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हमनशीं (भाग 6) – श्वेत कुमार सिन्हा : Moral Stories in Hindi – Betiyan.in

हमनशीं (भाग 6) – श्वेत कुमार सिन्हा : Moral Stories in Hindi

“एक दिन सुबह। आँखें खुलते ही रफ़ीक़ ने बुझे मन से सुहाना के मोबाइल पर फोन लगाया। इसबार, सुहाना का मोबाइल ऑन था और कॉल जा रहा था । जैसे शरीर को उसकी आत्मा मिल गई हो, बिस्तर पर लेटा हुआ रफीक फुर्ती से उठ बैठा। एक-दो रिंग के बाद सुहाना ने कॉल उठाया।………

………कहाँ चली गई थी तुम, बिना बताए? कैसी हो? अम्मी कैसी हैं? तुम्हें थोड़ी भी समझ नहीं कि हमलोगों पर क्या गुजरेगी!” – बिना रुके रफ़ीक़ बोले ही जा रहा था।

“हम्म… बताऊँगी, बाद में। अभी रखती हूँ।” – यह कहकर सुहाना ने फोन काट दिया।

“मैं भी कितना पागल हूँ। इतनी सुबह फोन कर दिया। शायद सुहाना सोई थी। इसिलिए उसने फोन रख दिया होगा। अब फोन नहीं करुंगा, सीधे उसके घर पहुंच कर उसकी खबर लेता हूँ। आखिर इतने दिनों से गायब कहाँ थी वह।” – खुद से बातें करता हुआ रफीक़ मन ही मन बड़बड़ाए जा रहा था।

“अम्मी……..भाभीजान! सुहाना वापस आ गयी है। अभी उससे बात हुई। जल्दी से तैयार होकर मैं उसके घर जा रहा हूँ।” – अपने कमरे से निकल आवाज़ लगाता हुआ रफीक़ बोला।

सुहाना के वापस आने की खबर सुन रफीक़ के घरवाले बड़े खुश हुए। रफीक़ के चेहरे पर फैली चमक देख उनकी खुशी दोगुनी हो गई। 

जल्दी से तैयार होकर रफीक़ सुहाना के घर को निकला और उसके घर पहुंच कॉलबेल बजाया। सुहाना की अम्मी ने दरवाजा खोला। रफीक़ को देख उनके चेहरे पर एक दबी-सी मुस्कान उभर आयी।

“आदाब चचिजान! कैसी हैं आप? सुहाना कैसी है?”- सुहाना की अम्मी से उनका हालचाल पुछता हुआ रफीक़ सीधे सुहाना के कमरे की तरफ बढ गया।

सुहाना कमरे में बैठी कुछ लिख रही थी। रफीक़ को देख अपनी डायरी बंद करते हुए कुर्सी से उठ खड़ी हुई।  “कहाँ चली गयी थी बिना बताए! पता है, कितना फिक़्र कर रहा था मैं! घर पर भी सब तुम्हारे लिए बहुत फिक़्रमंद थें। तुम ठीक हो न, सुहाना?”- कमरे में प्रवेश करते ही रफीक़ ने सवालों के ढेर लगा दिए।

“मै खैरियत से हूँ। फिक़्रमंद होने वाली ऐसी कोई बात नहीं। कुछ बहुत जरुरी काम आन पड़ी थी। इसीलिए अम्मी के साथ शहर से बाहर चली गयी थी। मुझे लगा तुम समझदार हो, समझ जाओगे कि बिना बोले अचानक से अम्मी के साथ कहीं गयी हूँ तो कुछ न कुछ इमर्जेंसी ही होगा। और…तुम बताओ, कैसे हो? घर पर सब कैसे हैं? चिंटू कैसा है?”- सुहाना ने रफीक़ से कहा और कमरे से बाहर निकल आयी। पीछे-पीछे रफीक़ भी कमरे से बाहर आ गया।

