दीक्षा, तीन वर्ष की रही होगी,जब उसकी माँ का देहान्त हो गया था।रिश्तेदारों ने उसके पिता को बहुत समझाया कि दीक्षा अभी बहुत छोटी है,उसके पालन-पोषण के लिए दूसरी शादी कर लो लेकिन वे नहीं माने।कहने लगे कि कौन जाने, नई माँ मेरी बच्ची को प्यार दे या न दे और फिर अपनी औलाद होने के बाद तो मेरी दीक्षा सौतेली ही हो जाएगी।
एक दिन स्कूल के पैरेंट्स-टीचर मीटिंग में उसने जब सभी बच्चों को अपने माता-पिता के साथ देखा तो अपने पिता से ‘माँ’ लाने की ज़िद कर बैठी।बेटी की इच्छा को उसके पिता नकार नहीं सके और अपने रिश्तेदारी के ही एक परिचित को ब्याह कर अपने घर ले आये।
दीक्षा अपने माँ की स्नेह-ममता की छाँव में बड़ी होने लगी।समय के साथ उसकी माँ ने उसे दो भाई भी दिये।भाई स्कूल जाने लगे और उसने कॉलेज में दाखिला ले लिया।ग्रेजुएशन पूरा होने के बाद उसने अपने पिता के समक्ष बी एड करने की इच्छा जाहिर की।पिता ने सहर्ष अनुमति दे दी।
बी एड की डिग्री मिलते ही उसे अपने ही शहर के एक स्कूल में अध्यापिका की नौकरी मिल गई।वहीं पर उसकी मुलाकात शिशिर से हुई जो उसी स्कूल में गणित अध्यापक के पद पर कार्यरत थें।शिशिर देखने में जितने स्मार्ट थें ,स्वभाव से उतने ही सरल और सौम्य।इसलिए दीक्षा उनकी ओर आकृष्ट होती चली गई।विषय भिन्न होने के बावज़ूद दोनों में घंटों बातें होती थी।
एक दिन शिशिर के माता-पिता ने दीक्षा के घर जाकर उसके पिता से अपने बेटे के लिए दीक्षा का हाथ माँग लिया।अपने हृदय पर पत्थर रख पिता ने अपनी लाडली को उसके ससुराल के लिए विदा किया।
कुछ ही दिनों में दीक्षा अपने व्यवहार से ससुराल वालों की चहेती बन गई।अपने अध्यापन-कार्य और घर के बीच उसने अच्छा सामंजस्य बिठा लिया था।
बेटी को अपने ससुराल में खुश देखकर भला कौन पिता खुश नहीं होता।दीक्षा के पिता भी प्रसन्न थें लेकिन बेटी की जुदाई उन्हें अंदर ही अंदर खाती जा रही थी और एक दिन उन्होंने बिस्तर पकड़कर लिया।बहुत इलाज कराने के बाद भी वे ठीक नहीं हो सके।
दीक्षा के पास माँ का फोन आया कि उसके पिता के पास समय बहुत कम है।वह भागी-भागी मायके पहुँची।अपने कर्मठ पिता को बिस्तर पर देख उसका कलेजा मुँह को आ गया।आस-पास माँ और भाई सहित एक वकील भी खड़े थें।उसे देखते ही वकील साहब ने पढ़ना शुरु किया ,” मैं शिवनारायण अपने पूरे होशोहवास में अपनी पूरी जायदाद अपनी पत्नी और बेटों के नाम करता हूँ।मेरे घर,व्यवसाय और रूपये-पैसे पर मेरी बेटी का कोई अधिकार नहीं होगा।” सुनकर वह हतप्रद हो गई।उसने माँ और भाई को देखा और फिर पिता के पास आकर बैठ गई।
पिता ने नम आँखों से बेटी के आगे हाथ जोड़ दिये,जैसे कह रहें हों, ” बिटिया, मैं क्या करता, तुम्हारी माँ ने मुझे अपनी कसम दे दिया था।हो सके तो इस गुनाह के लिये अपने पिता को माफ़ कर देना।” दीक्षा अपने पिता के हाथों को थामते हुए बोली, ” पापा, आपके दिए हुए संस्कार और शिक्षा ही मेरे लिए जायदाद है।आपकी दी हुई शिक्षा के कारण ही मुझे समाज में एक पहचान और प्रतिष्ठा मिली है।मेरे लिये तो वही सबसे बड़ी संपत्ति है।कागज के टुकड़ों के लिये आप नाहक दुखी हो रहें हैं।मुझे आप पर गर्व है पापा।” कहकर वह अपने पिता की आँखों से बहते हुए आँसुओं को पोंछने लगी।
बेटी की बातें सुनकर पिता के हृदय का बोझ हल्का हो गया।उन्होंने हाथ उठाकर बेटी को आशीर्वाद दिया और हमेशा के लिये अपनी आँखें मूँद ली।
लेखिका- विभा गुप्ता,बैंगलूरू
यूँ तो यह कहानी मेरी कल्पना है,पर किसी न किसी बेटी के जीवन से अवश्य मेल खाती होगी।