जड़ों से जुड़ाव – प्रीती सक्सेना

     मेरे दादाजी,, रिटायरमेंट के बाद,,, हमारे साथ ही रहे,,, बहुत अनुशासित,, गंभीर,, कम बोलने वाले,, अत्यधिक प्रभावशाली व्यक्तिव के धनी थे,,,,6 फुटा कद,, सोने की रिम वाला चश्मा,, उनकी,, शान को और बढ़ाता था,,, दादाजी,,, का पहनावा भी उनकी तरह खास था,, कभी खास तरीके से पहना हुआ,,, धोती कुर्ता और पटका,,, कभी पायजामा कुर्ता,,, कभी पेंट शर्ट,,, सर्दियों में बंद गले का सूट और ओवरकोट,,,,,, मैं अपने भाई, बहनों में दूसरे नंबर की हूं,,, माता पिता से ज्यादा जुड़ाव,, मेरा दादाजी से हो गया,,, सब मुझे दादाजी की चमची,, चमची बोलते । पर मुझे उनका साथ,, बहुत अच्छा लगता,,, बड़ा गौरव, महसूस होता था, उनके साथ रहने में।

       दादाजी के सभी काम,, सही समय पर सही तरीके से होते,,, स्कूल से आने के बाद,, मैं उन्हीं के साथ रहती,,, खाना सिर्फ मैं ही उनके साथ खा सकती थी,, किसी और को आज्ञा नहीं थी,,, बेहद सफाई पसन्द थे,, शाम को मैं उनके साथ रोज मंदिर जाती,,, सभी आरतियां,, मुझे बहुत अच्छे से ,,,कंठस्थ  हो गईं थी,, मंदिर से आकर,, बैठक लगती,, जिसमें हम सभी भाई,, बहनें शामिल होते,,, दादाजी,,, रोज रामायण सुनाते,,, फिर होता,, प्रश्नोत्तर राउंड,,, जिसमें हम लोगों में होड़ मचती,,, कौन ज्यादा सही उत्तर देता है । सही जवाब देने पर,, छोटे छोटे इनाम दिए जाते,,, धीरे धीरे,, दादाजी ने सभी भगवानों की कहानी,, हमें सुनाकर,, हमें अनजाने में ही अपनी संस्कृति से पूरी तरह जोड़ दिया।

प्रीती सक्सेना

     फिर होते भजन,,, दादाजी बहुत मधुर भजन गाते,,, मैं टेबल, तबले की तरह बजा लेती थी,, हम सभी भाई बहन,, दादाजी के साथ,, भजन गाते,,, उनकी वजह से,,, अनगिनत भजन और सम्पूर्ण रामायण हमें कंठस्थ हो गई।

आज इन सब बातों को,, होता न देखकर,,, बहुत दुख होता  है,,, समय कितना बदल चुका है,,, कितना बड़ा अन्तर आ चुका है,, तब में और अब में ।

    बीच बीच में दादाजी,,, खेती का जायजा लेने गांव जाते,,, पापा,, इकलौते बेटे थे उनके,, एक बुआ भी थीं हमारी,, दादी को लेकर जाते,,, मम्मी पूरी तरह उनकी तैयारी करके ही उन्हें,, गांव जाने देती,,, इतने पहले के समय में,, जब मम्मी,, दरवाजे की ओट में घूंघट करके खड़ी रहतीं,,, और दादाजी,,,,मम्मी की राय लेने के बाद,,, पापा से उनकी राय पूछते,,,, बेटे से ज्यादा बहू को मान देना,,, उनका बड़प्पन था,, वो भी उस समय,,, जब महिलाओं,, को इतना ज्यादा,, महत्वपूर्ण,, दर्जा नहीं मिलता था ,,,, मैं देखती,, मम्मी भी पित्रवत सम्मान देती उन्हें,,

       जब भी दादाजी गांव जाते,,, मेरा मन नहीं लगता उनके बिना,,, रोज एक पोस्टकार्ड लिखकर डालती,,, अकेले खाना भी नहीं खाया जाता,, बहुत याद करती अपने दादाजी को,, ऐसे ही एक बार वो गांव गए,,,, पर कभी न लौटने, के लिए,,,, बहुत मुश्किल से संभली थी मैं,,, आज उनकी,,, पुण्यतिथि पर उन्हें,, श्रृद्धांजलि,, देने का तरीका,, मुझे यही उचित लगा

प्रीती सक्सेना इंदौर

स्वलीखित रचना

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