ऑफिस के सामने मल्टी स्टोरी बिल्डिंग के बरामदे में रतीराम का चाय का खोखा था। ऑफिस से खाली समय मिलने पर उसकी लकड़ी की बैंच पर बैठकर एक चाय बीस मिनट में सिप करते हुए गप्पें हाँकते रहना मेरे शौक में शामिल था। बचपन के क्लास फैलो रतन गुप्ता की परचून की दुकान पर चावल की बोरी पर बैठकर और मूमफली के कट्टे पर कमर लगाकर घंटों पुराने दिनों को याद करना,
अब्दुल कबाड़ी के गोदाम पर बैठकर वर्तमान राजनीति की बातें करना और सारी व्यवस्था के लिए गालियां सुनना तथा नए पुराने उपन्यास और पत्रिका बेचने वाले सुखाराम जी की संकुचित सी दुकान पर बैठकर पुरानी पत्रिकाएँ पलटते रहना मेरी रोज की दिनचर्या का भाग था। यदा कदा यहाँ से भी मुझे अपनी कहानी के पात्र मिलते थे।
इन सब के अलावा शहर में मेरे दोस्तों और किस्सागोही करने वाले ठिकानो की लंबी लिस्ट थी। होम्योपैथी के डॉक्टर चितरंजन घोष जिन्हे स्वयं से चिकित्सा कराने वाले मरीजों से अधिक उनसे शायरी सुनने वालों की प्रतीक्षा रहती थी। रिटायर्ड पुलिस अधिकारी हफ्ते दस दिन में मुझे फोन करके बुला लेते और चाय पिलाकर अपनी बहदुरी के किस्से और पुलिस विभाग के भीतर की राजनीति की बातें बताते।
लेखक के ह्रदय की संवेदनशीलता, भांति भांति के चरित्रों की गहराई में उतर जाने की सहज उत्सुकता और मन आँगन की गीली मिट्टी से अनुकूल आकृति गढ़ लेने की कला ही उसे कथाकार और कहानीकार बनाती है। कठोर चट्टानी धरातल पर तो घास भी नहीं उगती। फिर कल्पनाएं कैसे ऊमजेंगी भला। कई बार शहर के इन्ही चरित्रों में मुझे अपनी कहानियाँ मिलती थीं।
शनीवार को ऑफिस से जल्दी निकलकर धीरे धीरे घर की तरफ बढ़ रहा था कि दर्शन लाल केले वाले ने आवाज लगाई। “बाऊजी, बड़े दिन हो गए। आजकल कहाँ बिजी रहते हैं।”
अब मुझे तो बची हुई शाम के घंटे काटने को कोई ठिकाना ढूंडना ही था सो चलो आज आधा घंटा दर्शन लाल के पास ही बिताया जाय।
उम्र में मुझ से पाँच छह साल बड़े दर्शन और उसका ग्यारह बारह साल का बेटा बरसों से यहीं फलों का ठेला लगाया करते थे। मेरे यारों की गप्प चौकड़ी में बरसों पहले पाकिस्तान से विस्थापित होकर आने वाले दर्शन भी शामिल थे। उनके पास अपने विस्थापन, अपने दोस्तों के आगे निकल जाने, स्वयं के दुर्भाग्य,
और पूरे खानदान के लिए संघर्ष के किस्सों का भंडार रहता था जिनहे वे बड़े भावुक होकर सुनाया करते थे मगर इधर कुछ दिनों से व्यस्तता के चलते उन से बातचीत का अवसर नहीं मिल पा रहा था।
“आज तो लगता है तुम्हारा काफी माल बिक गया दर्शन भैया। ठेला खाली खाली सा पड़ा है।” मैंने बातचीत का सिलसिला शुरू करने के लिए कहा।
“कल से नवराते के बरत चालू हैं न बाऊजी। आज माल ठीक ही बिक गया। और आप के बाल बच्चे सब ठीक हैं न?”
