्द मन्नू की दिल की गहराइयों तक उतर गया था। मन्नू मेरा ही नाम था। शायद बाबूजी ने झांसी की रानी से प्रेरित होकर ही मेरा ये नाम रखा था। रानी के बचपन का नाम मन्नू ही था। यह नाम उन्हें इतना पसंद आया कि अपनी बेटी का ही नाम धर दिया। मैं झांसी की रानी नहीं थी। बल्कि एक साधारण परिवार की पाँच साल की छोटी बच्ची थी। घर में बनती खीर पूरी की सुगंध से मैं खुश थी। आज माँ ने खीर बनाया है, खूब खाने को मिलेगा। उछलती कुदती हुई मैं हर थोड़ी देर में रसोई में झांक आती, तभी माँ ने यह हिदायत थमा दी थी।

मेरा घर गाँव में था, जहाँ घर मिट्टी के और छत खपरैल के होते थे। लेकिन घर हवेली नुमा । बड़े बड़े दलान, बड़े बड़े कमरे और दरवाजे पर नक्काशी किये हुए। मेरे दादा जी चार भाई थे।




पर उनके बारे में बताने के पहले घर का एक नक्शा और खींच दूँ। उस बड़े से घर में दो भाग किया हुआ था। दो भागों के बीच स्नान घर, जिसमें कुँआ था। लेकिन दो भागों के बावजूद घर एक ही था, क्यों कि उस पूरे घर की छत एक ही थी।

 एक भाग में बड़े दादाजी और छोटे दादाजी का परिवार और एक भाग में मंझले और संझले दादाजी का परिवार रहता था। हमलोग संझले दादाजी के परिवार से आते थे। शहर में हमारा एक और मकान था जिसमें मेरे दादा दादी रहते थे। मेरे पिताजी तब नौकरी की तलाश में बाहर रहते थे, अतः हम माँ बेटी को गाँव वाले घर में भेज दिया गया था। खेत से चावल गेहूँ की उपज आ जाती और बगीचे से आम भर पूर आ जाता। परिस्थिति वैसी बुरी नहीं थी। लेकिन माँ सीधी सादी थी और पिताजी बाहर थे तो जैसा आमतौर पर होता है, माँ परिवार से दबती गई। परिवार के लोग उधार चावल, आटा ले जाते और बदले में मडुवा दे जाते । माँ तो सब खा लेती लेकिन मैं नाक भौं सिकोड़ती। सब कुछ रहते हुए भी गरीबी का जीवन बसर कर रहे थे हम। अब उस घर में खीर की सुगंध आये, तो बेचैनी होना तो स्वभाविक था न? मेरे तथाकथित फूफाजी का स्वागत अच्छा होना चाहिए, तभी वे मेरे घर आएंगे, ऐसा मेरी बड़ी चाची का कहना था। माँ ने कितने जतन से बचाये रुपयों से उनके स्वागत का इंतजाम किया होगा, यह बात तब मेरी समझ के परे था। अब सारी बातें खूब समझने लगी हूँ।

हमारा दिन बीत रहा था। फिर पिताजी की नौकरी लग गई, यह सुनकर हम खूब खुश हुए। फिर माँ ने एक दिन कहा-“चल बेटा हमलोग शहर चले जाएं, कुछ तो जिंदगी सुधरेगी। ” गाँव का रहन सहन बिल्कुल सादा था। आज के जैसा बनावटीपन नहीं था, फिर भी लोग ठगे जाते थे। चोरों का आतंक भी कम नहीं था। गर्मी के दिनों में आंगन और ओसारे पर खाट लग जाते और घर के सारे सदस्य रात में वहीं सोते। इन्हीं लोगों से जरा हटकर हमारी बिस्तर भी लग जाती, जिसपर हम माँ बेटी सोते। मेरी माँ बहुत बहादुर स्त्री थी और मैं उतनी ही डरपोक । रात को जब माँ बाथरूम जाती, मुझसे अवश्य पूछती, “तुम्हें डर तो नहीं लग रहा? ” “नहीं माँ, डरने की क्या बात है, ” मेरा उत्तर होता, पर माँ के जाते ही मैं चादर से अपना मुँह ढँक लेती। क्यों कि मुझे लगता, मेरे चारों ओर भूत ही भूत है। जैसे ही माँ के आने की आहट होती मैं चादर एक ओर फेंक देती। मेरी माँ हमेशा बिस्तर के नीचे एक भाला रख कर सोती । जब मैं सवाल करती, यह क्यों रखा है? तो बताती, चोरों का सफाया करने के लिए ।