“अम्मी, मैं नहाने जा रही हूँ। मेरे कपड़े निकाल देना।” – कमरे से बाहर आकर सुहाना ने अपनी अम्मी को आवाज़ लगा कर कहा।

“रफ़ीक़, तुम बैठो। मैं नहाकर आती हूँ। चाय पीकर जाना या फिर अगर तुम्हे ऑफिस निकलना है तो बाद में मिलते हैं।” – इससे पहले कि रफीक़ कूछ बोल पाता, सुहाना उससे यह कहती हुई बाथरूम में चली गयी।

रफीक़ को भी ऑफिस के लिए देर तो हो ही रहा था। इसलिए, वह न रुका और ऑफिस की तरफ निकल गया। ऑफिस पहुंचकर भी दिनभर सुहाना के बारे में ही सोचता रहा और फिर वहां से छुटते ही सुहाना से मिलने के लिए उसके घर की तरफ लपका। सुहाना को फूल बहुत पसंद थें, इसलिए रास्ते से फुलो का एक खुबसूरत-सा गुलदस्ता और साथ में सुहाना के लिए एक प्यार-सा उपहार लेकर उसके घर पहुंचा।

सुहाना को गुलदस्ता भेंट करते हुए अपने जेब से एक छोटी सी डिबिया निकाली और उसके ऊपर लगा रैपर हटा भीतर रखी हीरे जड़ित एक कीमती अंगुठी सुहाना की अंगुली में डालने का प्रयास करने लगा।

“यह क्या है? रफीक़, तुम जानते हो न कि मुझे महंगे गिफ्ट पसंद नहीं तो क्यु लेकर आते हो! मुझे यह सब ठीक नहीं लगता। मैं इसे नहीं ले सकती, प्लीज़ इसे अपने पास ही रखो। मुझे नहीं चाहिए।” – अंगुठी पहनने से इंकार करते हुए सुहाना अपने हाथों को रफ़ीक़ की पकड़ से छुड़ाते हुए बोली।

“जल्द ही तुम मेरी बीवी बनने वाली हो। मैं कोई गैर थोड़े ही हूँ! काफी दिनों से यह अंगुठी मेरी निगाह में थी। सोचा, तुम्हारी अंगुलियो में यह बहुत अच्छी लगेगी। इसलिए ले लिया। मना करके यूँ मेरा दिल न तोड़ो। बड़े प्यार से लाया हूँ, रख लो।” – रफीक ने सुहाना से कहा।

“तुम भी न, बहुत ज़िद्दी हो। अच्छा ठीक है, रख दो। मैं बाद में पहन लूंगी।” – यह कहते हुए सुहाना ने  रफीक़ के हाथो से अंगुठी की डिबिया लेकर सामने मेज़ पर रख दी।

“और बताओ। क्या किए इतने दिन। मेरी याद आई भी थी या मुझे भुल चुके थे। कहीं किसी और को तो नहीं ढूंढ लिया, यह सोच कर कि मैं अल्लाह को प्यारी हो गयी!” – सुहाना ने रफीक़ पर तंज़ कसते हुए कहा।

क्या पागलो जैसी बातें किए जा रही हो तुम। तुमसे पहले मेरी मौत न हो जाए। और खुदा गवाह है कि मैने तुम्हारे सिवा किसी और के बारे में कभी ख्वाबो में भी सोचने की हिम्मत नही की। तुम्हे अगर ऐसी ही बातें करनी है तो मै जा रहा हूँ।” – इतना कहते हुए रफीक़ उठकर जाने को हुआ तो अपनी बातों के लिए माफी मांगती हुई सुहाना ने उसे जाने से रोक लिया।

