स्वस्ति ने शुरू से ही घर में पिताजी को काम पर जाते देखा और माँ को घर संभालते। इस दौरान उसने सदा महसूस किया कि ऐसा नहीं था कि माँ काम कोई कम करती हो बल्कि सारा दिन लगी ही रहती थी फिर भी घर में पिताजी का ही दबदबा था।जब तब दादी और पिताजी कह देते कि तुम कमाओ तो पता चले, सारा दिन घर में रहती हो तो, तुम्हें तो बस खर्च करने को मिल जाता है।
ऊपर से जबसे नौकरी वाली चाची घर में आई थी, स्थिति और बिगड़ गई थी। घर में हर काम से पहले चाची से राय मशवरा किया जाता जबकि माँ को कभी घर से बाहर के मामलों में नहीं पूछा जाता। कुल मिला कर सारा दिन खटने के बावजूद माँ की घर में कोई ज़्यादा कदर थी नहीं और इसलिए वह चाची से भी कटी कटी ही रहती।
उस उम्र में घर के इस माहौल और माँ की हालत का स्वस्ति के बालमन पर बड़ा गहरा प्रभाव पड़ा और उसके मन में ये बात घर कर गई थी कि इज्ज़त इन्सान की नहीं पैसे की होती है। बचपन से ही पढ़ाई लिखाई में वह तेज़ थी। भाग्य और उसकी मेहनत ने उसका साथ दिया और कॉलेज खत्म करते ही वह बैंक एग्जाम क्लियर कर वह एक प्रतिष्ठित बैंक में मैनेजर के पद पर कार्यरत हो गई।
शादी की उम्र जानकर घरवालों ने बैंक में ही कार्यरत सौम्य से उसकी शादी तय कर दी और शादी कर वह ससुराल आ गई। यहाँ उनके अलावा घर में सास ससुर ही थे।
घर में कुछ दिन की चहल पहल के बाद, वही रूटीन शुरू हो गया जिसमें स्वस्ति और सौम्य दोनों का सुबह आठ बजे निकल, रात आठ बजे ही आना होता। उसमें जहां सौम्य को सब टेबल पर मिलता वहीं, स्वस्ति से आशा की जाती कि वह घरेलू जिम्मेदारियों में भी बख़ूबी हाथ बटाए।
धीरे धीरे वह सामंजस्य बिठा रही थी कि इसी दौरान उसे पता चला कि वह माँ बनने वाली है और घर में खुशियां दोगुनी हो गई। घर में उसका ध्यान भी ज़्यादा रखा जाने लगा।
समय पूरा होने पर उसने एक स्वस्थ बेटे को जन्म दिया। अब उसका पूरा ध्यान घर और बेटे पर ही रहता। मातृत्व अवकाश के बाद उसने अनमने हो फिर से ऑफिस ज्वॉइन किया। पर अब जब तब उसका ध्यान बेटे पर ही रहता।वह दिन में दो तीन बार फोन करके हाल चाल पूछती। घर और ऑफिस ऊपर से बच्चे की जिम्मेदारी तले वह खुद को चकरघिन्नी सा पिसा पाती।
कहने को सास ससुर भी मदद करते,कामवाली भी थी। पर सौम्य को शुरू से ही कोई घर का काम करने की आदत नहीं थी तो दबाव सारा स्वस्ति पर ही रहता। ऊपर से हमेशा से हर चीज में बेस्ट रही ,स्वस्ति को सब कुछ परफेक्ट चाहिए था।
वो चाहे घर हो, बच्चा हो या उसकी खुद की परफॉर्मेंस काम पर हो। गाहे बगाहे कुछ न कुछ छूट जाता और फ़िर स्वस्ति का मूड खराब, कभी गुस्सा तो कभी रोना।जिसका प्रभाव अब उसके और सौम्य के रिश्तों पर भी पड़ने लगा था।
