मंजर ,१९८४ – मनवीन कौर पाहवा

मौसम शांत था।हल्की ठंडी हवा की लहरें  दीवारों से  टकराकर  उन्हें नम  करने में जुटी थीं। कच्ची धूप खिड़की से झांक क़र अपनी उपस्तिथि दर्ज क़र रही थी।

तभी दरवाज़े पर दस्तक हुई । कोटा के जाने – माने बैंक के मैनेजर  शर्मा जी थे ।आते ही घबराई हुई आवाज़ में बोले ,“टंडन साहिब आप को तो  सब कुछ पता ही है  , मेरे केस के बारे में ।प्लीज़ आप चलिए मेरे साथ जयपुर , चलकर उस बैंक अधिकारी से बात करिए ।नहीं तो मैं बर्बाद हो जाऊँगा ।” पिताजी खुद ए क्लास ऑफ़िसर रह चुके थे ।उनकी कलम में वह जादू था कि कोई भी उनकी लिखी बात को टाल नहीं सकता था ।सभी तरह के लोग चाहे वह व्यापारी हों या अधिकारी ,जब भी किसी मुसीबत में होते ,बस चले आते पिताजी से अर्ज़ी लिखवाने और पिताजी ठहरे समाज सेवक सभी की समस्याओं को सुलझाने  चल पड़ते ।

“परंतु  ,कल तो मीटिंग है मेरी ,ठेकेदारों के साथ ।” पिताजी ने कहा ।वह गिड़गिड़ाते हुए बोला ,” नहीं टंडन साहिब अगर आज आप मेरे साथ नहीं गए तो मेरे बच्चे  सड़क पर आ जाएँगे । मेहरबानी करके ना मत कीजिए ।”

“अच्छा ! सुनो बैग में  एक जोड़ी कपड़े रख दो, मैं इनके साथ जयपुर जा रहा हूँ ।कल शाम तक लौट आऊँगा ।” पिताजी ने माँ से कहा ।माँ बोलीं ,” अचानक से ,,,,,,,,,”हाँ शर्मा जी को,  ज़रूरी  काम है ।”  कार द्वारा कोटा से जयपुर चंद घंटों की दूरी पर ही है ।बैग लेकर पिताजी जयपुर के लिए रवाना हो गए ।

हम फिर से अपने नवीन गृह  की साज सज्जा में व्यस्त, अपनी आँखों से घर के  हर एक कोने को  नापते  हुए । माँ को अपने सुझाव देने में आनंद का अनुभव करने लगे ।

दूसरे दिन मैं स्कूल में बच्चों की अभ्यास पुस्तिका जाँच रही थी कि अचानक छुट्टी का नोटिस आ गया । खबर आई कि प्रधान मंत्री श्रीमती  इंदिरा गांधी  का निधन हो गया है ।उन्हें  गोली मार दी गयी है ।

कुछ देर बाद  स्कूल का  सब काम निपटा कर जब मैं घर पहुँची, तो देखा  पिताजी के ऑफ़िस का चौकीदार भागता हुआ आया और हाँफते  हुए पूछ रहा है , “बाबूजी कहाँ हैं ? साहिब कहाँ हैं ?” हम सब घबरा गए ।” क्या हुआ रामू पहले थोड़ा पानी पीलो ।” माँ ने कहा । “नहीं- नहीं साहिब को ऑफ़िस नहीं भेजना । आठ – दस लोग लाठी लेकर आए थे ।” उसने घबराते – थिरकती आवाज़ में कहा । “सारा ऑफ़िस टेबल ,कुर्सी , खिड़की , दरवाज़ा सब तोड़ गए । वह साहिब को ढूँढ रहे हैं ।”

हम सब अवाक खड़े उसे घूर रहे थे और वह डरा सहमा सारे हादसे को विस्तार से बता रहा था ।तभी ज़ोर से चीखता हुआ कोई घर के सामने से निकला  ॥”मारो ,मारो ।”



