हमारी छोरी,छोरे से कम ना है – डॉ पारुल अग्रवाल

#बेटी_हमारा_स्वाभिमान

कहते है बेटी पराई होती है, पता नहीं किसने ये रीत बनायी। क्या बेटी के पैदा होने में कम समय लगता है या दर्द नहीं होता खैर ये तो हमारे समाज की संकीर्ण सोच है पर मेरे को लगता है कि जब हम हर बात पर आधुनिकता का ढिंढोरा पीटते हैं तो इस बात पर क्यों नहीं बदल सकते ? आज भी बेटी के जन्म पर लोगों के चेहरे ऐसे लटक जाते हैं जैसे कोई मातम पसर गया हो।जबकि बेटियों को अगर उनके सपने जीने की आज़ादी दी जाए तो वो माता पिता का नाम रोशन कर सकती हैं।

ऐसी ही कुछ कहानी है अंजली की, वो और उसका पति मोहन अपने आने वाले पहले बच्चे के लिए बहुत खुश थे, समय बीतने के साथ उनका इंतजार खत्म हुआ उनके घर पर एक नन्ही परी की किलकारी गूंजी पर साथ-साथ अंजली को अपने ससुराल वालों की कुछ बातें भी सुनायी पड़ी जैसे किसी ने कहा कि लड़की हुई है अगर बेटा हो जाता तो अच्छा रहता चलो वैसे तो आजकल बेटा-बेटी में कोई ज्यादा फर्क नहीं है। किसी ने कहा अब तो दहेज की मांग बढ़ती ही जा रही है तुम तो अभी से पैसा जोड़ना शुरू कर दो। हद तो तब हुई जब उसकी खुद की ननद ने उसके पति से कहा कि भैया तू तो आज एक बड़े बोझ तले दब गया, अपनी ननद की बात सुनकर अंजली का दिल बहुत दुखा क्योंकि उसे लगा कि उसकी ननद तो खुद उसी की जेनरेशन की है खुद भी किसी की बेटी है तब ऐसी बात कर रही है, मन तो उसका किया कि अपनी ननद को चिल्ला कर कहे क्या तुम्हारे पैदा होने पर तुम्हारे मां-बाप ने भी ऐसा ही सोचा था क्या ? तुम्हारी मां तो आज भी सारे काम तुम से पूछ कर करती है इतना तो वो अपने बेटे की भी नहीं सुनती फिर तुम ये सब बात कर रही हो पर अपने संस्कारों के चलते वो चुप रही। मन ही मन वो फैसला कर चुकी थी कि वो अपने ऊपर बेटे-बेटी वाली सोच को हावी नहीं होने देगी और अपनी बेटी का हर कदम पर साथ देगी। समय थोड़ा सा और आगे बढ़ा, बिटिया बड़ी हुई,उसका नाम अंजली और उसके पति ने लावण्या रखा।

लावण्या भी बचपन से ही काफी शांत और मां की हर बात सुनने और समझने वाली थी। अंजली और उसके पति ने भी बेटी के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी, शहर के अच्छे स्कूल में उसका एडमिशन करवाया। स्कूल में शिक्षा की सारी आधुनिक सुविधाएं थी, जहां बच्चों को सारे क्रियाकलाप कराए जाते थे। एक दिन स्कूल से अंजली के पास लावण्या की कक्षा अध्यापिका का फोन आता है, हुआ यूं था कि स्कूल में स्विमिंग की भी सुविधा थी, जैसे ही लावण्या और उसकी कक्षा के बच्चों को स्विमिंग सीखने के लिए ले जाया गया तो अधिकतर बच्चे पानी को देखकर डर गए पर लावण्या बिना डरे और झिझक के पानी में गई और जो भी प्रारंभिक स्टेप्स थे बड़ी आसानी से सिख लिए। इसी से उसको आगे के प्रशिक्षण के लिए चयनित कर लिया गया था।



कक्षा अध्यापिका को माता-पिता की अनुमति चाहिए थी। सुनकर अंजली खुशी से झूम उठी। उसने और उसके पति ने अनुमति दे दी, अब लावण्या की पढ़ाई के साथ साथ स्विमिंग भी उसकी दिनचर्या में शामिल हो गया। स्कूल के अलावा अंजली अपनी लाडली को अलग से उच्च प्रक्षिशित कोच से ट्रेनिंग भी दिलवाने लगी क्योंकि वो अपनी बेटी को उड़ने के लिए खुला आसमान देना चाहती थी। बहुत सारी स्टेट और देश की स्विमिंग प्रतियोगिता जितने के बाद लावण्या का ओलंपिक में चयन हो गया। ये अंजली और उसके पति के लिए ही नहीं बल्कि सारे खानदान के लिए गर्व की बात थी। ओलंपिक में प्रतियोगिता वाले दिन सुबह से ही अंजली के दिल की धड़कन बढ़ गई थी वो भगवान के सामने से उठ ही नहीं रही थी, बात ही इतनी बड़ी थी आज उसकी लाड़ो उसके स्वाभिमान ही नहीं अभिमान का भी कारण बनने वाली थी।प्रतियोगिता शुरू हुई, कई राउंड के बाद लावण्या अंतिम आठ में जगह बना चुकी थी। अगले दो दिन बाद फाइनल राउंड था, सारा देश मेडल के लिए एक बेटी के जीतने की दुआ मांग रहा था।

आज वो अंजली और मोहन की ही नहीं पूरे देश की बेटी थी। फाइनल प्रतियोगिता शुरू हुई, कड़ा मुकाबला रहा,लावण्या बहुत आत्मविश्वास से जलपरी की तरह पानी में अपनी मंजिल की तरफ बढ़ रही थी। आखिर परिणाम की घोषणा हुई, बहुत मामूली से अंतर के साथ लावण्या देश को गोल्ड तो नहीं पर रजत पदक दिलवाने में कामयाब हो गई। सारे न्यूज़ चैनल उसकी कामयाबी की खबरों से गुलज़ार हो गए। आज अंजली और उसके पति का सर गर्व से ऊंचा हो गया जब बेटी ने अपनी कामयाबी का सारा श्रेय अपने माता-पिता को दिया।अंजली के दिल को बहुत सुकून पहुंचा क्योंकि आज उसकी बेटी ने उसका स्वाभिमान बनकर उसको बेटी होने का ताना देने वालों के मुंह पर ताला लगा दिया था। अब तो अंजली की सास भी सबसे कह रही थी कि हमारी छोरी, किसी छोरे से कम ना है और आखों ही आखों में अंजली से माफ़ी भी मांग रही थी।

दोस्तों बेटा हो या बेटी दोनों को समान अवसर उपलब्ध कराना हमारा फ़र्ज़ है। मैंने तो ऐसे बहुत सारे मां-बाप देखें हैं जो केवल बेटी वाले होते हैं पर बुढ़ापे में बेटे वाले मां-बाप से ज़्यादा अच्छा और खुशहाल जीवन जीते हैं। जब कुदरत बेटा और बेटी में कोई फर्क नहीं करती तो हम क्यों करें ? बेटियों को भी अवसर दें वो भी हमारा स्वाभिमान बन सकती हैं।

 

डॉ पारुल अग्रवाल,

नोएडा

 

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