” जानकी जी, महाकुंभ खत्म होने में अब तो कुछ ही दिन रह गये हैं..आप चलेंगी ना..हम टिकट करवा ले…।” शांति जी अपनी पड़ोसिन से पूछने लगी तो जानकी जी बोलीं,” नहीं शांति बहन..हम नहीं जा सकेंगे..आप और सुलोचना बहन चले जाईये..।”
” पिछले कई महीनों से तो आप ही रट लगाये हुए थी..फिर अब क्या हुआ…।” उन्होंने शिकायती लहज़े में पूछा तो जानकी जी मुस्कुरा दी।शांति जी बोली कुछ नहीं लेकिन समझ गईं कि जानकी जी पैसे बचा रहीं हैं।
दो दिनों के बाद शांति जी अपनी सहेली सुलोचना जी के साथ कुंभ-स्नान कर आईं।अगले दिन वो जानकी जी से मिलने चली गईं।रास्ते भर वो यही सोचती रही कि जाकर उनसे कहूँगी कि आपने पुण्य कमाने का एक अच्छा अवसर खो दिया है।हमने ये किया..वो किया..यही सब सोचते हुए वो उनके घर में प्रवेश कर ही रहीं थी
कि अंदर से उनकी कामवाली कजरी की आवाज़ सुनकर ठिठक गईं।कजरी कह रही थी,” अम्मा जी..जो आपने मेरी मदद न की होती तो..।कितने दिनों से आप कुंभ-स्नान की रट लगा रहीं थी और जब जाने का समय आया तो आपने बचत किये हुए सारे रुपये मेरे पति के इलाज़ में खर्च कर दिये।अम्मा जी..हमारी वजह से आपका कुंभ-स्नान नहीं हो पाया लेकिन भगवान आपको इसका पुण्य ज़रूर देंगे..आपके बच्चे हमेशा सुखी रहेंगे..उनके सब दुख..।”
” बस कर कजरी..बातों में भूल गई कि तुझे दवा लेकर अस्पताल जाना है..जल्दी जा..।” उन्होंने कजरी की हथेली पर कुछ रुपये रखकर उसे विदा कर दिया।कजरी की बात सुनकर शांति जी चकित रह गईं।जानकी जी के बारे में उनके जो विचार थे, अपनी उस छोटी सोच पर वो बहुत शर्मिंदा हुईं।
उनके अंदर प्रवेश करते ही जानकी जी ने पूछ लिया,” आपकी कुंभ-यात्रा कैसी रही..मैं तो जा नहीं सकी..शायद अगली बार…।”
” आपने कजरी की मदद करके ही कुंभ-स्नान के बराबर पुण्य कमा लिया।अच्छे कर्म ही सच्चा धर्म है और यही सत्य है।” कहकर वो प्रसन्न मन से अपने घर के लिये प्रस्थान कर गईं।
विभा गुप्ता
स्वरचित