जख्मों की हांडी – सरिता गर्ग ‘सरि’

बहुत साधारण वस्त्र और टूटी सी पुरानी चप्पल पहने लगभग घिसटती -सी आज जब वे मेरे पास आईं , उनके हाथ में एक सीलबंद लिफाफा था। आते ही बोली मैं तुम्हें एक काम सौंप कर जा रही हूँ। मेरे जीते ही तो यह सम्भव न हुआ पर शायद तुम वह सुपात्र हो जो निश्चित रूप से इस काम को अंजाम दे पाओगे। लिफाफा मुझे थमाते हुए बोली इसमें मेरी  कहानियों की पांडुलिपि है

मैं चाहती हूं तुम इसे समेटो और पुस्तक का रूप दो।

           उन्हें मुझ पर बहुत विश्वास था और मैं उस विश्वास को टूटने नहीं देना चाहता था। मैंने चुपचाप लिफाफा पकड़ लिया और उनसे बैठने को कहा पर वो रुकी नहीं। ‘चलती हूँ ‘ कह कर जैसी आई थीं वैसी ही लौट गई। मुड़ते समय मैंने उनकी आखिरी निःश्वास सुनी थी जैसे कोई बहुत बड़ा बोझ यहीं उतार

कर जा रही हों।

           लिफाफा काफी बड़ा और भारी था। खोलकर देखा  काफी कागज  और कुछ फटे कागजों की कतरनें थीं। ऐसा लगता था जहां जब ,जो भी विचार आया ,कागज़ के फटे टुकड़े पर ही लिख डाला। बड़ी विकट स्थिति थी और मेरे धैर्य की परीक्षा भी थी। कहीं किसी कहानी का सिरा दिखाई नहीं दे रहा था और उन फटे टुकड़ों से तो कोई अंदाज ही नहीं लग पा रहा था कि ये किस

कहानी का हिस्सा हैं। खैर ,सोचा कल रविवार है आराम से देखूँगा।



           अगली सुबह पेटभर नाश्ते के बाद पत्नी से दोपहर के भोजन का मना कर अपनी लायब्रेरी में आकर बैठ गया। लिफाफा खोल कर सब कागज़ बाहर निकाले, लग रहा था कि जल्दीबाजी में लिफाफे में ठूंसे गए हैं। काम इतना मुश्किल नहीं था जितना लग रहा था।  पेज छितरे हुए तो थे मगर हर पेज पर नम्बर डला हुआ होने से उन्हें समेटने में ज्यादा वक्त नहीं लगा।

           सब कहानियों को मैंने ढंग से व्यवस्थित कर लिया। बस कुछ फटे हुए कागजों की कहानी कुछ समझ नहीं आई। उन्हें अभी ऐसे ही छोड़ दिया। आज का काम पूरा हो गया था।

         रात को कुछ देर किताब पढ़े बिना मुझे नींद नहीं आती। यह वर्षों का नियम है। मैंने सोचा क्यों न इन्हीं कहानियों को पढ़ना शुरू करूँ। पहली कहानी पढ़नी शुरू की, चाशनी में डूबे अल्फ़ाज़, और खीर सी मीठी कहानी का लुत्फ उठाता कब नींद के आगोश में चला गया पता ही नहीं चला।

        अब रोज मैं कोई कहानी चुनता ,रस लेकर पढ़ता। कभी खिलखिला उठता या मायूस हो, रजाई में मुंह ढककर सो जाता। आगे की कुछ कहानियों से दिल के जख्म रिस रहे थे । मेरी आँखों का सागर भरता और दिल का ब्लॉटिंग पेपर उसे छलकने से पहले सोख लेता उसके बाद भी जो पानी बचता वो मेरे दिल पर जमता रहा।

           आख़िरी कहानी ‘जख्मों की हांडी’ थी। उसे पढ़ते हुए मैं सोच रहा था ,इतना दर्द कोई कैसे अपने सीने में छुपा के रख सकता है। नायिका ने अंत में अपने सारे टीसते जख्म एक हांडी में पकने रख दिए। मैं सोचने लगा कहीं ये जल न जाऐं और मैंने घबराकर अपने दिल में जमा सारा पानी हांडी में डाल दिया। मगर मैं भाग नहीं सका । मेरा काम अभी अधूरा था। उन आधे फटे टुकड़ों का दर्द अलग था। घर में हर जगह कागज़ पेंसिल बिखरी रहती थी जब भी कोई दर्द रिसता, कागज़ का एक टुकड़ा उसे सोख लेता। वो सारे टुकड़े मुझे थमा गई थी और उसका सारा दर्द मेरे जिगर का लहू निचोड़े दे रहा था।मैंने बिना समय गंवाए कुछ ही दिनों में उसकी कहानियों की किताब ‘जख्मों की हांडी’प्रकाशित कर सुख की साँस ली। जिसने मुझे अपने जख्म सौंपे थे फिर मुझे कभी नहीं मिली । आज मैं उसके वही सारे जख्म किताब में कैद कर दुनिया को दे आया। जब तक वह पांडुलिपि मेरे पास रही मैं चैन न पा सका ,आज शायद सुकून से सो पाऊँगा।

सरिता गर्ग ‘सरि’

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