रागिनी जब पैदा हुई थी, उसकी माँ उसे छाती से लगाकर केवल तीन महीने ही जी पाई थी। माँ की मौत के बाद उसके पापा ने उसे जैसे-तैसे बड़ा किया। बचपन कड़की में बीता, लेकिन रागिनी की आँखों में कभी ना हौसले की, ना उम्मीद की कमी हुई। वो पढ़ना चाहती थी। दिन में सिलाई-कढ़ाई कर के जो पैसा मिल जाता, उससे अपनी कॉपी-किताबें खरीदती। स्कूल के बाद कमरे में बैठकर खुद से सपने बुना करती, “स्नातक करूंगी, फिर नौकरी… एक वर्दी वाली नौकरी।” उसकी सहेलियाँ उसकी बातें सुनकर हँसती थीं, लेकिन रागिनी के मुख पर हँसी नहीं आती थी क्यूँकि उसका सपना उसके जीने का लक्ष्य था।
लेकिन वो स्नातक पूरी करती, उससे पहले ही उसके जीवन का पाठ बदल गया। पिता ने एक दिन कहा, “एक रिश्ता आया है। लड़का ठीक है, किराने की दुकान है। मध्यम परिवार है, पर समाज में उठना-बैठना है।
रागिनी कुछ नहीं कह सकी। वो जानती थी कि उसके पास ना माँ है, ना ही कोई और सहारा है। पढ़ाई की बात उठाई तो पिता ने कहा, “बेटी, पढ़ाई कभी खत्म नहीं होती, पर अब शादी की उम्र हो गई है। मैं तुझे अकेले कब तक ढोता रहूँगा।”
बारात आई, ढोल बजे, सिंदूर भरा गया और आनन-फानन में शादी हो गई। रागिनी अपने सारे अधूरे पन्ने एक संदूक में रखकर नए घर आ गई।
मुँह दिखाई की रस्म में जब सब चले गए, तो उसने चुपचाप रमन, अपने पति से कहा था, “अगर आप इजाज़त दें तो मैं पढ़ाई पूरी करना चाहती हूँ।”
रमन ने थोड़ी देर उसे देखा, फिर कहा, “घर का कामकाज ठीक से होगा तो कर लेना।”
बस यही इजाज़त उसके लिए जीवन की सबसे बड़ी पूँजी बन गई।
अब सुबह वह सास-ससुर के पैर छूती, जिठानी के साथ चूल्हा संभालती, दोपहर में देवर के कपड़े धोती, शाम को किराना दुकान का हिसाब करती और फिर देर रात कमरे में बैठकर पढ़ती। कभी किताब हाथ में लेकर नींद आती तो आँखों में सपना होता, “दरोगा बनना है।”
वक्त बीतता गया। तीन साल के संघर्ष के बाद जब फाइनल लिस्ट आई, रागिनी दरोगा बन चुकी थी। साक्षात्कार में उसके उत्तर नहीं, उसकी आँखों की आग गूंज रही थी। एक ऐसी लड़की, जिसने बिना रिश्तों के जीवन देखा, सपनों के बिना शादी देखी और उम्मीदों के सहारे रास्ता बनाया, वो अब वर्दी में थी।
रागिनी को लगा, अब सब ठीक हो जाएगा। अब उसका सम्मान होगा। अब उसका घर, उसका रिश्ता, सब बदलेगा। परिवार का आर्थिक और सामाजिक स्तर भी सुधरेगा।
लेकिन तभी उसे नहीं पता था कि दुनिया को एक पढ़ी-लिखी बहू मंज़ूर है, पर मुँह में जुबान वाली सक्षम बहू मंजूर नहीं होती है।
शुरू में रमन थोड़ा चुप रहा, फिर धीरे-धीरे उसके शब्दों में कड़वाहट आने लगी, “आज तू दरोगा बन गई तो क्या हुआ? मैंने ही तो पढ़ाया तुझे।”
रागिनी सुनकर भी अनसुना कर देती। वो समझती थी कि ये अहं रोहित का नहीं, समाज का दिया बोझ है, जिसमें पत्नी की सफलता पति के आत्मसम्मान को चोट पहुँचाती है।
समय बीतता गया। एक दिन रोहित ने कहा, “मेरे मौसेरे भाई पर केस है, तू थोड़ा देख लेना। पुलिस में है तो फायदा भी होना चाहिए न?”
रागिनी ने सीधे कहा, “मैं गैर-कानूनी काम नहीं कर सकती।”
बस यही शब्द उसके जीवन का दूसरा युद्ध बन गए।
“लगता है तुझे छूट देकर हमने गलती कर दी।” रमन में ये कहते हुए पहली बार उस पर हाथ उठाया था।
धीरे-धीरे बातें शुरू हुईं। अब हर दिन कोई न कोई बात। कभी उसके हाथ का बना खाना ख़राब बताया जाता, कभी रिश्तेदारों के सामने अपमानित किया जाता।
जिठानी कहती, “कौन बहू ऑफिस से आकर चाय भी नहीं बनाती? दरोगा हो गई है, तो क्या अब रानी हो गई?”
