जेवर – अंजू निगम

“जिज्जी, क्या सोचा? मालू की दुल्हन की गोद भराई में क्या देना है? सोना तो आग पकड़े है। पुन्नी बता रही थी कि पचास के ऊपर पहुँच गया है।”

“पचास के ऊपर!!!!! राम राम। मैंने तो इतने दिनों से सोना खरीदा नहीं। हमारे बखत तो  बीस के आस पास रहा होगा।” सुधा के चेहरे पर भी चिंता के बादल छाये।

“जिज्जी, अब करे क्या? सोना तो चढ़ाना ही पड़ेगा। दो तीन ग्राम भी पकड़े तो चौदह पंद्रह हजार के आस पास बैठेगा। अब पायल-वायल तो डालेगी नहीं ये लड़कियाँ। दे भी दो और पहने न, तो देने का फायदा क्या!!”

“आज की लड़कियों को दोष क्यों मढ़ रही हो? तुम्हीं कौन सा डालती थी। बहुत हुआ तो त्यौहार में बांध ली।”सुधा ने  कंचन को ही आढ़े हाथों लिया।

“का जिज्जी, हम पर काहे बरस रही हो। अच्छा याद दिलाई। पायल के तो इतने जोड़े रखे है, उसी में थोड़ा सोना मिला, शादी तक का इंतजाम कर लेते हैं।” कंचन समाधान निकालती है।

“हमारा तो देखे क्या बनता है। अरे!!आगे भी तो चार पाँच “भात” निपटाने है। पुराने सोने को तो हाथ लगाने का मन नहीं करता। एकदम खरा है।”सुधा माथे पर बल डालती बोली।

“आपका भी जैसे तैसे निकल ही आयेगा पर छोटे देवर कहाँ से जुगाड़ कर पायेगे? उनके हालात तो किसी से छुपे नहीं फिर उनके आगे भी तो दो बिन ब्याही लड़कियां बैठी है।” कंचन का मन दव्रित हो उठा।

कंचन फिर बोल उठी,”वैसे जिज्जी, हमारी ननद भी सोना है। सारे रिश्ते लेकर चलती है। पास पास ही सारे कार्यक्रम रखवाये है ताकि बाहर वालों को भी बार बार आने जाने का पैसा न खर्चना पड़े।”

शाम को ही तीनों भाभियों का ननद के यहाँ से बुलावा आया। सारी तैयारियाँ करवानी थी। कोछे बंधवाने, रुपयों का लिफाफा तैयार करना,फल,मेवों की डलियाँ सजाना।

चलते समय ननद बोल उठी, “अब कल से ही सारे कार्यक्रम शुरू हो जायेगे तो आप लोग यहीं आकर रहे। रौनक तो लगनी चाहिए न। पहली शादी है इस पीढ़ी की इसलिए मैं चाहती हूँ कि इसी शादी से नयी पंरपरा शुरू हो। कल गोद भराई में आप तीनों की तरफ से एक पीहर की पीली साड़ी ही चढ़ेगी। कोई जेवर नहीं क्योंकि मेरा जेवर तो मेरा परिवार ही है।”

 

अंजू निगम

नई दिल्ली

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