धूप सी सुबह थी। रसोई में हँसी की खनक थी। राधिका बेलन से पूरियां बेल रही थी और अनुजा कड़ाही में हलवा चला रही थी। मसालों की खुशबू, दूध की मिठास और दोनों के बीच की खनकती बातचीत जैसे घर को जीवंत बना रही थी।
“देख अनुजा,” राधिका ने मुस्कुराते हुए कहा, “इस बार तेरे हलवे को मेरी पूरियों ने टक्कर दे दी है।”
अनुजा ने चुटकी ली, “तो फिर आज वोटिंग हो जाए बच्चों से, जो हारे वो बर्तन मांजे!”
दोनों हँसी में खिल उठीं। पीछे से सासू माँ भी मुस्कुरा रही थीं।
बातें छोटी थीं, लेकिन रिश्तों की मिठास बड़ी थी। जेठानी-दौरानी का ये रिश्ता बहनों जैसा लगता था — न कोई औपचारिकता, न कोई दूरी।
कुछ दिन बाद…
बैठक में कुछ रिश्तेदार आए थे। चाय की चुस्कियों के साथ धीमे ज़हर घुल रहा था।
“बहू,” एक रिश्तेदार ने राधिका से धीमे स्वर में कहा, “अनुजा बहुत तेज़ है ना? हर जगह आगे… तुम्हें तो कुछ बोलने का मौका ही नहीं देती।”
राधिका ने मुस्कुराकर बात टालनी चाही, “नहीं-नहीं, ऐसा कुछ नहीं… हम तो मिलकर करते हैं सब कुछ।”
“समझदार हो तुम,” वो बोले, “लेकिन मीठा बोलने वालों से ज़्यादा होशियार रहना चाहिए।”
शब्द बीज की तरह थे — जो संदेह की ज़मीन में धीरे-धीरे उगने लगे।
अनुजा अब छोटी-छोटी बातों पर कटाक्ष करने लगी।
“सासू माँ से तो अब तेरी ही बातें होती हैं हर वक़्त,” उसने एक दिन छत पर कपड़े सुखाते हुए कहा।
राधिका ने चौंककर उसकी ओर देखा, “कुछ खास नहीं… वो तो बस…”
“अब सब कुछ मुझसे छिपाकर होगा?” अनुजा की आवाज़ थोड़ी तेज़ हो गई।
राधिका चुप रह गई। कभी जो बहन जैसी थी, अब किसी और की बातों से बदलने लगी थी।
पूजा के दिन दोनों ने एक साथ सजावट की, लेकिन मन की गाँठें खुल नहीं सकीं।
राधिका ने धीरे से कहा, “कुछ दिन से तू बात भी ठीक से नहीं कर रही… नाराज़ है क्या?”
“अब तू जो दिखाना चाह रही है, मैं सब समझती हूँ,” अनुजा ने कठोरता से कहा, “सबको खुश कर लेना, मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता।”
राधिका ने कुछ नहीं कहा। उसके भीतर का सन्नाटा बाहर फैलने लगा।
फिर मोहल्ले की ड्रामा प्रतियोगिता आई। राधिका ने एकल अभिनय में हिस्सा लिया। मंच पर खड़ी हुई तो उसकी आँखों में कोई किरदार नहीं था — बस उसकी खुद की ज़िंदगी थी।
उसने कहा—
“कभी हम बहनों जैसे थे।
रसोई में हँसी थी, अब वहाँ खामोशी है।
चाय के कप में मिलती बातें अब सवालों में घुलती हैं।
कभी माफ़ी माँगने की नौबत नहीं आई थी,
अब बिना गलती के सफाई देनी पड़ती है।
असल ज़िंदगी में माफ़ियाँ नहीं मिलतीं…
बस दूरी, और वो भी बिना कहे।”
सन्नाटा छा गया।
अनुजा पीछे खड़ी थी, उसकी आँखें भरी हुई थीं।
रात में, जब सब सो चुके थे, अनुजा रसोई में आई।
राधिका बर्तन सजा रही थी।
“राधिका…” अनुजा की आवाज़ रुक-रुक कर निकली, “अगर किसी और की बातों ने मेरी समझ पर पर्दा डाल दिया था… तो अब उसे हटा रही हूँ। शायद देर हो गई हो… लेकिन अगर तू चाहे तो… हम फिर से वहीं से शुरू कर सकते हैं, जहाँ हमारी हँसी रुकी थी।”
राधिका ने कोई जवाब नहीं दिया।
बस मुस्कराकर उसकी ओर देखा — वही पुरानी सी मुस्कान, जिसमें शब्दों की ज़रूरत नहीं होती।
बिना बहस, बिना सफाई… एक शांत सा फैसला — जो सबसे ज़्यादा ज़रूरी होता है:
मन की शांति के लिए, रिश्तों की सच्चाई के लिए।
रात की हल्की रोशनी में दो परछाइयाँ एक हो गईं — बिना संवाद के, सिर्फ भरोसे के सहारे।
दीपा माथुर