बहुत सालों बाद भतीजे की शादी में वह गांव आई थी। माँ बाबूजी के गुजरने के बाद आने का कोई प्रयोजन ही नहीं था । ऐसा नहीं है कि भाई भाभी ने बुलाया नहीं था। पर इच्छा ही नहीं होती थी या यूं कहें कि बिन माँ का मायका कैसा !
जैसे बिना खुशी का त्योहार।
शादी की गहमागहमी में सब लगे हुए थे। गाड़ी से उतरते ही सबने खूब स्वागत किया। भाई -भाभी भतीजा- भतीजी सब काफी खुश हुए । भतीजे ने उसके सामने प्रश्नों की झड़ी लगा दी ।
बुआ आप कितने दिनों बाद आई हैं?
आने का मन नहीं करता है आपको?
मेरी शादी अगर यहां से नहीं होती तो आप गाँव नहीं आती ?
गुड़िया (बाबूजी उसे प्यार से गुड़िया ही बोलते थे) बगैर कोई जवाब दिए बार- बार बरामदे से घर के अंदर जाने वाली गली को देख ले रही थी। वह सबकी बात सुन रही थी पर उसकी नजरें अब भी उसी ओर टिकी हुई थी ।लगता था जैसे अभी -अभी माँ सामने से माथे पर आँचल संभालते बाहर निकल कर आएगी और उसे दोनों हाथ फैलाकर गले से लगा लेगी।
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आज उसे अपना ही घर बेगाना क्यूं लग रहा था। घर के लोग भी पराये लग रहे थे।
वह किसी के प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं दे रही थी। वह एकटक दरवाजे की ओर देखे जा रही थी ।
शायद भाई उसकी नजरों की चाह को समझ गये थे उन्होंने कहा- ” तुम लोग सारा कसर यहीं पूरी कर लोगे क्या। इसे अंदर तो लेकर जाओ अभी-अभी आई है थकी होगी बेचारी।”
सब उसका समान लेकर अंदर जाने लगे वह सबके पीछे- पीछे यंत्रवत अंदर चली जा रही थी। उसे वहां आने की वह व्याकुलता ही नहीं थी जो माँ -बाबूजी के समय मायके में आने के लिए होती थी।
घर मेहमानों से भरा था पर माँ के बिना उसे हर कोना सुना लग रहा था ।वह माँ के कमरे के पास जाकर ठिठक गई पहले जहां घुसते ही वह अपना पर्स फेंक पसर जाती थी, अब वह कमरा भाभी का हो गया था। उसे लगा माँ कमरे से आवाज दे रहीं हैं ।वह उस तरफ बढ़ी ही थी कि भतीजी ने कहा-” बुआ वह कमरा मम्मी का है आप मेरे साथ कमरे में चलिये आपका सामान भी वहीं रखा है जितने दिन रहोगी मेरे साथ ही सो लेना ।”
उसने अपने आंखों में उमड़ते आंसुओं को रोक लिया और माँ के कमरे से हट गई। उसका मन हो रहा था कि वह किसी के गले लग कर खूब रोये।
उसने कपड़े बदले हाथ मूंह धोया और घर के पीछे वाले दरवाजे के तरफ चली गई ताकि कोई उसके भींगी आंखों को देख न ले।
वहाँ सामने अपना सारा वात्सल्य समेटे वह नीम का पेड़ खड़ा था। उसे देखते ही गुड़िया के चेहरे पर उसके शीतलता का एहसास हुआ । गुड़िया को उसके मौन में ही एक आत्मिक अपनत्व सा महसूस हुआ। गुड़िया धीरे-धीरे उसके पास पहुंची और दोनों हाथों से पकड़ वहीं खड़ी हो गई । खूब रोई जितना जी चाहा रोती गईं। माँ बाबूजी के बाद मायके में कोई गले मिला तो वह कोई और नहीं नीम का पेड़ था जिसके छाँव में उसका बचपन बीता था और वह भाइयों और सहेलियों के साथ खेल- कूद कर बड़ी हुई थी। बाबूजी ने उसपर झुला भी बाँध दिया था जिसपर झूल- झूल कर वह माँ की गोद का आनंद लेती थी। बाबूजी की खटिया पेड़ के नीचे पड़ी रहती थी और वे वहीं बैठकर अपना खाता- बही देखा करते थे। शाम के समय उनका चौपाल भी उसी पेड़ के नीचे लगता था। कभी-कभी शाम के समय बाबूजी बच्चों को वहीं बैठकर कहानियां भी सुनाते थे।
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घंटो तक गुड़िया वहीं उस पेड़ के जड़ के पास अपने बचपन में खोई रही।
पिछे से किसी ने उसके कांधे पर हाथ रखा तो वह चौककर पिछे मुड़कर देखी……।
काकी आप….?
पड़ोस की चाची,माँ की पक्की सहेली जिन्हें गुड़िया प्यार से काकी कहती थी।
एक हाथ में बताशे और दूसरे हाथ में पानी लिए उसके पीछे खड़ी थीं।
बोली-” क्यूँ बिटिया यहां कर रही है मैं तुझे पूरे घर की परिक्रमा कर ढूँढते आ रही हूँ ।बैठ यहीं पर पहले मूंह मीठा कर पानी पी ले फिर सुनाना अपना हाल समाचार !
गुड़िया के आंखों से झड़ -झड़ आंसू बहने लगे। वह पेड़ के नीचे काकी के साथ बैठ गई। काकी आँचल से उसके आंसू पोछते हुए कह रही थीं ” बिटिया रोते नहीं माँ नहीं है तो क्या हुआ मायके का पत्ता- पत्ता माँ की तरह छाँव देता है ।”
गुड़िया को लगा जैसे वह नीम का पेड़ नहीं ममता की छाँव है और हाथ में बताशे लिए काकी नहीं साक्षात माँ ही थीं। वह आंख बंद किए काकी के हाथ से पानी पी रही थी और घर के अंदर से गीत की आवाज आ रही थी…
नीमीयाँ के डाढ़ मइया……झूलेली …..कि झूली-झुली ना मइया गावेली गीत की ….।
#पराए_रिश्तें_अपना_सा_लगे
स्वरचित एवं मौलिक
डॉ ,अनुपमा श्रीवास्तवा
मुजफ्फरपुर, बिहार
VM VD
Kya sach may mata pita kay alawa koi rista hota hI jismay itna prem ho
बहुत सुन्दर व्याख्यान।
भाव पूर्ण
Absolutely
But enough is enough