गाँव – विनय कुमार मिश्रा

रामेश्वर काका का लड़का जब दसवीं में पास हुआ था, तो बाउजी पूरे गाँव को उसका रिजल्ट बताते थे। मोहन और मैं जब परीक्षा देने जाते तो रामेश्वर काका हमारे साथ जाते। सुगनी अम्मा किसी और के बच्चे को निवाला खिलाती, तो सुगनी अम्मा की बिटिया हाट बाजार में चंपा बुआ के साथ जाती। किसी एक घर में जलते हुए चूल्हे की आग गोइठे में पूरा गांव ले जाता। किसी और की लहलहाती फसलों को देख, किसी और के होठों पर मुस्कान खिल जाती। किसी और के घर में गाय बैल आने पर लगता हमारे घर कोई त्योहार है। महिलाओं से भरा आंगन ढेंकी कूटते हुए उनकी गीतों से गुलजार होता। तो बैठक में पुरुषों के ठहाकों से गांव निहाल होता। मिट्टी के कच्चे घरों में रिश्तों की मजबूती थी। उन हवाओं में अपनापन घुला हुआ था।

अब ये बातें अव्यवहारिक हो गई हैं। खासकर जिस शहर में अब मैं रहता हूँ। माँ बाउजी को यहां आये हुए तीन महीने भी नहीं हुए। हमारे बच्चों को वे चुभने लगे हैं। उनका सोसायटी में किसी से बात करना उन्हें गवई लगता है। गार्ड से हालचाल पूछना उन्हें बेवजह लगता है। बच्चों के दोस्तों के ग्रैंड मदर और फादर इंग्लिश में बाते करते हैं। अपने गांव से जुड़े दादा दादी उन्हें आउटडेटेड लगते हैं। वे अपने दोस्तों को अब घर में इसलिए नहीं बुलाते कि वे शर्मिंदा न हो।

मैंने माँ बाउजी को अब तक ये एहसास नहीं होने दिया कि बच्चे उनके बारे में क्या सोचते हैं। मन ही मन घुटते जा रहा हूँ कि उन्हें गांव से आखिर बुलाया ही क्यों था। बच्चे इस बात से नाराज हैं, कि सिन्हा अंकल के बेटे ने मेडिकल की परीक्षा पास की तो दादा दादी ने नीचे पार्क में मिठाई क्यों बांटी। क्या वे ये दिखाना चाहते हैं कि उनके लिए ये बहुत बड़ी बात है। गुप्ता अंकल के यहां बेटी हुई तो दादी सोहर गाने क्यों गई। क्या वे लोगों को ये बताना चाहते हैं कि हम कहां से उठकर यहां आ गए हैं। सफाई वाले जैसे छोटे लोगों से बातें क्यों करते हैं।



शायद हफ्ते पहले बाउजी ने ये भांप लिया हो। तभी तो उन्होंने अचानक ही गांव लौटने की इच्छा जताई। मैंने भी टिकट करा दिया है। बच्चों का एग्जाम है, मैं उन्हें ज्यादा टेंशन नहीं दे सकता। मगर ये भी सच है कि माँ बाउजी के बिना अब मेरा मन नहीं लगेगा। ट्रेन में तीन घण्टे हैं। हम लिफ्ट से उतर कर पार्किंग की तरफ बढ़े ही थे कि आश्चर्यजनक रूप से सोसायटी के लोग उनसे मिलने के लिए जमा थे। हमारे बच्चे भी हमारे साथ ही थे। सफाई वाला हाथ जोड़े खड़ा था, गार्ड की आंखों में आंसू थे, सिन्हा जी को देखकर लगा जैसे उनके माता पिता जा रहे हो, मिसेज गुप्ता  छोटी बच्ची को गोद में लिए आगे बढ़ी। ये सब देख लगा माँ बाउजी की आत्मीयता ने हमारे इस सोसायटी में भी गाँव की वही सोंधी खुशबू मिला दी हो।

मां ने उस बच्ची को अपने गोद में ले लिया

“एगो रुपया है जी, छुट्टा? बचिया को कुछो दे दें।”

बाउजी ने पॉकेट टटोल कर माँ को एक रुपये छुट्टे दिए। माँ ने पल्लू से सौ रुपये निकाल उसे लगा कर दिया।

“दुनो टाइम तेल लगाना, बहुते कमजोर है”

मिसेज गुप्ता ने गर्दन हिलाया, पर आंसू ना रोक सकीं। बच्चों के दोस्त भी इक्कठे थे।

“दादी जी फिर कब आओगी, दादाजी फिर कब आएंगे” सभी उनसे लिपट कर पूछ रहे थे। मेरे बच्चे ये सब दूर से देख रहे थें। मैंने भरी आँखों से कार का पिछला दरवाजा खोल दिया। माँ बाउजी बैठने ही वाले थे

“दादी, हमारे एग्जाम में पास होने की मिठाई तुम यहाँ नहीं बांटोगी?” हमारे बच्चों ने पास आकर कहा।

“हां दादी मत जाओ ना”

माँ बाउजी ने मेरी तरफ देखा। मैंने इससे पहले कभी बाउजी की आँखों में आँसू नहीं देखे थे।

“सब ई नालायक की गलती है, एक बार नहीं रोका, तुरंत टिकटे कटा दिया”

मैंने हँसते हुए टिकट फाड़ डाले, सभी की आंखों में आंसू मगर होठों पर हँसी थी।

आज मैंने अपने इस शहर को..अपना..गाँव होते देखा है..!

विनय कुमार मिश्रा

 

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