“अच्छा छोड़ो, ये सब। चलो, कहीं घुमकर आते हैं। पता है न तुम्हे, कितने दिन हो गए हमलोगों के साथ-साथ कही बाहर निकले हुए।” – रफ़ीक़ के ऐसा कहने पर चाहकर भी सुहाना उसे मना नहीं कर पायी और कार में सवार हो दोनों बाहर की ओर निकल पड़ें। 

“बताओ, कहाँ चलना है? – स्टीयरिंग संभाले रफ़ीक़ ने अपने बगल की सीट पर बैठी सुहाना से पूछा।

“मुझे कहीं भी घुमने की इच्छा नहीं हो रही। चलो, तुम्हारे घर चलते हैं। सबसे मिल भी लुंगी। बहुत दिन हो गए सबसे मिले।” – सुहाना ने अपनी इच्छा जाहिर करते हुए कहा।

“वो कल मिल लेना। मैं गाड़ी भिजवा दूंगा, फिर चली जाना। आज हमारा दिन है, सिर्फ मेरा और तुम्हारा। बोलो, कहाँ चलोगी?”- थोड़ी देर सुहाना के साथ खुली आसमान के नीचे समय बीताने के मूड मे रफ़ीक़ ने उससे कहा।

“फिर तुम्हे जहाँ ठीक लगे, ले चलो।””-सुहाना बोली।

रफीक़ ने एक कॉफी हाउस के बाहर अपनी कार रोकी, जहाँ वे दोनों अक्सर आया करते थें और इक-दूज़े के साथ घंटों समय बिताते। भीतर आकर रफीक़ ने दो कॉफी ओर्डर किया और खाली कुर्सी देखकर सुहाना के साथ वहाँ बैठ गया। फिर, सुहाना के हाथों को अपने हाथों में थामते हुए रफीक़ ने कहा – “इतने दिनों में मेरी याद आयी थी तुम्हे, सुहाना?”

रफीक़ के ऐसा कहने पर उसके हाथो में हाथ देते हुए सुहाना बोली- “तुम्हे याद करने की ज़रुरत नहीं, रफीक़। हर लम्हा तुम्हे मैं अपने साथ जीती हूँ। तुम्हारी अनुपस्थिति में भी मैं तुम्हारा अहसास कर सकती हूँ।”

“फिर….मैने जो अँगूठी तुम्हे इतने प्यार से दिया, उसे क्यूँ नहीं पहनी?”–रफीक़ ने सुहाना से पुछा।

“ओह! तुम यही सब पुछ्ताछ करने आए हो या साथ समय बिताने। मुझे नहीं पीनी कोई कॉफी-वोफी। चलो, घर वापस चलो।” – रफीक़ की बातो से चिड़चिड़ाते हुए सुहाना बोली।

“ग़ुस्ताखी माफ….! लो, मैं नहीं पुछता। मैने तो बस यूं ही पुछ लिया, इसमे गुस्सा होने वाली ऐसी कोई बात नहीं, सुहाना। छोड़ो वो सब, ये बताओ क्या खाओगी? तुम्हारी फेबरेट पिज़्ज़ा मंगवाऊ!” – सुहाना के गुस्से को शांत करने के लिए रफीक़ ने अपनी बातो को बदलते हुए कहा।

“नहीं, मुझे कुछ नहीं खाना। जल्दी-जल्दी कॉफी पियो, मुझे घर वापस जाना है…बस।”–सुहाना ने रफीक़ से कहा।

“क्या हुआ सुहाना, सब ठीक तो है न? तुम्हे इस जगह से कोई परेशानी तो नहीं? कहो तो कहीं और चले?” – रफीक़ ने पुछा।

“नहीं, मुझे कोई परेशानी नहीं हो रही।” – सुहाना ने बताया।

तभी बैरा कॉफी लेकर आता है और बिना कुछ कहे दोनो अपनी कॉफी खत्म कर वापस घर की तरफ लौट जाते हैं। 