इसी दौरान उसकी चाची किसी काम से उनके शहर आई और कुछ दिन के लिए उन्हें वहीं रुकना पड़ा। चाची उसे कहती भी कि मैं कर लूंगी स्वस्ति। पर स्वस्ति थी कि उनकी आवभगत में भी लगी ही रहती।फिर कभी बच्चा रोता, कभी वह लेट हो जाती, कभी उसका खाना छूटता तो उसकी झल्लाहट।चाची देख रही थी कि इस काम और मानसिक दबाव के कारण स्वस्ति बहुत कमज़ोर हो गई थी
और घर में सभी से उसकी तू तू मैं मैं हो ही जाती। जहां स्वस्ति को लगता कि वह कमाए भी, घर का भी करे फिर सबकी क्यों सुने वहीं घर में सबको लगता कि वह बात बगैर बात झल्लाई रहती है जिससे घर का माहौल खराब रहता है।
इतवार की सुबह इसी तरह बेटे को बाहर घुमाने की बात पर तनातनी हो गई और स्वस्ति अपने कमरे में जा रोने लगी। चाची कई दिन से माहौल देख ही रही थी।कुछ सोचकर वो चाय बना, स्वस्ति के कमरे में पहुंची।
उसे चाय का कप पकड़ा, फिर उसके सिर पर हाथ फेर बोली,”स्वस्ति मेरी बच्ची!कुछ बात करें हम दोनों क्योंकि मैं इस दौर से गुजरी हूँ तो कुछ अनुभव साझा करूं तुमसे? पहले तुम बताओ क्या दिक्कत है? स्वस्ति,”(रोते हुए) चाची मेरी तो सब करके भी कोई कदर नहीं है।अब थक गई हूँ मैं।देखो न! ढंग से न मैं घर संभाल पा रही हूँ, न बच्चा और न ही नौकरी।
चाची,” (उसका हाथ अपने हाथ में लेते हुए) ओह स्वस्ति! सबसे पहले तो अपने आँसू पोंछ, ख़ुद को संभाल।l, बाकी सब फिर धीरे धीरे संभल ही जाएगा। अब सुन ध्यान से, देख नौकरी के अपने फायदे हैं कि आपकी जेब में अपना पैसा होता है। पर कुछ नुकसान भी हैं।कुछ न कुछ तो छूटेगा ही न उस पैसे और समय की एवज में। सब कहां परिपूर्ण होता है।
जो है उसका आनंद लो, जो नहीं है उसे अनदेखा भी करना सीखो।अपनी प्राथमिकताएं कुछ तय कर लो, कुछ घर के हिसाब से मैनेज कर लो और कुछ छोड़ दो।यही जीवन है।
पैसा, इज्ज़त, तुम्हारा परफेक्ट होना कुछ भी तुम्हारे तन – मन और खुशियों से ज़रूरी थोड़े है। और ये वक्त है बस तुम्हारे पास इसे जी से जी लो, यही जीवन है।वरना कल हमारी तरह कभी यहां दर्द होगा, कभी वहां।फिर बस डॉक्टर और दवाओं का ही साथ बचेगा।”
यह कह वो जाने लगी तो स्वस्ति चाची को गले लगा बोली,” आप शुरू से ही मेरी आदर्श थी, बस मैं ही नहीं समझ पाई, चाची।
आज पहली बार स्वस्ति देख रही थी चाची को ध्यान से…प्रेम से, जिनको उसने सदा उपेक्षा और माँ की प्रतिद्वंदी के तौर पर देखा, जिसने उसे एक नया पाठ पढ़ा दिया था, अपरिपूर्ण में भी परिपूर्ण हो मुस्कुराने का। कुछ छूट जाने पर खिलखिलाने का।चाची भी मुस्कुरा कर सहला रही थी उसकी पीठ, ममता और प्रेम से।
लेखिका
ऋतु यादव
रेवाड़ी (हरियाणा)