घर लौट  चलो सुमि – पूनम अरोड़ा  

  जब  सुमेधा  मिनी  के  साथ  नई  दिल्ली  स्टेशन  पर  पहुँची  तो  झेलम एक्सप्रेस  पहले ही  वहाँ  खड़ी  हुई  थी। कोच नंबर देखकर  वे उस  पर चढ़ गए और सीट नम्बर 12 -13  देखकर उसपर  बैठ गए। बैठकर राहत की साँस  ली  और बोतल निकालकर पानी  पिया। थोड़ी  देर में  ही  ट्रेन चल पड़ी। उसने देखा कि मिनी अभी भी  नींद  की खुमारी  में  थी और  ऊपर वाली बर्थ पर सोने की तैयारी  कर रही थी। वह तो रात को कुछ देर सो भी गई  थी किन्तु बच्चों  की तो यही उम्र  होती  है धूम धमाका मस्ती करने  की और फिर बेचारी को मौका  ही  कब मिला पारिवारिक  शादियाँ अटैन्ड करने का। वह स्वयं  भी  तो अपनी भांजी  रितु  की शादी  में  वर्षों  बाद दिल्ली आई  है  नहीं  तो जब से  पूना में  सैटल हुई  है वहीं  की होकर  रह  गई  है।

माता  पिता  हैं  नहीं  भाई अमेरिका  में  सैटल है ले दे  के यही बहन बची है वो भी अपने परिवार  में  रची बसी है। यह तो रितु की शादी के  बहाने  मिल लिए  वरना अभी भी कहाँ मिलना हो पाता। मायके के नाम  पर तो बस यही और ससुराल  के नाम  पर  तो टीस उठती है।

वैसे  तो  कानूनी  रूप  से तलाक नहीं  हुआ लेकिन एक बार विच्छेद  हो गया  हो  तो फिर 

न  उन्होंने  बुलाया न  वह  स्वयं गई।

धीरे-धीरे  ऐसे  जीवन  की अभ्यस्त  होती  गई  और  इसे  नियति  समझकर  स्वीकार  कर लिया।  शुरू शुरू  में  तो अमित  ने  काॅन्टेक्ट किया था, फोन  पर  भी औपचारिक सी  बात हो  जाती  लेकिन  एक” ईगो”  की  अनदेखी दीवार  की  उपस्थिति  वे  दोनों  ही  महसूस करते  लेकिन  दोनों  ही  उसे  गिराने की कोशिश  नहीं  करते।

जब  से  पूना  ट्रांसफर  हुआ  तब  से  दूरियाँ  बढ़ती  गईं  और स्थितियाँ  हाथ  से निकलती गईं। दोनों  में  से  किसी ने  उन्हें  पकड़ना नहीं  चाहा। उसने अमित के साथ-साथ शुभम को  भी  खो  दिया और अमित  ने  मिनी को।

वह  दस   वर्ष  का  था  जब वह  तीन  वर्ष  की  मिनी को  ले  कर आवेश में  वहाँ  से चली आई थी। शुभम की  तो  स्कूलिंग  थी इसलिए  उसे  साथ  नहीं  लाई  तब  तक उसे  स्वयं ही यह पता नहीं  था कि  वो अब वापिस “यहाँ”  नहीं  आएगी। तब तो  वह उसे  खुद  छोड़  कर आई  थी बाद में  अमित ने  ही  उसे नहीं  भेजा। एक “मौन समझौता” हो गया था दोनों  के बीच कि बेटा उसके पास और बेटी सुमेधा  के पास रहेगी।




ट्रेन  आगे चल  रही थी और सुमेधा का मन पीछे पीछे ही भाग रहा था कि शुभम कितना बड़ा  हो गया होगा कैसा  दिखता होगा  क्या करता होगा? 