सुहाना के घर के बाहर अपनी कार रोक रफ़ीक़ एकटक सुहाना को निहारता हुआ अपनी ही दुनिया में खो जाता है। रफीक़ को उसके ख्वाबों से बाहर निकालते हुए सुहाना कार का दरवाजा खोल अपने घर की तरफ बढ़ने लगती है। तभी सुहाना को अपनी तरफ खींचकर रफ़ीक उसके माथे को चुमता हुआ अगले दिन गाड़ी भिजवा देने की बात कह अपने घर की तरफ निकल जाता है।

रफीक़ को अपने आँखों से ओझल होने तक सुहाना उसे बडे़ प्यार से निहारती रहती है। रफीक़ का अपने लिए इतना प्यार देखकर उसकी आंखे भर आती हैं और अपनी आंसुओं को पोछती हुई वह घर के भीतर चली जाती है।

अगले दिन सुहाना और उसकी अम्मी रफ़ीक़ के घर पहुँची। एक-दूसरे का अभिवादन कर सभी बातचीत में व्यस्त हो जाते हैं। बहुत दिनों के बाद सुहाना को देखकर चिंटू भी काफी खुश हुआ और उसी के पास बैठ खेलने में व्यस्त हो गया।

“पता है सुहाना, तुम्हारे बिना पिछले दो महीने से रफ़ीक़ मियां अपनी सुध-बुध तक खो बैठे थे। पागलों जैसा सब जगह ढूंढा तुम्हें । तुम्हारे ग़म में खाना-पीना तक त्याग दिया था उन्होने तो। तुमसे किस हद तक मुहब्बत करते हैं, मैं उस वक़्त ही समझ पाई। बड़ी किस्मतवाली हो तुम! और एक मैं हूँ…..एक महीने के लिए भी मायके चली जाऊँ तो मेरे शौहर मियां को कोई फर्क न पड़ने वाला। सच बताऊँ, तो तुम्हारे लिए रफ़ीक़ मियां की इतनी मुहब्बत देखकर मुझे तुमसे जलन होती है।” – मुस्कुराते हुए ख़ुशनूदा ने सुहाना को बताया।

रफ़ीक़ के मन में खुद के लिए इस क़दर प्यार की भावनाओं को सुनने के बाद भी सुहाना के चेहरे पर कोई भाव न देख ख़ुशनूदा को थोड़ा अजीब लगा। पर, उसने इसे ज्यादा तवज्जो न दिया। फिर, सुहाना अपने पास बैठे चिंटू के साथ बातचीत में व्यस्त हो गयी।

सुहाना को देख रफ़ीक़ की छोटी बहन ज़ीनत उसका हाथ पकड़कर अपने कमरे में ले जाने की कोशिश करने लगी। लेकिन, सुहाना ने यह कहते हुए मना कर दिया कि आज बहुत दिनों के बाद आयी हूँ इसलिए यहीं बैठकर सबके साथ ही बातें करते हैं। सुहाना का गंभीर व्यवहार आज सबको थोड़ा अजीब लग रहा था। तभी रफ़ीक़ की अम्मी ने ज़ीनत को वहीं बैठकर सबके साथ बात करने को कहा।

ख़ुशनूदा मेहमानों के लिए चाय-नाश्ता लेकर आती हैं। पर, सुहाना कुछ भी लेने से इंकार कर देती है। फिर, सभी आपस में बातचीत करने में मशगूल हो जाते हैं। हालांकि आज सुहाना ज्यादा बात न करके हूँ-हाँ से ही काम चला रही थी या फिर चिंटू में ही व्यस्त हो जाया करती।

थोड़ी देर बाद। “अम्मीजान, अब चलने की अनुमति दें। काफी देर हो गई है। अब चलना चाहिए।””– सुहाना ने घर लौटने की अनुमति मांगते हुए कहा।

“अरे, बेटा। हमने आज खास तुम्हारी पसंद के लज़ीज़ पकवान बनवाए है। कुछ तो खाकर जाओ।”- रफ़ीक़ की अम्मी ने कहा।

