जंगल में रोटी – देवेंद्र कुमार Moral Stories in Hindi

हरदीप सेठ बेटे प्रताप के साथ किसी काम से अपने पुश्तैनी गाँव जा रहे थे। दोनों घोड़ों पर सवार थे। हरदीप काफी पहले शहर में आकर व्यापार करने लगे थे। वहीं बड़ा मकान बनवा लिया था। पर बीच में जब भी समय मिलता गाँव जा पहुँचते। पुराने लोगों से मिलने और अपनी पुश्तैनी हवेली में कुछ समय बिताने के लिए।
गाँव का रास्ता जंगल से गुजरता था। प्रताप का घोड़ा आगे था। तभी उसने पिता की आवाज सुनी, “घोड़ा रोको!” प्रताप ने मुड़कर देखा, पिता एक झाड़ी के पास खड़े ध्यान से कुछ देख रहे थे। वह भी पीछे चला आया। हरदीप ने कहा, “देखो, यहाँ दो रोटियाँ पड़ी हैं, इन्हें उठा लो। गाँव पहुँचकर गाय को खिला देंगे। यहाँ तो ये बेकार ही पड़ी रहेंगी।”
प्रताप ने आश्चर्य से कहा, “पिताजी ,कभी-कभी आपकी बात मेरी समझ में नहीं आती। हमारा इतना बड़ा व्यापार है। आप हर दिन दान दिए बिना भोजन नहीं करते। और यहाँ जंगल में पड़ी दो रोटियों की चिंता कर रहे हैं। गाँव पहुँचकर तो हम वहाँ की सारी गायों को कुछ भी खिला सकते हैं।”
हरदीप बोले, “बेटा, कभी-कभी एक दाना भी कीमती होता है। जानते हो, बचपन में एक दिन ऐसा भी आया था, जब मुझे भूख लगी थी और खाने को एक रोटी भी नहीं थी। मैं उस बात को आज तक नहीं भूल पाया हूँ।”
प्रताप ने आगे कुछ न कहा, वह झुककर जमीन पर पड़ी रोटियों को उठाने लगा। उसने देखा रोटियों पर मरी हुई चींटियाँ चिपकी थीं।
उसने पिता से कहा तो वह भी झुककर देखने लगे। फिर गंभीर स्वर में बोले, “ओह, ऐसा लगता है जैसे ये विषैली हों, वरना चींटियाँ मर क्यों जातीं।”
“आइए चलें।” प्रताप बोला।
1
“नहीं, सोचने की बात यह है कि विषैली रोटियाँ जंगल में क्यों पड़ी हैं? मेरा मन कहता है, किसी दुष्ट आदमी ने कोई गड़बड़ की है। हो सकता है कि किसी के साथ कुछ अघट घट गया हो। हम ऐसे नहीं जा सकते। हमें आसपास देखना चाहिए।”
दोनों घोड़ों की डोर थामे इधर-उधर देखते हुए बढ़े। बाईं तरफ टीलों में एक गुफा नजर आ रही थी। दोनों गुफा के पास जा पहुँचे। गुफा के अंदर दो आदमी पड़े नजर आए। दोनों बेहोश थे। हरदीप ने दोनों की नब्ज देखी फिर बोले, “ईश्वर की कृपा से दोनों जीवित हैं। देर नहीं करनी चाहिए। तुम झट घोड़ा दौड़ाते हुए गाँच चले जाओ।
हम गाँव से ज्यादा दूर नहीं हैं। वहाँ से डॉक्टर को अपने साथ लेकर तुरंत लौटो। एक बैलगाड़ी का प्रबंध करते आना। जब तक डॉक्टर दोनों का इलाज करेंगे, तब तक बैलगाड़ी भी आ जाएगी।”
प्रताप समझ चुका था कि मामला कितना गंभीर है। वह झट घोड़े पर बैठकर गाँव की तरफ चल दिया। इस समय एक-एक पल कीमती था। हरदीप सोच रहे थे, “कहीं प्रताप को डॉक्टर लाने में देर न हो जाए। इन दोनों के प्राण संकट में हैं।” थोड़ी ही देर में मोटरकार की भरभराहट सुनाई दी। एक नीले रंग की कार आकर वहाँ ‌रुक गई।
उसमें से प्रताप के साथ दो आदमी उतरे। उनमें एक बेहोश व्यक्तियों की जाँच करने लगा।
प्रताप ने कहा, “यह डॉक्टर हरीश हैं। संयोग से गाँव के बाहर ही मिल गए। इनकी कार के शीशे पर डॉक्टर लिखा देखकर मैंने इन्हें रुकने का इशारा किया। डॉक्टर हरीश अपने मित्र के साथ दूसरे गाँव जा रहे थे। बस, तुरंत मेरे साथ चले आए। मैंने घोड़ा वहीं एक दुकान पर छोड़ दिया। कार के कारण हम बहुत जल्दी आ गए।”
तब तक डॉक्टर हरीश ने अपना बैग खोलकर इंजेक्शन निकाला और बारी-बारी से दोनों को लगा दिया,
फिर उनकी नाड़ी देखने लगे। फिर उन्होंने कहा, “इन दोनों को तुरंत शहर ले जाकर अस्पताल में दाखिल कराना होगा। मैं इन्हें अपनी कार में ले चलूँगा।”
