कैसी माँ हो तुम! – विभा गुप्ता | best hindi kahani

      ” माँ, आप एक बार आशु से बात तो कीजिए, आप  की बात वो नहीं टालेगा।एक अरसा हो गया उसे …।”

     ” नहीं आकांक्षा, मैं अब उससे कुछ नहीं कहूँगी।जहाँ तक एक अरसे की बात है तो तुमने तब क्यों नहीं सोचा जब उसे…।छोड़,मैं उन बातों को फिर से अब दोहराना नहीं चाहती।” कहकर आकांक्षा की माँ सुनंदा ने फ़ोन डिस्कनेक्ट कर दिया।

   ” लेकिन माँ, आप मेरी बात…।” आकांक्षा कहती गई लेकिन वहाँ सुनने वाला वहाँ कोई न था।

     सुनंदा के दो बेटे थें।परिवार पूरा हो चुका था लेकिन जब भी वो बाज़ार में छोटी बच्ची के रंग-बिरंगे ड्रेसेज देखती, बार्बी डाॅल और किचन सेट देखती तो एक बेटी को गोद में खेलाने की इच्छा जाग उठती।इसीलिए छोटे बेटे आर्यन के पैदा होने के आठ बरस उसने एक बेटी को जन्म दिया जिसका नाम उसने आकांक्षा रखा।माता-पिता की लाडली और भाइयों की दुलारी आकांक्षा देखने में जितनी सुन्दर थी, पढ़ाई में भी उतनी ही होशियार थी।उसके पिता देवधर चाहते थें कि अपने भाइयों की तरह आकांक्षा भी पढ़-लिखकर अपने पैरों पर खड़ी हो जाये और परिवार का नाम रोशन करे।आकांक्षा भी यही चाहती थी,इसीलिए उसने अपनी एक दिनचर्या बना ली थी जिसका वह नियमित रूप से पालन करती थी।

      सातवीं तक तो सब ठीक चल रहा था लेकिन आठवीं कक्षा में जब आकांक्षा ने पूरी क्लास यानि कि तीनों सेक्शन में टाॅप किया तो उसे घमंड हो गया।अब वह क्लास में ऐंठ कर चलती और अपनी सहेलियों से भी अकड़कर बात करती।बेटी के बदले व्यवहार को सुनंदा ने भी नोटिस तो किया लेकिन सोचा कि इस उम्र में लड़कियों में हॉर्मोन्स-परिवर्तन होते हैं,शायद उसी का प्रभाव है जो समय के साथ सब ठीक हो जायेगा लेकिन ऐसा हुआ नहीं।




         स्कूल की पढ़ाई पूरी करके आकांक्षा कॉलेज में आ गई, साथ ही उसका घमंड और सबसे आगे रहने की चाह भी उसपर हावी रहा।उसके दोनों भाई देश के टाॅप कंपनियों में काम करते थें और दोनों भाभियों का अपना बुटिक था तो भला ये कैसे पीछे रहती।

        सुनंदा ने जब बेटी का एमबीए पूरा होने से पहले ही अपने परिचित के बेटे से शादी पक्की कर दी तो महत्वाकांक्षी आकांक्षा ने विद्रोह किया लेकिन सुनंदा के समधी और होने वाले दामाद ने कहा कि आकांक्षा की पढ़ाई पूरी होने के बाद ही विवाह होगा और नौकरी करने की भी उसे पूरी आज़ादी होगी,तब उसने आकांक्षा का विवाह समीर जो पेशे से लेखक था,से कर दिया।  

      एमबीए पूरा होते ही आकांक्षा को नौकरी भी मिल गई और अब वह बहुत खुश थी लेकिन आसमान छूने की तमन्ना उसकी अभी भी बाकी थी।समीर शांत और सरल स्वभाव का लड़का था।पत्नी पर हुकूमत करना उसे पसंद नहीं था।इसलिये उसने और उसके परिवारवालों ने कभी भी आकांक्षा पर कोई पाबंदी नहीं लगाई जिसका उसने पूरा-पूरा फ़ायदा उठाया।देर से घर लौटना तो जैसे उसकी आदत बन चुकी थी।

      जब वह प्रेग्नेंट हुई तो उसने समीर से कहा कि मेरे प्रमोशन का टाइम है तो अभी अबॉर्शन करा लेती हूँ, अगले साल…।

   ” नहीं-नहीं आकांक्षा, ईश्वर के वरदान को ठुकराना उचित नहीं है।बच्चे को आने तो दो,हम सब हैं ना,तुम्हारी तरक्की में वह कभी बाधक नहीं होगा।” समीर ने मुस्कुराते हुए पत्नी को आश्वासन दिया तो वह मान गई।समीर जानता था कि एक बार बच्चे को गोद में ले लेगी तो अपनी सब तरक्की-वरक्की भूल जाएगी।




