मेरे बच्चे माडर्न हैं – पुष्पा ठाकुर

रोहित – राशि तुम दीदी को देखने नहीं जा रही हो?उनकी तबीयत बहुत खराब है , तुम्हें जाना चाहिए।

रोहित ने अपनी पत्नी से कहा।

राशि – मन तो है रोहित लेकिन तुम्हें तो पता है न दीदी की आदतें….बात बात पर माडर्न होने का दंभ …….

खराब तबीयत में भी सेल्फी लेकर डालती होंगी,उनका क्या है ,घर में झाड़ू ,बर्तन ,पोंछा ,खाना सबके लिए काम वाले लगा रखे हैं,एक नर्स भी लगा ली होगी।

बहन हैं मेरी ….पर लगता ही नहीं कि हम कभी साथ एक ही आंगन में खेले पले और बढ़े हैं…

उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता मेरे न जाने से भी …रहने दो..

रोहित – बहन हैं तुम्हारी ,सुना है हालत ठीक नहीं उनकी,मेरी मानो …देख आओ।

राशि भी इतना सुनकर बार बार सोचने लगी ‘चले ही जाती हूं,पचास पचपन की उम्र में क्या मैं भी पुरानी बातें लेकर बैठ गई।’

     रोहित और राशि मध्यम वर्गीय परिवार के खुशहाल पति पत्नी हैं,दोनों नौकरीपेशा हैं और दो जवान बच्चों के माता-पिता भी हैं।

 रोहित और राशि कार से इंदौर के लिए निकले ,राशि यूं तो साल में चार बार इंदौर जाती है लेकिन अपनी सगी बहन के यहां आठ दस साल बाद जा रही है।

 याद है राशि को पिछली बार जब दीदी के घर आई थी ,उनका रहन सहन और खान-पान मायके से बिल्कुल अलग था। जीजाजी आफिस की जिम्मेदारियों में उलझे रहते थे ,दीदी ने घर और बच्चों का जिम्मा कुछ यूं संभाल रखा था ….घर में हर काम के लिए बाईं लगा रखी थी ।एक एक कर तीन बाइयां आतीं और झाड़ू ,बर्तन,पोंछा ,कपड़े ,खाना पकाना ….सब कर जातीं,राशि को देखकर हैरानी होती कि बच्चे दस बजे तक सोते रहते …उठते ही हाथ पर सारी सेवाएं परोस दी जातीं और वो कालेज से आकर फिर से अपने अपने कमरों में घुस जाते,वहीं अटैच लैट बाथ थे ,पता ही न पड़ता कि वो घर में है भी या नहीं…



दीदी शाम के खाने में उनकी पसंद की एक एक चीज बनवाती और बड़े लाड़ प्यार से उन्हें खिलाती पर वो तब भी मोबाइल में तल्लीन रहते।

दीदी का बेटा आरव तो जैसे राशि को देखता भी नहीं था ,मानो वो जानता ही नहीं कि मौसी जैसा रिश्ता होता भी है। रोहित भी अकेला अकेला बोर हो जाता और दो दिन बड़े भारी कटते।

राशि कहती -‘दीदी लाइए आज मैं कुछ बना देती हूं,जो पसंद हो ‘

दीदी का जवाब मिलता -‘मेरे बच्चे तुम्हारे हाथ का खाना शायद ही खाएं राशि, उन्हें पालक ,बरबटी ,भिंडी ,तोरई … नहीं पसंद ….

क्या है न ,मेरे बच्चे जरा माडर्न हैं ,उनकी पसंद भी अलग है , पाश्ता ,मोमोज़,बर्गर , चाउमीन ….कुछ न कुछ चाहिए ही …. नहीं तो पैर पटकते चले जाते हैं ,देखा न तुमने….उनके मनमाफिक न बना तो बाहर जाकर खा लेंगे …… इसलिए मैं घर में ही सफाई से बनवा देती हूं सब….