सास कहती, “हमें तो बहू चाहिए थी, ये तो अफसर बनकर हमारी छाती पर मूंग दलने लगी है।”
अब हर दिन ताने और कटाक्ष से ही प्रारम्भ होते,
“जो औरत पति की बात न माने, वो औरत कैसी?”
“घर के आदमी कुछ कहें तो एक कान से सुनती है, दूसरे से निकाल देती है।”
“इतना पढ़ा दिया, अब सिर चढ़ गई है।”
“औरत को इतना भी नहीं उड़ना चाहिए।”
“रमन को चाहिए कि इसे कंट्रोल में रखे।”
और जब भी कोई मिलने आता तो जिठानी के मुंह से सुनना पड़ता, “अब ये दरोगा जी से काम करवाना हमारी औकात थोड़ी है।”
रागिनी चुप रहती रही। वह खुद से लड़ती रहती, एक ऐसी लड़ाई, जहाँ सामने कोई हथियार नहीं, सिर्फ रिश्तों से मिली पीड़ा थी।
रागिनी हर उस पल को चुप्पी साधे बर्दाश्त करती। उसे लगता अहसान का हिसाब शब्दों से चुकाया नहीं जा सकता और भावनाओं से मापा नहीं जाता। उसने सोचा कि शायद कुछ दिन में सब समझ जाएँगे। शायद कोई तो कहेगा, “तू सही कर रही है।” लेकिन हर बार, उसके इंकार पर उसे “अहंकारी”, “अहसान फरामोश”, “अभिमानी” कहा गया।
और फिर एक दिन, रमन ने कह ही दिया, “हमने तुझे पढ़ा कर गलती की। पैर की जूती थी, वही बनी रहती तो अच्छा था, बन गई दरोगा! अब घर क्या, तू हमें भी जज करने लगी है। अब इस्तीफा के साथ ही तू इस घर से कदम बाहर रखेगी।
उस रात रागिनी बहुत देर तक बैठी रही। किसी से कुछ नहीं कहा। बस एक सवाल उसके मन में बार-बार उठता रहा—
“तिरस्कार कब तक?”
क्या शादी का मतलब सिर्फ सहना होता है?
क्या पत्नी का धर्म केवल त्याग है?
क्या वो दरोगा सिर्फ अहसान के कारण बनी है। क्या उसका सपना, उसकी मेहनत, उसकी नौकरी, सब बोझ बन गई है?
कब तक वो हर रिश्ते की कीमत अपने स्वाभिमान से चुकाती रहेगी?
और तब उसने एक फैसला लिया। बस चुपचाप अपना आत्म-सम्मान उठा लिया और चली गई।
अगली सुबह, अदालत में तलाक की अर्जी दे दी।
जब उसने तलाक की अर्जी दाख़िल की, तब न केवल घर बल्कि पूरा कुनबा व मोहल्ला उसके खिलाफ खड़ा हो गया।
फिर समाज का विष वमन करता मुख खुला,
“देखो, पढ़ाई क्या हुई, पति छोड़ दिया।”
“ऐसी औरतें ही समाज को बिगाड़ती हैं।”
“अहसान भूल गई, अभी तक जो खा रही थी, पहन रही थी, किसके भरोसे?”
कोई ये नहीं जानता कि रागिनी ने जब तलाक की अर्जी दाख़िल की, तो उसका दिल भी काँपा था, नहीं अपने निर्णय पर नहीं, बल्कि इस सोच पर कि क्या हर औरत को खुद को साबित करने के लिए इतना टूटना ज़रूरी होता है?
कुछ महीनों बाद सुनवाई की तारीख आई।
अदालत की गलियारे में रागिनी अकेली बैठी थी। सामने रमन अपने परिवार के साथ खड़ा था, वही परिवार जिसने उसे दरोगा बनने के बाद “घर की औरत नहीं रही” कहकर बार-बार अपमानित किया।
जज ने पूछा, “आप तलाक क्यों चाहती हैं?”