     नौ महीने बाद आकांक्षा ने एक बेटे को जन्म दिया।सुनंदा बहुत खुश हुई कि अब उसकी बेटी वात्सल्य के बंधन में बँध गई लेकिन ये तो उसका भ्रम था।ऑफ़िस से मिले मातृत्व-अवकाश में भी वो लैपटॉप पर ही बैठी रहती।बच्चा भूखा है या गीले में रहने के कारण रो रहा है,उसे कुछ होश नहीं रहता।समीर उसे समझाने की बहुत कोशिश करता।उसकी सास और सुनंदा ने तो उससे यहाँ तक कहा कि तुम कैसी माँ हो जिसे अपने बच्चे से ज़रा भी लगाव नहीं है।ये समय तो तेरे बच्चे का है।उसे गोद में ले,उसके साथ खेल तभी तो माँ-बच्चे के बीच प्यार पनपता है परंतु उसने कब किसी की सुनी जो आज सुनती।कोई उसे समझाता तो उसे चिढ़ होने लगती थी।

       दो महीने बाद जब आकांक्षा ऑफ़िस जाने लगी तो भूल गई कि उसका कोई बच्चा भी है।यहाँ बच्चा भूख से रोता,उधर वो पार्टी करती।किसी तरह से एक बरस बीत गया।उसका बेटा अंशु चलने और बोलने की कोशिश करता।उसके नन्हें-नन्हें कदमों को देखकर तो सभी खुशी-से फूले नहीं समाते थें लेकिन आकांक्षा की नज़र तो अपनी उड़ान पर थी।




     एक दिन खेलते-खेलते अंशु गिर गया, चोट लगी और रात होते-होते उसे तेज बुखार भी हो गया।समीर ने डाॅक्टर और आकांक्षा को फ़ोन किया।डाॅक्टर ने आकर अंशु को दवा दी लेकिन आकांक्षा नहीं आई।

      फिर तो समीर ने आकांक्षा को कहा कि अब बहुत हो चुका, अभी के अभी रिज़ाइन कर दो।नौकरी तो फिर मिल जायेगी लेकिन बच्चा नहीं।दोनों के बीच काफ़ी बहस हुई और तब उसने सुनंदा को फ़ोन करके कहा कि मम्मी जी,मेरी माँ अक्सर ही बीमार रहतीं हैं,मैं ऑफ़िस और पापा तो… उनकी भी उम्र हो चुकी है।अगर आप अंशु को…।

” अरे बेटा,इसमें संकोच कैसा? मैं अभी आती हूँ।” उसी रात सुनंदा अपने पति के साथ जाकर अंशु को अपने साथ ले आई।

     यहाँ अंशु अपने ममेरे भाई-बहनों के साथ खेलते हुए बड़ा होने लगा।समीर आकर बेटे से मिल लेता,कभी-कभी बेटे को दादा-दादी से भी मिलाने ले जाता।

       समय के साथ वह बड़ा होने लगा,स्कूल भी जाने लगा लेकिन आकांक्षा ने कभी अपने बेटे की खबर नहीं ली।कई बार तो सुनंदा ही अपनी बेटी को फ़ोन करके कहती कि तू कैसी है माँ री? क्या तेरा जी अपने बच्चे को देखने का नहीं करता।जवाब में हमेशा की तरह वह यही कहती कि उसके लिए तो आप हैं ना। 

     अपने कैरियर की ऊँचाइयाँ छूते-छूते एक दिन वह थक गई।उसके ऑफ़िस में ही किसी ने कहा कि अंशु नाम का एक लड़का है जो अपनी माँ के होते हुए भी नाना-नानी के यहाँ पला है,उसने दसवीं में नब्बे से भी अधिक अंक प्राप्त करके स्कूल का टाॅपर बना है और अपने परिवार का नाम रोशन किया है।सुनकर उसके कान खड़े हो गये।उसका बेटा टाॅपर है,सुनकर वह बहुत खुश हुई और तब उसने अपने बेटे को फ़ोन लगाया।जब आकांक्षा ने कहा कि मैं तुम्हारी मम्मी बोल रही हूँ तो अंशु ने फ़ोन डिस्कनेक्ट कर दिया और इसीलिये उसने बेटे से बात करने के लिए माँ से सिफ़ारिश की तो सुनंदा ने मना कर दिया।




     बेटे से मिलने के लिये आकांक्षा बहुत उतावली हो रही थी।तुरन्त अपनी माँ के पास गई।इत्तिफ़ाक से अंशु ने ही दरवाज़ा खोला, आकांक्षा को देखकर अंदर जाने लगा तो वह रो पड़ी ,बोली, “तुमसे मिलने के लिये मैं कब से तरस रही थी।चल घर…।”

    ” अपनी माँ की ऊँगली पकड़ने के लिये जब मैं तड़प  रहा था, आपकी गोद औरआपके सीने से लगने के लिये जब मैं तरस रहा था, स्कूल के पीटीएम में जब मैं आपको ढूँढ रहा था तब आप कहाँ थी? मेरा वो बचपन लौटा दीजिये तो मैं आपके साथ चल सकता हूँ।” कहकर अंशु अपने कमरे में चला गया।आकांक्षा पुकारती रह गई, ” मेरी बात तो सुन…।” लेकिन वहाँ कोई न था।अपनी आँखों में पछतावे के आँसू लेकर वह खाली हाथ वहाँ से चली आई।

                          विभा गुप्ता

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