“हाँ, चल रहा है सब। गुरू, मजे हैं तुम्हारे। सुबह माल खरीदो। शाम तक बेचकर प्रॉफ़िट जेब में डालो और अपने घर। हमारी तरह न बॉस की चख चख, न प्रमोशन की टेंशन, न ट्रास्न्फ़र पोस्टिंग का तनाव और हाँ। माल बच जाय तो बच्चों की मौज ही मौज। रोटी की जगह फ्रूट ही खाओ। हा हा हा।”
“अरे चाय बोल रे छोटू। बाउजी बड़े दिनों के बाद आए हैं। केले बढ़िया केले।” दर्शन ने टेर लगते हुए मुसकराकर कहा।
लड़का चाय लेने चला गया। दर्शन ने अपनी ढाई फिट की बैंच पर मेरे लिए जगह बनाते हुए एक बार फिर आवाज लगाई “केले, बढ़िया केले।”
“अब हमारा देखो दर्शन भैया। सुबह से शाम तक ऑफिस मे खटते रहो। बॉस की फटकार झेलो। ऊपर से कभी भी प्राइवेट नौकरी जाने का खतरा। पिछले दोनों अचानक कंपनी ने छंटनी में ऑफिस के कई आदमी निकाल दिये। इस बार तो बच गए मगर ….. । अब बताओ। जिस की अचानक नौकरी चली जाय, कैसे पालेगा अपने बाल बच्चों को।
डिगरी हाथ में लेकर मजदूरी भी तो नहीं कर सकता और किस्से कहानियाँ लिखने से पेट तो भरता नहीं। फिर आदमी का एक स्टेंडर ऑफ लीविंग बन जाता है। इंसान को सब से अधिक कष्ट कब होता है पता है? जब उसे ऊपर से नीचे को जाना पड़े।”
“हम तो बाउजी कभी ऊपर गए न कभी नीचे गए। पाकिस्तान से भागकर आए थे। पिताजी भी इसी ठिए पर फल बेचते बेचते चले गए और मुझे भी तीस साल हो गए। हमारे साथ पाकिस्तान से आए लोग न जाने कहाँ से कहाँ पहुँच गए। बस मैं और बच्चू चाय वाला वहीं के वहीं अटके रहे।” फिर एक लंबी सांस लेकर बोले “बच्चे पाल दिये जी यहीं से।”
“तभी तो कहता हूँ भैया। न किसी की नौकरी न चाकरी न चापलूसी। अपनी मन मर्जी का काम। जब मन में आए काम करो और जब मन करे छुट्टी मार लो। गुलामी किसी के बाप की नहीं। अपना धंधा अपना व्यापार। पचास का माल मंडी से मिले तो साठ में बेच दो। सौ का माल मिले तो एक सौ बीस में बेच दो। अब हमारा देखो दर्शन भैया। महंगाई हो या मंदी। मिलने हैं वही गिने गिनाए चार पैसे।”
“कहाँ बाउजी। बस दूसरे की थाली में खीर ज्यादा दिखाई देती है। इज्जत कहाँ है इस काम में। बस गुजारा हो जाता है दाल रोटी का। केले। बढ़िया केले।”
“इज्जत का क्या है दर्शन भैया। अपने अपने समाज के इज्जत के अलग अलग मापदंड होते हैं। अब देखो न। मेरे सारे रिश्तेदार बड़े बड़े ओफ़ीसर हैं। और मैं क्या हूँ।
एक छोटा सा एकाउंटेंट। साला बौस जब देखो तब सर पर चढ़ा रहता है। फाइलों में दिमाग का हलुआ बन जाता है। इनकम टैक्स, बच्चों के स्कूल की महंगी फीस, मैडम के ब्यूटीपार्लर के खर्चे, पैट्रोल और हर चीज की ईएमआई। बस समझो दम ही निकल जाता है मिडिल क्लास का।” अपनत्व सा देखकर मेरे भीतर की दुश्वारियां निकलकर बाहर आने लगी थीं।
“छोड़ो बाबू साब। जो घर न देखा वो घर अच्छा।” दर्शन लाल ने उदासी के साथ कहा।
“कुछ भी हो भई, अपना काम अपना ही होता है दर्शन भैया। इज्जत और स्वाभिमान के साथ ….. ।”
“इज्जत …… बारह साल के बेटे के सामने मुझ से आधी उम्र का ठुल्ला हवलदार जब सरे बाजार थप्पड़ मार देता है तब …… ।” बोलते बोलते दर्शन लाल की आवाज दब सी गई। अचानक उस ने मेरे सामने बड़ी लकीर खींच दी थी।
उसने अपना चशमा उतारा और एक मैले से कपड़े से पौंछने लगा जिस से चशमा कुछ और धुंधला सा हो गया था। फिर उसी कपड़े को अपने चेहरे पर फिराया और ज़ोर से आवाज लगाई “केले … बढ़िया केले।”
लोकतन्त्र है, अभिव्यक्ति की आजादी है, हर नागरिक के संवैधानिक मूल अधिकार हैं, हरिजन एक्ट है, समानता का अधिकार है, गांधी का समाजवाद है, लेनिन का साम्यवाद है और दीनदयाल का एकात्म मानवतावाद है।
मानवाधिकार आयोग है, बड़ी बड़ी अदालतें हैं। गाँव के परधान से लगाकर पार्लियामैंट में पिचहत्तर साल से लंबे लंबे आँसू बहाते नर्म दिल हमदर्द हैं। हजारों स्वयं सेवी संस्थाएं और एन॰जी॰ओ॰ हैं। मिशनरी हैं, बापू, साई और माताएँ हैं। चर्च में आँसू बहती मदर मेरी हैं, फूँक मारकर सारे दुख दूर करने वाले नजूमी हैं, आश्रम और अखाड़े हैं और… और…
सैकड़ों साल से ख़ाकी डंडा है। अजेय है अजर अमर है।
और सकड़ों साल से दर्शन लाल है। बारह साल के बेटे के सामने पिटता हुआ दर्शन लाल।
रवीन्द्र कान्त त्यागी