यह मेरी माँ की तस्वीर है, भरे बदन और छोटे से कद की। साथ ही रंग का गोरापन गजब का । लेकिन बहुत हिम्मती। जरा सी बात पर कभी उत्तेजित नहीं होती बचपन में माँ का कड़ा अनुशासन होता हम पर। वह प्यार तो बहुत करती थी, लेकिन तौर तरीके और अदब कायदे के साथ। उनके नियम कायदे मुझे जरा भी अच्छे नहीं लगते थे। कैसे खाना है, कैसे बोलना है, कैसे चलना है…… इत्यादि । यह सब बातें मुझे परेशान कर देती।

माँ के साथ हम शहर आ गए थे, अपने पिताजी के पास। सबसे अधिक तो मैं खुश थी, क्यों कि अपने पिता की लाडली जो ठहरी। पिताजी गाने बजाने के शौकीन थे। कभी कभी दोस्तों के साथ रात भर संगीत का कार्य क्रम चलता रहता। इधर माँ की खीज जारी रहती। माँ मुझे भेजती, “जा अपने पिताजी को बुला ला। रात के बारह बजने को हैं। ” मैं बुलाने जाती तो मुझे भी बिठा लेते वह । और मुझसे भी गाने को कहते। मुझे बड़ा मजा आता। फिर आखिर घर तो आना ही था। घर लौटते हम तो माँ के डर से मैं पिताजी के पीछे पीछे रहती। ऐसे में डांट सुन ने का अवसर कम हो जाता। फिर भी इतना तो कहती ही, ” अब जाकर गाने से फुर्सत मिली है इन्हें, पता है रात के बारह बजने को है। पिताजी मंद मंद मुस्कुराते रहते। तब माँ का गुस्सा वैसे ही शांत हो जाता।

माँ का जितना कड़ा अनुशासन था, पिताजी उतने ही नरम । और इसलिए उनके सामने मैं शोख़ एवं चंचल बनी रहती, लेकिन माँ के सामने पड़ते ही मेरी सारी चंचलता गायब हो जाती। दिन बीत रहे थे। छोटा परिवार था। अच्छा खाना, अच्छा पहनना और खूब घूमना, सिनेमा देखना, यही हमारी दिनचर्या थी। पढ़ाई तो चल ही रही थी। समय अपनी गति से भाग रहा था। देखते देखते, न जाने कब मैं अचानक अपने पिताजी की नजरों में बड़ी लगने लगी थी। सिर्फ नवीं कक्षा की छात्रा। स्कूल छूट गया मेरा, क्यों कि आगे की कक्षा की पढ़ाई ही वहाँ नहीं थी । मैं घर बैठ गई। फिर अचानक एक दिन पिताजी हँसते हुए घर आये। माँ ने पूछा, “क्या बात है ? आज बड़े खुश हैं? ” पिताजी ने कहा, “नौकरी छूट गई”, बात हँसने की नहीं थी। समस्या फिर मुँह बाये खड़ी थी। पर पिताजी का स्वभाव कितना संतुलित था। हम लोग फिर अपने गाँव आ गए। पिताजी हमें पहुँचा कर फिर निकल पड़े नौकरी की तलाश में। फिर मेरे तीसरे भाई का जन्म हुआ, 




