कर्त्तव्य-बोध –  डॉ पारुल अग्रवाल

#चित्रकथा
रात के सन्नाटे में सड़कों पर कोई शोर नहीं था, सुनाई दे रही थी तो एम्बुलेंस की वो भयवाह आवाजें। पूरी रात घरों के आस-पास,एम्बुलेंस की आवाज़ सन्नाटे को चीरकर एक डरावना माहौल पैदा कर रही थी,हर कोई घबराया हुआ था। लोगों के हाथ अनजानों के लिए भी दुआ के लिए उठ रहे थे। हॉस्पिटल मरीजों से भरे थे, बिस्तर खाली न थे, ऑक्सीजन की कमी और सांसों की टूटती डोर अपनों को दूर ले जा रही थी। डॉक्टर भी बेबस होकर अपने मरीज को अपनी आखों के सामने मौत को गले लगाते देख रहे थे। ऐसा ही हाल था कुछ डॉक्टर निखिल का, अपने 15 साल के करियर में ये पहला आयाम था जहां उनको अपनी डॉक्टर की डिग्री पूरी तरह फेल नज़र आ रही थी। शहर के सबसे प्रसिद्ध फेफड़े विशेषज्ञ होकर भी वो आज अपने मरीजों में ऑक्सीजन रूपी सांस नहीं भर पा रहे थे। एक छोटे से कोरोना वायरस ने सारी दुनिया को हिलाकर रख दिया था। लगा नहीं था कि ये परजीवी मौत को इतना सस्ता बना देगा। घर के घर खाली हो रहे थे। डॉक्टर्स जिस मरीज को रात को ठीक ठाक छोड़कर जाते थे, अगली सुबह उसके जाने की खबर मिलती थी। ऐसा ही कुछ डॉक्टर निखिल के साथ हो रहा था, अपने मरीजों को मौत के मुंह से वापिस लाने वाला डॉक्टर आज लाचार था। कोई हल नहीं था सामने। ये सब सिलसिला रुकने का नाम नहीं ले रहा था। ऐसे में उनके घर पर भी इस बहरूपिये वायरस का प्रवेश हो गया। कहीं से डॉक्टर के पिता,माता,पत्नी और बच्ची इसकी चपेट में आ गए। डॉक्टर निखिल ने बहुत कोशिश की पर अपने माता-पिता, पत्नी और बच्ची को नहीं बचा पाए। अपनी आखों के सामने,बेबस अपनी हंसती-मुस्कुराती जिंदगी को तबाह होते देखते रह गए। 


एक कमरे में अपने आपको बंद कर लिया। खूब तेज़ तेज़ चिल्ला चिल्ला कर रोने लगे। मन किया कि आग लगा दें अपनी सारी डिग्री को, कोई नहीं था आज उनको सांत्वना देने वाला, जो घर उनकी बेटी की शरारतों से गुलज़ार रहता था आज वो मरघट था। वो तो रोते-रोते सर पटक कर जान देने ही वाले थे, पर फोन था की बजे ही जा रहा था। डॉक्टर साहब को होश भी ना था। पर फिर से बजते फोन ने उनका ध्यान भंग किया, याद आया उनका दोस्त और उसकी पत्नी भी तो करोना की वजह से हॉस्पिटल में थे। किसी अनहोनी की आशंका ने दिल को घबरा दिया। फोन हॉस्पिटल से ही था, डॉक्टर निखिल जैसी हालत में थे वैसे ही हॉस्पिटल चले गए। बहुत कोशिश के बाद उनको भी बचाया ना जा सका। उनकी भी एक 6 साल की बच्ची घर पर बिना मां-बाप के रह गई थी। जाते-जाते दोस्त,डॉक्टर साहब को अपनी बेटी का पालनहार बनने का वचन दे गया। डॉक्टर साहब कर्तव्य-बोध से बंध गए।

अपनी चीत्कार को सीने में दबाकर उस छोटी बच्ची को घर ले आए। उसको घर जैसा माहौल देने की पूरी कोशिश करने लगे। उसके साथ रहने पर उनका गम कुछ बंटने लगा, दोनों का दुख भी एक था,अब दोनों ही एक-दूसरे का सहारा थे।वहीं साथ-साथ वो बाकी मरीजों की सेवा में पुनः जुट गए,बस ये सोचने लगे कि अब जो चला गया उसको तो वापिस नहीं लाया जा सकता है पर जो हैं उनको हर हालत में बचाना है,कभी तो ये मौत का तांडव रुकेगा। कई बार हमारा जो समाज के लिए दायित्व और कर्त्तव्य है वो हमें अपने आसूं और रूदन को रोककर आगे बढ़ने के लिए मजबूर कर देता है। जीना शायद इसी का नाम है।

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