ख़्वाब है या हक़ीक़त : – मुकेश कुमार (अनजान लेखक)

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उसके कई बार पुछने पर भी नहीं बता पाया। बस सर पर हाथ रख कर बैठा रहा। गर्मी और बरसात का मौसम ख़त्म होने के बाद जो गुलाबी और सुनहरी सर्दी आती है न, वो पुरी तरह मगरुर हो कर अपना एहसास कराने लगी थी।

पंखा भी एक नम्बर में चल रहा था और बिस्तर के उपर बीछाने वाली चादर भी ओढ़ रखी थी। शुक्रवार की रात थी तो हम सबने थोड़ी पार्टी कर के रंग चढ़ा रखी थी।

वैसे हमलोग चार लोग रहते थे, एक मेरा जिगरी दोस्त और बाक़ी सब उसके दोस्त। उसमें से एक ऐसा भी था जो पहले तो सामान्य ही था बाद में मुझे छोटे भाई की तरह मानने लगा।

ख़ैर, उस रात मैं कुछ नहीं बोला किसी से भी नहीं बोला। सब लोग बता रहे थे की मैं बिस्तर में बहुत छटपटा रहा था बिलकुल मरते हुए आदमी की तरह तड़प रहा था। अपने दोनों हाथो से गले को पकड़ कर चीख़ रहा था।

सब डर गए थे बहुत मुश्किल से मुझे शाँत कराया गया। मेरे दोस्त ने पानी का बोतल दिया तो मैं ऐसे पी रहा था मानो सदियों से प्यासा हुँ और आगे फिर कभी पानी नहीं मिलेगा।

सब सो गए लेकिन मैं दोबारा नहीं सो पाया, बार-बार वो ख़्वाब आँखों के आगे आ रहा था।

मैंने सपने में देखा थोडी-थोडी रंग ज़माने के बाद हम सब दोस्त अपने लेबोरेटरी में गए और एक-दुसरे को अपना आविष्कार दिखाने लगे। सबने कुछ न कुछ दिखाया। मेरे दोस्त नें मुझे वो मशीन दिखाई जो भविष्य में ले जा सकती थी लेकिन सिर्फ़ पचास साल।

अभी तक वो मशीन पुरी तरह बनी नहीं थी लेकिन मैं रंग में होने के वजह से जीद्द कर बैठा की मुझे जाना ही है भविष्य में। मजबूरन उसे मानना पड़ा।

उसने मुझे अलग तरह के कपड़े पहनाए और मशीन में बंद कर दिया। जब दरवाजा खुला तो एक अलग ही जगह में था मैं। यहाँ हर कोई सुअर के मुँह की तरह दिखने वाला मास्क पहना हुआ था।

मैंने देखा एक ने सोने की चमचमाती हुई छोटी सी बोतल कमर में बाँध रखा , ठिक उसी तरह जैसे लोग मोबाइल को कमर से लटकाते थे जब नया नया आया था।



हर कोई ‌अमीर नज़र आ रहा था यहाँ, मैं कोई ग़रीब देखने को तरस रहा था। पंडित, पादरी, सीक्ख, बौध, जैन और मौलवी सब एक ही जगह बैठ कर हँसी ठिठोली कर रहे थे। ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो दुनिया में अब सिर्फ़ मानवता वाली धर्म का चलन शुरू हो गया हो।

आश्चर्य ये था की सुरज की गरमी पर भी काबु पा लिया था इन लोगों ने। लेकिन आस-पास एक भी पेड़-पौधा घास-फुस फ़ुल-पत्ती कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था.

बहुत वक़्त गुज़ार दिया था उन सभी ज्ञानियों के साथ बैठ कर अब तो भुख भी लग रही थी और प्यास भी।

उन ज्ञानियों में से एक नें एक कैप्सूल दिया जिसको मुँह में रखते ही पेट भर गया और शरीर में ताजगी आ गई। लेकिन प्यास से गला सुख रहा था।

अचानक मैंने देखा सभी ज्ञानी ‌अपने कमर से लगी सोने की छोटी सी बोतल को दोनों हाथों से कस कर पकड़ने लगे और एक दुसरे से कह रहे थे उस ग़रीब (मुझे) के मुँह में थोड़ी अमृत (पानी) डाल दो।

लेकिन किसी ने भी एक बूँद नहीं दिया। बात मार-काट तक पहुँच गई।

सभी ज्ञानियों ने अपनी बिरादरी को बुला लिया और एक दुसरे को मारने-काटने को कह दिया लेकिन पानी नहीं देना है।

मैं ज़मीन पर छटपटाने लगा… तड़पने लगा… गला सुखता ही जा रहा था। मैं अपने दोनों हाथो से ‌अपना गला पकड़ कर तड़पने लग।

मेरे दोस्त ने मुझ ज़ोर से थप्पड़ मारा था तब जा कर मेरी निंद खुली और सपने से बाहर आ पाया।

पानी की बोतल देख कर सच में डर गया था की बाद में मिले ना मिले इसलिए पानी का पुरा बोतल एक साँस में ही ख़त्म कर दिया था।

मुकेश कुमार (अनजान लेखक)

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