“माफ करें, अम्मीजान। अगली बार आऊँगी तो जरूर खाऊँगी। आज कुछ भी खाने को जी नहीं कर रहा।” – यह कहते हुए सुहाना अपनी अम्मी के साथ घर लौट आयी।

ऑफिस खत्म होते ही प्रतिदिन की भांति रफ़ीक़ शाम को सुहाना के घर पहुंचा। सुहाना अपने कमरे में कुछ लिख रही थी। रफ़ीक़ को देखकर वह बाहर कमरे में आ गई।

“और बताओ, आज का दिन कैसा रहा तुम्हारा? घर पर सबसे मिल आई?” – रफ़ीक़ ने सुहाना से पूछा।

“रफ़ीक़, तुम यूँ रोज-रोज शाम को मिलने न आया करो। थोड़ा तो सब्र रखो। हमारी निकाह के अब कुछ ही महीने बाक़ी बचे हैं। ऐसी भी बेसब्री क्या? अगर कुछ दिन न मिलोगे तो क़यामत तो न आ जाएगी।” – सुहाना ने रफ़ीक़ से कहा।

सुहाना की बातें सुन रफ़ीक़ को बुरा तो लगा। पर, उसपर ज़ाहिर न होने दिया और बोला – “मेरा तो बस चले, तो मैं सुबह, दोपहर, शाम – दिन के पचास मर्तबे तुम्हारे घर के चक्कर लगा जाऊँ। और तुम रोज-रोज की बातें करती हो।”

“ओह, तुम समझते क्यूँ नहीं! मर्यादा नाम की भी कोई चीज होती है या नहीं। यूं रोज मिलने आते हो, बिरादरी वाले क्या कहेंगे!” – सुहाना ने झुँझलाकर कहा।

“आज तक तो लोगों ने कुछ न कहा। फिर, अचानक से अब क्या हो गया सबको?” – सुहाना की बातों से चिढ़ते हुए रफ़ीक़ बोला।

“मुझे कुछ नहीं कहना अब। तुम्हें जो समझना है, समझते रहो। पर, यूँ रोज-रोज न आया करो।” – सुहाना ने दो टूक शब्दों में रफ़ीक़ को बताया।

“”पर….हमारी तो निकाह होने वाली है। तुम बिरादरी की इतनी चिंता क्यूँ कर रही हो? – सुहाना को समझाने की कोशिश करते हुए रफ़ीक़ बोला।

“निकाह होने वाली है….। हुई तो नही है न, अभी तक। और बिरादरी की चिंता क्यूँ न करें, आखिर हमें इसी बिरादरी में ही रहना है न !” – अपनी आवाज़ सख्त करती हुई सुहाना बोली।

“ठीक है तब, मैं चलता हूँ।” – सुहाना की बातें सुन अपने गुस्से पर क़ाबू करता हुआ रफ़ीक़ बोला। तभी, कॉफी लिए सुहाना की अम्मी कमरे में प्रवेश करती हैं।

“अरे बेटा ! खड़े क्यूँ हो, बैठो न। कॉफी लायी हूँ। साथ में तुम्हारे पसंद के पकौड़े भी तले हैं। दिनभर के थके-मांदे आए हो। बैठो, कुछ खा लो ।” – ट्रे को मेज पर रखते हुए सुहाना की अम्मी बोली।

“आप सुहाना को ही खिलाएँ और मुझे इजाजत दें।” – इतना कहकर रफ़ीक़ तेज़ी से सुहाना के घर से बाहर निकल गया। सुहाना की अम्मी पीछे से आवाज़ देती रह गई, पर रफ़ीक़ न रुका। …..

अगला भाग

हमनशीं (भाग 7) – श्वेत कुमार सिन्हा : Moral Stories in Hindi

मूल कृति : श्वेत कुमार सिन्हा

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