चार दिनों के बाद वह भी चल बसा। इसके पहले भी दो भाई का जन्म हुआ था लेकिन वे साल भर के अंदर ही चल बसे थे। बहुत दिनों तक माँ बीमार रही। मैं दिन रात सेवा में लगी रहती। समय से पहले ही मैं परिपक्व हो गई। फिर पिताजी की नौकरी दुर्गापुर स्टील प्लांट में लग गई। हमलोग फिर दुर्गापुर आ गए। क्वार्टर अच्छा मिल गया। फिर मेरी एक बहन का जन्म हुआ। कुछ ही दिन बीते थे कि एक दिन सुबह चूल्हा जलाते वक्त माँ के कपड़ों में आग लग गई। माँ बहुत जल गई। अब घर संभालना, खाना बनाना, छोटी बहन की देखभाल, माँ की सेवा सब मेरे जिम्मे । दिन भर भाग दौड़ करती मैं थक कर चूर हो जाती। फिर माँ को देखने के लिए कोई न कोई परिवार के लोग आते रहते। सब के खाने पीने का इंतजाम करना पड़ता। मेरी पढ़ाई छूट गई। मेरा सपना टूट गया। अपने टूटे सपने के साथ उस छोटी सी उम्र में घर गृहस्थी संभालती रही। मेरी उम्र चौदह वर्ष की थी, जब पिताजी को माँ से बात करते हुए सुनती, अब हमें मन्नू के लिए लड़का देखना चाहिए। माँ भी हाँ में हाँ मिला देती। पर पिताजी की तीन सौतेली बहनें भी थी, जिसमें बड़ी वाली लगभग मेरी ही उम्र की थी। उनकी शादी की जिम्मेदारी भी पिताजी के ऊपर थी क्यों कि दादाजी का देहांत हो चुका था।

पिताजी के एक अच्छे मित्र थे। उनका एक छोटा भाई भी था जो अच्छी नौकरी में था। पिताजी ने अपनी बहन के लिए उनसे शादी की बात चलाई। तब पिताजी के मित्र ने हाथ जोड़कर कहा, “सिन्हा साहब, आप अपनी बेटी हमें दें तो बहुत खुशी होगी, वह शांत और समझदार है, लेकिन अगर बहन के लिए मेरे भाई को मांगते हैं तो मैं आपसे क्षमा चाहता हूँ। फिर पिताजी ने मेरे लिए हाँ कर दी। उस रात मैं बहुत रोयी। कभी वे लोग दोस्ती के नाते मेरे यहाँ आते थे तो मैं छुप कर इन्हें देखती और सोचती, ” न जाने यह काला कलुटा किसके नसीब में लिखा है। मुझे क्या पता था, कि यह मेरा ही नसीब था। मात्र पंद्रह साल की उम्र में मेरी शादी रचा दी गई। शायद पांच पांच लड़कियों के भार से जल्द से जल्द मुक्त हो जाना चाहते थे।

कुछ यादें जीवन भर नहीं भूलती। पर आज सोचती हूँ। शायद पिताजी ने ठीक ही किया था क्यों कि मेरी शादी के बाद मेरी एक बुआ की शादी हुई और फिर चार साल के बाद ही पिताजी एक छोटी सी बीमारी में चल बसे। माँ और दो छोटे भाई बहन की जिम्मेदारी मेरे पति ने उठा ली। बड़े जमाई होने का फर्ज उन्होंने बखूबी निभाया। कुछ दिनों के बाद माँ की नौकरी भी उन्होंने लगवा दी। आज न तो माँ रही, न मेरे काले कलुटे पति जो दिल के बेहद अच्छे इंसान थे। पर मैं उन सब की यादों के सहारे अपनी जिंदगी अपने बच्चों के साथ बहुत अच्छे से गुजार रही हूँ।

लेखिका : रश्मि पीयूष (लेखिका उमा वर्मा की स्वर्गीय बेटी )

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