अभी हम कुछ सोच पाते कि खुराना आंटी का बेटा  हाँफता- भागता हुआ आया “ अंकल को गुरुद्वारे भेज दो मीटिंग है ।”कहकर माँ की किसी बात को बिना  सुने उल्टे  पाँव भाग गया ।

स्तब्ध थे हम सब ।कुछ देर यूँ ही खड़े रहे चुपचाप , फिर माँ ने सभी खिड़कियाँ दरवाजे बंद करने को कहा ।मुझे याद आने लगा १९६५का भारत -पाक युद्ध का समय , तब मैं बहुत छोटी थी , शायद चार या पाँच वर्ष की । दादी ने हम सभी बच्चों  के हाथ में मिर्ची की डिबिया थमाते हुए कहा था ,”अगर  कोई अंदर घुस आए तो उसकी आँखों में झट से यह मिर्ची पाउडर डाल देना ।”वह,फिर से , बहुत डरी हुई और मायूस लग रही थीं ।शायद 1947 का क़त्ल ए आम उनकी आँखों में तैर रहा था ।

मैं जल्दी से उठी और रसोई से मिर्ची और नमक  के डिब्ब्बे  लेकर दरवाज़े के पास बैठ गयी ।पागलों जैसी हरकतें कर रहे थे हम सब । दिमाग़ कुछ काम ही नहीं कर रहा था ।

“पता नहीं कब आएँगे , पता नहीं कब आएँगे ।”माँ बार- बार एक ही बात दोहरा रही थीं।

शाम को जब दरवाज़े पर खट-खट की आवाज़ हुई तो डर के मारे सब अपनी साँस रोक कर बैठ गए ।थोड़ी देर बाद पिताजी की आवाज़ आई , “भई खोलो , कहाँ चले गए सब ।”तब जान में जान आई।धीरे से दरवाज़ा खोल कर पिताजी को अंदर लिया और जल्दी से चिटकनी चढ़ा दी ।

सारा वाक़या सुन कर पिताजी हैरान थे ।दूसरे दिन कोई घर से बाहर नहीं निकला। शाम तक पूरे देश में  नर संहार की खबर बिजली की तरह फैल गयी ।ना किसी को खाने की सुध थी ना पीने की । कुछ भी नहीं सूझ रहा था ।क्या करें ?

अगले दिन जब दूध वाले ने आवाज़ लगाई तो डरते डरते मैं दूध लेने निकली  ।पड़ौस वाले पंडित जी  मुझे हैरानी से देख रहे थे ।शायद कह रहे थे’, “बाहर क्यूँ आई?”

। पूरा अख़बार कल के दिल्ली,इंदौर आदि  के दंगों की खबरों से रंगा पड़ा था …।बाज़ार में सरे आम सरदारों को लोहे के सरियों से पीटा गया और तलवारों से काट काट कर मार दिया गया ।लोगों के गले में टायर डाल कर आग लगा दी ।खम्बों से बांध कर जला दिया ।घरों से घसीट कर बाहर लाए और जला दिया ।पीट-पीट कर मार दिया ।ट्रेनों में घुस कर ,पकड़ – पकड़ कर मारा गया । स्टेशन पर बैठे सिक्ख यात्रियों  को गोली से उड़ा दिया । घरों को आग लगा कर लूट लिया ।।लड़कियों को उठा कर ले गए …।सड़कों पर लाशों के ढेर लगे थे ।।पुलिस तमाश बिन बन कर खड़ी रही ।ऐसा मंजर कि किसी की भी रूह काँप जाए ।



क़त्ल -ए -आम  करने वालों में आम जनता नहीं थी । अपितु बुचडखाने से बुलाए गए बुचर,जेल में सजा काट चुके जघन्य अपराधी  और झोपड़ियों में रहने वाले गुंडे बदमाश थे ।

ऐसा नरसंहार!  लगता था किसी ग़ुलाम देश में, कोई क्रूर राजा ,अपनी ही बेक़सूर जनता पर घृणित अत्याचार कर रहा हो ।तीन दिन तक क़त्ले आम चलता रहा ।ग़नीमत है कि हमारे इलाक़े में  कुछ शांति थी ।

