जरा सी परवाह – नीरजा कृष्णा

वो बेटी दामाद के बहुत बुलाने पर उनके घर आई हुई थीं। बहुत संकोच में रहती थीं…भला कोई कितने दिन बेटी के घर आसन जमा सकता है। दामाद विवेक को समय मिलने पर घर के कामों में वीनू की मदद करते देख बहुत अजीब सा लगता था। उस दिन  विवेकजी की छुट्टी थी। वीनू ने  माँ के साथ बाज़ार का प्रोग्राम बना लिया और बड़े अधिकार से बोली थी,

“विवेक, खाना सब टेबल पर रख दिया है। विक्की स्कूल से आएगा ,तो खिला देना। और हाँ ,शाम को थोड़ी देर हो सकती है। मेड से काम करवा लेना प्लीज़।”

उनको बेटी का इतना रौब चलाना किसी तरह पच नहीं रहा था…पर चुप थी। वहाँ अपने घर पर तो ऐसा होने पर वे मधु की हुलिया ही टाइट कर देती। और फिर उनका राजेश भी तो असली मर्द है। मधु की लगाम पूरी तरह कस के रखता है। विवेकजी की तरह जोरू का गुलाम थोड़े ही ना है।

किसी तरह बाज़ार से आई तो देखा…वीनू की सास शीला जी आई हुई हैं और बेटे की मदद से शाम के खाने की तैयारी कर रही हैं। उन्हें बहुत शर्म महसूस हुई। दौड़ कर किचन में पहुँची पर ये क्या… उन्होंने तुरंत बढ़िया चाय उनके और वीनू के आगे रख दी और साथ लाए फाफड़े भी। वो तो शर्म से गड़ी ही जा रही थीं पर वीनू तो शान से चाय पीकर उनके गले लटक कर बोली थी,

“हाय मम्मी जी, तुस्सी ग्रेट हो। आपकी मस्त चाय पीकर तो सारी थकान ही दूर हो गई। अब मैं रोटी सेक देती हूँ।”

पर शीला जी ने उन सभी को बैठा कर गर्म गर्म रोटियां भी सेकीं। वो सोच में पड़ी थी…वहाँ उनके घर पर ऐसा हो सकता था क्या? वो तो मधु की खटिया ही खड़ी कर देतीं। सब काम छोड़ कर वो बाज़ार जाने की सोच भी कैसे सकती थी। उसकी माँ दो दिनों के लिए आई थीं पर वो बराबर मुँह ही बनाए रही थी। आज सोच कर ही उन्हें स्वयं पर खीज़ हो रही थी।

रात को शीलाजी  से बोल ही पड़ी थीं,”आप वीनू को बहुत सिर चढ़ाए हुई हैं।”

वो हँसी थीं,”ऐसा आपको क्यों लगा? वीनू सारा घर सम्हाले हुई है। उसको भी तो प्यार मिलना चाहिए। वो मुझे माँ समझती है तो मैं भी उसे बेटी ही मानती हूँ। वीनू को अच्छे संस्कार तो आपने ही दिए हैं ना।”

वो एकाएक फफ़क पड़ीं,”अरे बहनजी, मैं क्या संस्कार दूँगी, आपके घर आकर मुझे  शिक्षा मिल गई है। मैं कल ही अपनी बहू मधु के पास जा रही हूँ।”

नीरजा कृष्णा

पटना

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