तुम परेशान मत हो,इंजाय करो।”

इधर राशि अपने बच्चों को अनुशासन में बड़ा कर रही थी ,काम वाले उसने भी रखे थे लेकिन बच्चे अपने छोटे-छोटे काम खुद ही करते थे।

    सुबह उठने का समय निर्धारित था , कमरे उसके बच्चों के भी थे पर उसकी निगरानी में ही पढ़ते लिखते ,खाने पीने से लेकर घर में मेहमान आने जाने तक बच्चे बराबर सबके बीच रहते ,घर में जो भी खाना बनता वो तो सबको खाना ही होता था ,उनकी पसंद नापसंद का ख्याल भी समय समय पर रखा जाता था ,इस तरह रोज दोनों टाइम नहीं…

     अपनी थाली खुद लगाना,उठाकर रखना ,सामान व्यवस्थित रखना ,ऐसी जिम्मेदारियों से राशि ने उन्हें सहर्ष बांधे रखा था।

    दीदी और उनके बच्चे राशि के इस अनुशासन से चिढ़ते और उसे ओल्ड फैशन्ड वुमन समझकर हमेशा ही उसकी उपेक्षा करते ।

      उनकी इस माडर्न सोच से परेशान होकर ही राशि ने आना बंद कर दिया था और इससे दीदी को कोई फर्क नहीं पड़ता था , जीजाजी की पर्याप्त सैलरी ने उनके अंदर नौकरशाही के गुण कूट कूटकर भर दिए थे।

 

    दस साल बाद आखिरकार राशि की कार दीदी के दरवाजे पर खड़ी थी। हमेशा की तरह कोई नहीं था सामने वेलकम करने वाला,बेमन से राशि और रोहित खुद ही अंदर पहुंचे।

 



   हमेशा ऊपर रहने वाली दीदी हाल के साथ वाले कमरे में लेटी थीं ,सारा घर अस्त व्यस्त था । दीदी के पास दवाइयां और पानी बराबर रखा था।कुछ फल और बिस्किट भी टोकरी में थे ,इनपर मक्खियां भिनभिना रही थीं।

      राशि को देखते ही उसकी दीदी लपक पड़ी ,मानो उसी का इंतजार था।

शायद ही राशि और रोहित के पहले कोई और हालचाल पूछने भी आया हो।

    पता लगा ,बेटा कोई प्राइवेट जॉब करता है और बेटी की शादी होने वाली है ,उसी की तैयारी के चलते ब्लड प्रेशर बढ़ा और पैरालिसिस अटैक आया,एक हाथ और पैर काम नहीं कर रहे।

    दोनों ही बच्चे अपनी-अपनी नौकरी में व्यस्त थे , जीजाजी रिटायर हो चुके थे ,उनकी सैलरी कम हो चुकी थी ,बेटा बेटी एक रुपए भी घर में न खर्चते थे , आखिर उनकी सैलरी पर पूरा अधिकार उन्हीं का था ,जैसे बचपन से अपने अपने कमरों पर …..

     मां बाप का फर्ज है बच्चों के लिए करना,कहकर दोनों ही उनका पैसा बचने नहीं देते थे,काम वाले जरुरत तक के ही रखें मिले,वो भी चतुर ,चालाक…अपनी पगार से आधा काम करते और बुजुर्ग समझकर घर का सामान बटोर ले जाते,कोई देखरेख वाला घर में बचा न था।

      दीदी की हालत देखकर राशि को रोना आ गया। अपना बचपन याद कर दोनों खूब रोईं,जब एक की तबीयत बिगड़ते ही दूसरी उसकी तीमारदारी में तैनात कर दी जाती थी ।

    मां पापा के संस्कार राशि नहीं भूली थी।उसे देखकर दीदी यही कहती ,काश मैंने अपने बच्चों को इतना माडर्न न बनाया होता।

     आज अपनी ही बोई फसल देख इतना दुख न होता,जो चरपट पड़ी थी।

    राशि के बच्चे वीडियो काल करते , मां और बड़ी मां का हालचाल पूछते और जल्दी ठीक होने की दुआएं करते , मां जल्दी आ जाओ कहकर अपनी मां की कमी जताते….

   राशि की परवाह से कुछ ही दिन में दीदी के स्वास्थ्य में सुधार आने लगा और राशि, रोहित के साथ वापस लौट आई।

    दीदी के लिए जिंदगी का सबसे खास सबक छोड़कर –

‘बच्चों को माडर्न बनाने की होड़ में , इंसान बनाना न भूलिए’

लेखिका : पुष्पा ठाकुर 

 

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