माँ ने ज़िद पकड़ ली थी , हम यहाँ पर नहीं रहेंगे । पंजाब में किसी रिश्तेदार के घर चले जाएँगे ।गुरुद्वारे से संदेश आया ,”सभी परिवार अपने लाठी डंडे , तलवारें जो कुछ भी हथियार हैं , लेकर गुरुद्वारे में एकत्रित हो जाएँ ।”सभी इतने डरे हुए थे कि हाथ – पैर भी काम नहीं कर रहे थे । हिम्मत ही नहीं हो रही थी घर से बाहर निकलने की ।हम घर पर ही रहे ।

तय हुआ कि हम चले जाएँगे । माँ ने सभी के कपड़े और  बिस्तर पेक कर दिए और हम रात की गाड़ी से पंजाब जाने को तैयार थे । भाई सत्रह – अठारह वर्ष के रहे होंगे । उनकी छोटी -छोटी दाड़ी मूँछें और सिर पर जूड़ा था । भाइयों के बाल खोल कर उन्हें शाल से मुँह ढकने को कहा । छुपते छुपाते  ,पिताजी के एक मित्र की सहायता से रात को स्टेशन पहुँचे ।वह सफ़र, हमने, कितनी दहशत में निकाला उसका अंदाज़ा भी लगाना मुश्किल है ।हम दूसरे दिन पंजाब पहुँच गए ।

सभी गुरुद्वारे और घर दंगा पीड़ित शरणार्थियों से भरे पड़े थे ।अपने ही देश में हम शरणार्थी थे। औरतें बिलख – बिलख कर रो रहीं थीं ।हाय! मेरे बच्चे , मेरे कलेजे के टुकड़े के गले  में टायर डाल कर  ज़ालिमों  ने ज़िंदा  जला डाला , तो कोई चीख – चीख कर कह रहा था ,हत्यारों ने हमारे परिवार के सभी लोगों को एक- एक कर मार डाला । मेरे बेटे के टुकड़े टुकड़े  कर के गली में फ़ेक दिया  ।घरों में आग लगाकर सब कुछ स्वाहा कर दिया।उनका रुदन और चीत्कार सुन कर कलेजा मुँह को आता था ।

पड़ोसी ,पीछे के रास्ते से  बहुत से परिवारों को चुपचाप अपने घर ले गए और उन दहशत ग़रदों से बचा लिया । उनकी अनुपस्तिथि में घर और दुकाने  लूट  लीये गए।अब उन्हें अपनी ज़िंदगी  फिर से ,नए सिरे से शुरू करनी थी । उन्होंने वह जगह छोड़ देने का निर्णय लिया  और किसी तरह अपनी जान बचा क़र पंजाब पहुँच गए ।

पंजाब में उस समय एमर्जेंसी लगा दी गई थी । सोलह सत्रह साल से बड़े ,अधिकतर जवान लड़कों को पकड़ कर जेल में बंद कर दिया था ।रोते बिलखते माँ बाप अचानक ग़ायब हुए बच्चों को ,एक जेल से दूसरी जेल में ढूँढते हुए नज़र आते थे ।शाम के समय बंदूक़ की गोलियों की धाँय – धाँय से सारा आसमाँ गूंज उठता था  और सुबह खबर आ जाती थी कि फ़लाँ  को मार डाला ।

पंजाब की खिलखिलाती , खुशहाल धरती ,जहां हर घर से हंसी ठहाकों और गीत संगीत के स्वर हवाओं के साथ गूंजने रहते थे ,वहाँ आज ,डबडबाती आँखों के साथ, सिहरा  देने वाली ,खोफ़ंनाक , एक अजीब सी  दम घोटती चुप्पी का मातम छाया हुआ था ।

मनवीन कौर पाहवा

औरंगाबाद (महाराष्ट्र)

 

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