रितु की नजरें अब भी अख़बार पर थीं, लेकिन अब शब्दों पर नहीं, यादों पर ठहरी हुई थीं। मन में कई अधूरी बातें, कई अनकही शिकायतें कुलबुला रही थीं। अखबार का पन्ना पलटता नहीं था और न ही मन का कोई पन्ना।
अपूर्वा उसकी बगल में बैठ गई। एक हाथ में चाय का कप, और दूसरे में मोबाइल।
“मम्मी, पहले एक घूंट चाय… अब बताइए, अगर यही बात निशा मौसी को पता चलती कि दीदी खाली हाथ आ गईं तो वो क्या करतीं?”
रितु ने तुनक कर कहा, “अरे अपूर्वा, तुम नहीं समझोगी। बहनों का रिश्ता ही ऐसा होता है। जब मायके जाती हूं तो हर बार चाहती हूं कि कुछ अच्छा लेकर जाऊं। लेकिन सुधीर तो जैसे बात बात पर हिसाब किताब करने लगते हैं।”
अपूर्वा ने मुस्कुराते हुए कहा, “तो फिर इस बार हिसाब किताब हम करते हैं, लेकिन डिजिटल तरीके से।”
रितु चौंकी, “क्या मतलब?”
अपूर्वा ने मोबाइल स्क्रीन ऑन किया और बोली,
“मम्मी, ये देखिए – ये ऑनलाइन शॉपिंग ऐप। आप यहीं से मौसी के लिए साड़ी पसंद कर लीजिए, उनके घर डिलीवर भी हो जाएगी। और आप जाएंगे तो खाली हाथ नहीं, प्यार और टेक्नोलॉजी के साथ जाएंगी।”
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रितु थोड़ा सकुचाई, “मुझे ये सब नहीं आता अपूर्वा। ये तो तुम्हारे जैसी लड़कियों के बस की बात है।”
“मम्मी, ये तो आपकी बहू की बात है, और बहू के बस की हर बात अब सासू मां को भी आनी चाहिए। चलिए, एक क्लिक तो कीजिए।”
रितु ने अनमने हाथों से मोबाइल पकड़ा, लेकिन अपूर्वा के सधे हुए निर्देशों पर उसने धीरे-धीरे एक साड़ी पसंद कर ली – गुलाबी रंग की, हल्के कढ़ाई वाली। निशा की पसंद की।
“अरे, ये तो बिल्कुल वैसी ही है जैसी वो पिछली बार किसी शादी में पहन कर आई थी…” रितु की आंखों में एक हल्की चमक आ गई।
“तो फिर ऑर्डर करें?” – अपूर्वा ने चुटकी ली।
रितु ने पहली बार मुस्कुरा कर सिर हिलाया। ऑर्डर कन्फर्म हुआ।
अपूर्वा ने कहा, “अब पापा जी से भी कहना नहीं पड़ेगा, और निशा मौसी को भी अच्छा लगेगा।”
रितु ने हल्के स्वर में कहा, “तुमने आज मेरी सालों की गांठ खोल दी अपूर्वा… मन की गांठ।”
अपूर्वा ने प्यार से उसका हाथ थाम लिया,
“मम्मी, जब रिश्ते डिजिटल नहीं होते, तो समाधान क्यों न ढूंढे टेक्नोलॉजी से? आपको कोई शिकायत न रहे – ये मेरा वादा है।”
रितु ने अखबार एक तरफ रखा। अब मन हल्का था। अखबार की सुर्खियों से ज़्यादा जीवन की सच्चाई ने उसका ध्यान खींचा था।
कुछ ही देर बाद सुधीर जी कमरे में आए और बोले:
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“रितु, निशा को क्या ले जा रही हो इस बार?”
रितु ने मुस्कुराकर जवाब दिया,
“तुमसे क्या पूछना सुधीर, अब तो मैं खुद ही अपनी पसंद से खरीद सकती हूं… अपूर्वा ने सिखा दिया है।”
सुधीर हक्के-बक्के रह गए। अपूर्वा ने विजयी अंगूठा दिखा कर कहा;
“और पापा जी, अगली बार आपकी साड़ी भी मैं ही ऑनलाइन दिलवाऊंगी… मम्मी के लिए!”
तीनों की हंसी कमरे में गूंज गई —
और उस दिन पहली बार, मन की गांठें हल्के होकर रिश्तों की मिठास में घुल गईं।
दीपा माथुर
#मन की गांठ