2
हरदीप सेठ ने प्रताप से कहा, “तुम कार में साथ चले जाओ। मैं घोड़े पर आ रहा हूँ। मुझे कुछ देर लग सकती है।”
डॉक्टर हरीश दोनों बेहोश व्यक्तियों को अपनी कार में शहर ले गए। प्रताप साथ था। हरदीप घोड़े पर उनके पीछे-पीछे चले। उन्हें शहर पहुँचने में दो घंटे लग गए। प्रताप उन्हें रास्ते में लौटता हुआ मिला। उसने कहा, “पिताजी, अब कोई डर नहीं है। दोनों को डॉक्टर हरीश ने बड़े अस्पताल में दाखिल कराया है। उनका कहना है विष ने ज्यादा असर नहीं किया। दोनों व्यक्ति जल्दी ही अच्छे हो जाएँगे।”
“ईश्वर की कृपा है।” हरदीप सेठ ने माथे से हाथ लगाकर कहा| प्रताप बोला, “पिताजी, जंगल में रोटियाँ देखकर अगर आप रुकने को न कहते तो दोनों कभी न बचते।”
तीन दिन बाद दोनों रोगियों को अस्पताल से छुट‌्टी मिल गई। हरदीप सेठ ने उनसे पूरी घटना बताने को कहा। तब तक उनके घरवाले भी आए गए थे। वे उसी शहर के निवासी थे। एक का नाम जयराम और दूसरे का जीवनलाल था।
जयराम ने पूछा, “क्या आपको जंगल में कोई और भी मिला था?”
“नहीं तो।” हरदीप सेठ ने जवाब दिया।
जयराम ने आगे बताया, “मैं, जीवनलाल और रजनीश इसी शहर में रहते हैं। हम तीनों साथ-साथ जा रहे थे। हम जंगल में घूमने के इरादे से गए थे। रास्ते में हमें एक गड्ढे में एक थैली मिली। उसमें सोने-चाँदी के बहुत सारे सिक्के थे। आसपास कोई न था। हम तीनों खुश हो गए। हमने तय किया कि पोटली के सिक्के आपस में बाँट लेंगे।“
“फिर क्या हुआ?” हरदीप सेठ ने पूछा।
3
‘’दोपहर हुई तो भूख लगने लगी। हमारे पास खाने का सामान था। पहले सोचकर आए थे कि जंगल में ही भोजन तैयार करके खाएँगे। तभी रजनीश ने कहा, “तुम दोनों आराम करो। थक गए होगे। मैं झटपट खाना तैयार कर लेता हूँ।”
जीवन लाल ने कहा, “तभी तेज हवा चलने लगी। आकाश में बादल भी दिखाई देने लगे। हम गुफा में जाकर लेट गए, फिर न जाने कब नींद आ गई। बाद में हमें रजनीश ने जगाया। उसने कहा, “खाना तैयार है।” इतनी ही देर में उसने रोटियाँ बना ली थीं। हमारे पास अचार था। हम रोटी खाने लगे, पर मैंने देखा कि रजनीश नहीं खा रहा है।
पूछने पर उसने कहा कि अभी भूख नहीं है। फिर पता नहीं क्या हुआ?”
जयराम ने पूछा, “क्या आपको गुफा में कोई सिक्कों की थैली मिली?”
हरदीप सेठ ने इनकार में सिर हिला दिया। बोले, “मुझे लगता है, सिक्कों के कारण ही तुम्हारे दोस्त की नीयत खराब हो गई। और सारे सिक्के खुद ही हड़पने की नीयत से उसने आटे में कोई विषैली चीज मिला दी। उसे रोटियों के विषैले हो जाने की बात पता थी, इसलिए उसने स्वयं रोटियाँ नहीं खाईं। फिर उन्होंने यह भी बताया कि वे गुफा तक कैसे पहुँचे थे।”
जीवन लाल और जयराम ने कहा, “अगर आप न आते तो हम उसी तरह बेहोश पड़े-पड़े मर जाते।”
“मुझसे अधिक तो डॉक्टर हरीश को धन्यवाद दो। अगर वह प्रताप को न मिलते तो फिर कुछ भी न हो पाता।” हरदीप सेठ ने कहा।
इसी बीच पुलिस ने पूछताछ की तो पता चला रजनीश अपने घर नहीं लौटा था। बाद में जंगल में तलाश करने पर एक खड्ड में एक व्यक्ति का शव मिला। पता चला कि उसकी मृत्यु ऊपर से गिरने के कारण हुई थी।वह शव रजनीश का ही था। उसके परिवार वालों ने उसे पहचान लिया। पर सिक्कों की पोटली कहीं नहीं मिली।
शायद उसने सिक्कों को जंगल में कहीं छिपा दिया था। उसने सोचा होगा कि बाद में आकर कभी सिक्के निकाल लेगा, पर सिक्के छिपाकर जाते समय वह गड्ढे में गिरकर अपने प्राण गँवा बैठा। लालच में मित्रों के साथ विश्वासघात करने का फल उसे मिल गया था।
(समाप्त )

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!