कैसा था यह संघर्ष* – अर्चना नाकरा

पापा मुझे बहुत कुछ करना है’

हम दोनों बहनें, देखना कुछ करके दिखाएंगी!!

और ‘रमेश मुस्कुरा देते” रश्मि भी यही कहती ‘मेरी दोनों बेटियां मेरी आंखों का तारा है’

लेकिन बड़ी की जिद थी और वो ‘उस धुन पर पूरी उतरती चली गई’

‘टॉप किया  था ट्वेल्थ में’ कॉलेज में एडमिशन लिया, फर्स्ट ईयर में टॉप किया मासूम सी वह बच्ची सबका मन मोह लेती थी

छोटी वाली को लगा, दीदी इतना कुछ करके दिखा रही है तो “मैं क्यों पीछे रहूं”

पर शायद कहीं कुछ ऐसा चल रहा था जिसके ‘साक्षी सिर्फ ईश्वर थे’


सिर्फ पढ़ाई.. ना कहीं आना.. ना जाना!!

ना  ही रिश्तेदारों से मिलना!!

हरदम “चर्चा परिचर्चा” में कोचिंग ट्यूशन क्लासेस!!

रमेश व रश्मि अंदर ही अंदर खुश होते, कि उनकी बेटियां बहुत आगे बढ़ रही हैं

पर आज वही रमेश टूट चुके थे

बड़ी बेटी बिना खाए पिए पढ़ाई में ऐसी लगी… ऐसी लगी.. कि कब “कुपोषण” का शिकार होती चली गई पता ही नहीं चला..!

नाममात्र का खाना और पढ़ाई!!

‘वीडियो कॉल में चेहरा ही तो दिखता है’ और जब भी वो कहते, बेटा फल खाया कर जूस पिया करो..


तो जवाब मिलता, हां पापा !!

मैं सब कर रही हूं .ना…

एक  दिन कॉलेज से फोन आया कि वो बेहोश होकर गिर गई !

बेटी को आनन-फानन में हॉस्पिटल एडमिट कराया ठीक  भी हुई..

प्लेटलेट्स कम थे

वापस घर ले आए…  पर घर से जाते ही वो ‘फिर से बीमार हो गई’ और.. ‘अचानक फिर… कोमा में.. चली गई ‘

तब डॉक्टर साहब ने कहा था आपकी’ लड़की’

खाती पीती क्यों नहीं थी ?


और सिर्फ ग्लूकोज के सहारे जी रही थी !

रश्मि और रमेश शर्मिंदा हो गए थे.…खुद पर ..और उस शर्मिंदगी से ज्यादा जद्दोजहद थी “बेटी को बचाने की”

जब तक वो घर रही सामने खिलाते पर जब घर से चली गई..” बाहर.. पढ़ाई के लिए “

तो फिर अपना यह हाल कर लेती!!

कोमा शब्द सुनते ही रोंगटे खड़े हो गए थे

तीन महीने कोमा में रहना क्या होता है?

मां-बाप बेबसी से, बस दूर से देखते ..उसकी सांसो को महसूस करते और कुछ नहीं…

छोटी का भी बिलख बिलख कर रोना और पढ़ाई से विमुख हो जाना और भी सताता था

और एक दिन वो  ‘जागी अपने होंठ हिलाए’

छोटी उसके’ होठों को पढ़ लेती थी’


बहुत बनती थी दोनों में.. छोटी ने कहा दीदी क्या कहना चाहती हो?

बस विदाई…

सिर्फ छोटी ही समझ पाई थी..

जाते जाते वो, उसे अपना.. ‘अपने खाने-पीने  का और मम्मी पापा का ध्यान रखने को कह गई थी’

और फिर अगले दिन…ही वो दुनिया से दूर हो गई…

रमेश  बेहद व्यथित थे.. बड़ी बेटी’ क्या खुशियां लेकर गई’

 क्या ‘कुछ खोया क्या कुछ पाया’

आज उसकी तस्वीर के आगे उसके चेहरे और आंखों को देखते हुए रमेश जी ने छोटी को कहा ‘कुछ बनना है.. मना नहीं है’


लेकिन खुद के शरीर पर अत्याचार करके नहीं..!

मुझे वो सुख नहीं चाहिए जिसमें तुम ऊंचाई छूने की जिद में खुद को होम कर दो…

पता नहीं और भी ऐसे कितने बच्चे होंगे जो इस तरह खुद को खत्म कर लेते होंगे ‘परीक्षा उनके साथ माता-पिता की भी होती है’

यह बात रमेश समझ चुके थे पर एक बहुत बड़ा झटका खाने के बाद..

लेखिका अर्चना नाकरा

सत्य घटना पर आधारित कहानी

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