रागिनी कुछ पल चुप रही, फिर बोली। उसकी आवाज़ धीमी थी, पर हर शब्द नुकीला था, “मान्यवर, जब मैंने मुँह दिखाई में पति से कहा था कि मुझे पढ़ाई पूरी करनी है, तो मैंने उनके सामने कोई शर्त नहीं रखी थी। मैंने घर भी संभाला, उनकी इच्छाओं का भी ध्यान रखा और हर रिश्ते को पूरी निष्ठा से निभाया। जब मैं दरोगा बनी, तो सोचा अब घर का स्तर ऊँचा होगा—आर्थिक भी, सामाजिक भी… सम्मान का भी।”
“पर मुझे जो मिला, वो तिरस्कार था।”
“मेरी सफलता को मुझ पर एहसान की तरह फेंका गया। कहा गया, ‘हमने तुझे पढ़ाया’। पर मैंने कभी मना नहीं किया इस ‘अहसान’ को। मैंने इस एहसान का चुप रहकर आदर किया।
“लेकिन अहसान का मतलब ये नहीं होता कि कोई आपको गुलाम बना ले। इंसान अहसान के बदले इज़्ज़त करता है, न कि ज़िल्लत सहता है।”
“जब मुझसे कहा गया कि मैं अपने पद का दुरुपयोग करूँ, अपराधियों की मदद करूँ, तो मैंने मना किया। क्योंकि मैं एक पत्नी के अलावा एक पुलिस अफसर भी हूँ।”
“फिर मुझे हर दिन घर में, समाज में, रिश्तों में तिरस्कार मिलने लगा। मेरी नौकरी को ‘शान’ नहीं, ‘शक’ की निगाह से देखा गया। मुझसे कहा गया कि या तो सब कुछ छोड़ दो या सब कुछ सहो।”
उसने रुककर गहरी साँस ली। रमन आग उगलती आँखों से उसे ही देख रहा था।
“मैंने नौकरी इसलिए नहीं की थी कि सिर्फ पैसा लाकर दूँ, मैंने नौकरी इसलिए की थी कि मेरी पहचान बने। लेकिन जब मेरे ही घरवालों ने कहा कि मुझे नौकरी छोड़ देनी चाहिए, क्योंकि अब मैं ‘बहुत बड़ी’ हो गई हूँ। तब मैंने खुद से पूछा, “जब मैं अपने ही घर में न्याय नहीं पा सकी, तब क्या मैं कानून की रक्षा करने के काबिल हूँ!”
“मान्यवर, मैं अकेली नहीं हूँ। मेरी तरह हज़ारों लड़कियाँ होंगी, जो शादी के बाद भी मेहनत करती हैं, पढ़ती हैं, नौकरी करती हैं और फिर भी उन्हें ये सुनना पड़ता है कि ‘हमने तुझे मौका दिया।’ क्या किसी का सपना मौका होता है? क्या किसी का संघर्ष किसी की मेहरबानी से छोटा हो जाता है?”
“जब मैं खुद कानून की संरक्षक होते हुए, अपने आत्मसम्मान के लिए प्रतिकार नहीं कर पा रही थी, तब बाकी औरतों से क्या उम्मीद करें? जो अपनी सारी तनख्वाह घर लाकर दे देती हैं और फिर भी उन्हें उनकी मेहनत की पहचान नहीं मिलती। क्या वो कभी कह पाएँगी कि ‘हाँ, ये मेरी मेहनत है’? आखिर ये अहसान भरा तिरस्कार कब तक?”
अदालत में सन्नाटा छा गया था।
कागज़ खड़खड़ाना बंद हो गया, कलम रुक गई।
रागिनी की आँखें नम थीं, लेकिन आवाज़ स्थिर थी।
“कोई ये नहीं कहता कि वह पति उसे अवैध कामों के लिए कहता था। कोई नहीं कहता कि एक शिक्षित, आत्मनिर्भर स्त्री ने घुटन से निकलने का हौसला दिखाया। मैंने ये तलाक इसलिए नहीं माँगा कि मैं आज़ाद रहना चाहती हूँ, बल्कि इसलिए माँगा कि मैं ख़ामोश नहीं रहना चाहती। क्योंकि ये रिश्ता अब सिर्फ तिरस्कार का दूसरा नाम बन गया था और केवल ताने, उपहास, कटाक्ष के साथ रिश्ता नहीं निभाया जाता, उससे आज़ादी ली जाती है।
उस दिन अदालत में फिर कोई बहस नहीं हुई। फैसला तो समय के साथ आएगा, कानूनी प्रक्रिया का अपना ढर्रा होता है। लेकिन लक्ष्मी के लिए फैसला उसी दिन हो गया था।
वो जब बाहर निकली, तो आसमान उतना ही धूपभरा था। लेकिन अब उसके कंधों पर कोई बोझ नहीं था। अब वो सिर्फ एक दरोगा नहीं थी, वो अब अपने आत्म-सम्मान की स्वयं अभिभावक भी थी।
वह जानती थी, उसके तलाक का मतलब विफलता नहीं, आत्म-रक्षा है। उसका मना करना अपराध नहीं, ईमानदारी है और उसका आगे बढ़ना पराजय नहीं, प्रेरणा है।
समाज भले अब भी पीछे पड़ा था, लेकिन अब रागिनी भाग नहीं रही थी। अब वह सीना तान कर
खड़ी थी।
वो जानती थी, तिरस्कार तभी तक है, जब तक तुम चुप हो। अब वह किसी को सफाई नहीं देती। अब वह किसी की “शिक्षा दी थी” वाली बात को सुनकर नहीं काँपती।
अब वह बस एक बात सोचती है, “मैंने सहा, क्योंकि मुझे लगता था कि रिश्ते बचाने चाहिए। अब मैं उठी हूँ, क्योंकि खुद को बचाना उससे बड़ा धर्म है।”
आज भी कई बार किसी चौक-चौराहे पर कोई पुराना जानने वाला ताना मार देता है, “अरे, वही दरोगा रागिनी, जो अपने मर्द को छोड़ आई!”
और रागिनी मुस्कराकर सोचती है—
“हाँ, वही रागिनी…. जो खुद को नहीं छोड़ सकी!”
#तिरस्कार कब तक
✍️आरती झा आद्या