जब जागो तभी सबेरा – कमलेश राणा

जब जीवन में नैराश्य का घोर अंधकार छाया हो, जीवन नैया झंझावातों के भंवर में हिचकोले खा रही हो, दूर दूर तक किनारा नज़र न आ रहा हो तब रोशनी की नन्हीं सी किरण भी उम्मीद जगा जाती है, जीने की, आगे बढ़ने की। 

नवीन के साथ भी कुछ ऐसा ही हो रहा था। वह सिविल सर्विसेस में जाना चाहता था, यह ख्वाब बचपन से ही उसकी आँखों में पल रहा था। दिन रात एक कर रखा था उसने इस ख्वाब को साकार करने के लिए पर नतीजा हर बार ज़ीरो। पांच साल से हर बार महज़ कुछ नम्बरों से रह जाता। 

धीरे धीरे निराशा हावी होने लगी उस पर, अब उसका न किसी से बात करने का मन करता न मिलने का। सारे दिन बंद कमरे में शून्य में ताकता रहता, वह खुद भी समझ रहा था कि वह अवसादग्रस्त होने लगा है पर स्थितियां उसके हाथ से निकलती जा रही थी। 

बेटे को इस हाल में देखकर माँ बाप का कलेजा मुँह को आता। बहुत समझाते उसे मगर उस पर किसी बात का कोई असर नहीं होता, उनकी नजरों के सामने ही बेटे की दुनियां वीरान होती जा रही थी। 

एक दिन उसका क्लास मेट अरुण उससे मिलने आया। वह किसी काम से रायपुर आया था और वहाँ उसे तीन दिन रुकना था। नवीन ने उसे अपने घर रुकने के लिए राजी कर लिया। रात को दोनों मित्रों के बीच बहुत सारी बातें होती रहीं ,नवीन ने मित्र के आगे मन की गिरहें खोल दी,अरुण उसकी मनःस्थिति समझ गया। 

अरुण ने उससे कहा, ” यदि एक क्षेत्र में सफलता हासिल न हो तो दूसरे क्षेत्र में संभावनाएं तलाशने में क्या बुराई है, हो सकता है भाग्य में इससे भी अच्छा कुछ लिखा हो तुम्हारे परमपिता परमात्मा ने, वह तुमसे कुछ और करवाना चाहता हो। “

सुबह दोनों मित्र बालकनी में बैठे हुए थे। उनके घर के सामने एक खाली प्लॉट था।जब पांच साल पहले अरुण वहाँ आया था तो उसमें आसपास के सारे घरों का कूड़ा डाला जाता था,,एक तरह से घूरा कहना उचित होगा उसे..

पर आज उसके स्थान पर पर्पल फूलों का गलीचा बिछा हुआ था,इतना मनोहर दृश्य कि नज़रें हटने का नाम नहीं ले रही थी।



“नवीन,यह चमत्कार कैसे हो गया,किसके दिमाग में आया यह आईडिया ।”

अरुण यह किसी ने किया नहीं है स्वतः ही हो गया है, प्रकृति का चमत्कार है यह। न जाने कहाँ से पर्पल कलर की गुल दाउदी का बीज आ गया,, धीरे धीरे करके बीज बढ़ते गये और पौधों की संख्या भी,, अब यह हाल है कि बारिश आते ही पूरे प्लॉट में नये नये पौधे उग आते हैं,, और जब वो फूलते हैं तो पर्पल गलीचा सा बिछ जाता है,, 

दृश्य इतना नयनाभिराम होता है कि देख देख कर मन नहीं भरता, अब लोगों ने कूड़ा डालना भी बंद कर दिया है। 

नवीन ऐसा नहीं लगता तुम्हें कि यह नजारा तुम्हें कुछ समझाने की कोशिश कर रहा है,जिसे हम सबसे कुरूप या गंदा समझते हैं, कभी न कभी बहार उसमें भी आती है, जरूरत है धैर्य पूर्वक इंतज़ार करने की

बिहारी का बड़ा ही सटीक दोहा है

इहि आस अट्क्यो रहत अली कली के मूल, 

फिर वे ही दिन आयेंगे, इन डारन वे फूल। 

इसका अर्थ है कि फूलों का मौसम समाप्त होने के बाद भी भौंरा पौधे को छोड़कर नहीं जाता और इस उम्मीद में उसकी जड़ से चिपका रहता है कि वे दिन फिर वापस आयेंगे और एक बार फिर डालियाँ फूलों से लद जायेंगी और फिर होगा आनंद अपार

तुम्हारे सामने इतना बड़ा प्रेरणास्त्रोत है ,अवसर तलाशने वाले तो किसी भी स्थिति में अपने लिये संभावनाएं देख लेते हैं, उनके पास न माली का बहाना होता है और न ही समय पर खाद पानी मिलने का वो विषम परिस्थितियों में भी महकते हैं और दूसरों को भी महकाते हैं,, 

ईश्वर ने हमें मानव शरीर और सुपर ब्रेन देकर दुनियां में भेजा है, यह क्या कम है, आशा का दामन न छोड़ें, खुशियाँ अवश्य दस्तक देंगी, इंतज़ार करें। 

नवीन ने अरुण को गले से लगा लिया, ” मित्र, तुमने मेरी आँखें खोल दीं। अगर आज तुम न होते तो न जाने क्या होता। “

जब जागो तभी सबेरा है मित्र, तुम्हारे चेहरे की रौनक लौट आये तो हमारा मिलन धन्य हो जाये। 

कमलेश राणा

ग्वालियर

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