बहुत  दिनों  से आपस  में  न तो अमित  से न ही शुभम से बात हुई थी। एक दो बार उसने पहले वाले नंबर पर  ट्राई भी किया लेकिन “यह नंबर मौजूद नहीं है” की ध्वनि  ही  प्रतिध्वनित  हुई। अमित के बाल सफेद  हो गए  होंगें  शायद उन्होंने  दोबारा शादी तो नहीँ  कर ली होगी !ऐसे कितने ही सवाल उसके मन में  उमड़ घुमड़ कर तूफान मचा रहे थे। 

पता नहीं  कितने वर्षों  तक खुद से लड़ लड़ के उसने मन  को  इस  निरपेक्ष  बिंदु पर  स्थिर  किया था जहाँ  कोई उत्साह,  उमंग, परिपूर्णता व तृप्ति  नहीं  थी  तो कोई  उथल पुथल  व अशान्ति  भी नहीं  थी। जीवन में  एक ठहराव था, एक “स्वाभिमान  भरा गर्वित एहसास”  था। “कैरियर के इस ऊँचे  मुकाम” पर  अपने दम पर पहुँचने  की गरिमा थी और बेटी के सामीप्य  के सानिध्य  का सुखद मधुर  एहसास  था। इन सबकी वजह से ही वह अपना “टीसता अतीत”  भूलती  जा  रही  थी, फिर आज उसका मन उसे क्यों  झिझोड़  झकझोर  रहा था  शायद इसलिए  कि “आगरा” पास आ रहा था जहाँ  वो  कभी दुल्हन  बन कर आई थी। यहीं  अमित और शुभम का बसेरा है।

बार-बार  मन  में  दबी  कोई  आशा, कोई लालसा उसके मन को उद्वेलित  विचलित  कर रही थी।

उसका मन  कर  रहा था कि वो एक बार ट्रेन  से उतरकर चुपके से उस घर को, अमित को और  शुभम को  देख आए। आठ साल हो गए  उन्हें  देखे। जब वह पूना जा रही थी तो दोनों  आए थे उससे स्टेशन पर मिलने, उसने शुभम से बात करनी चाही लेकिन अपनी तरफ से उसने कोई बात करने की कोशिश नहीं  की।

वह समझ नहीं  पाई कि वो “उससे नाराज है या निराश या फिर उसके जाने से उदास।”

“भविष्य  से उदासीन  है  या वर्तमान  से  कुंठित।” ट्रेन  के  छूटते  तक बस  उसने  हाँ  हूँ  में  ही जवाब  दिया जब सुमेधा  ने उसे गले से लगाया तब भी वो निर्विकार  ही रहा। अमित तो उतनी  देर  बस  मिनी  से  ही  खेलते रहे उसको प्यार  दुलार करते  रहे।

अचानक ट्रेन के रूकने से उसकी तन्द्रा भंग हुई। आगरा स्टेशन आ गया था। उसकी धड़कनों  की गति मानो चरम सीमा पर पहुँच

गई थी। वह खिड़की  से इधर उधर  झाँकने लगी कि शायद कोई  नजर आ जाए। अमित का तो  ठीक है  लेकिन अगर शुभम नजर भी आ गया  तो  क्या  वह उसे पहचान पाएगी?

उसे  दुख  हो  रहा  था कि अगर वो अमित के ऑफिस  फोन  करके  उसका नया  नंबर  लेने की  कोशिश करती  तो  शायद आज वे दोनों  उससे  मिलने आ ही जाते।

ट्रेन  चल  पड़ी  थी वह भारी मन और बोझिल दिमाग से पुनः सीट पर बैठ गई।

तभी “excuse  me जरा साइड देंगी” की आवाज  से  चौंक  के ऊपर देखा तो एक सुदर्शन,  सौम्य, किशोर  युवक  बैग उठाए अपना सामान सैट करने की कोशिश कर रहा था। वह धक्क से रह गई  वह अपनी पहचान को  परिणिति  दे  पाती  इससे पहले  ही  एक

सूटकेस  हाथों  में  लिए  अमित वहाँ  आ गए।एक  दूसरे  को  यूँ  अचानक  देखकर खुशी, स्तब्धता और आश्चर्य  की अधिकता से कुछ समय बाद ही नार्मल हो पाए। शुभम उन दोनों  के भावों  को  देखकर  ही “माँ”  को पहचान गया। उसने  झुककर  सुमेधा  के चरण स्पर्श  किए  तो “रूका हुआ वक्त”, “रूकी  हुई  ममता” और  “रूका हुआ आवेग” सब द्रवित  हो गए। थोड़ी  देर पहले का  उसके मन का खालीपन  इतना लबालब  भर  गया  था  कि उसके  नियन्त्रण  से बाहर  हो  रहा था।आवाजों और सिसकियों  की कसमसाहट से मिनी की  नींद  खुल गई  थी और वो आँखें  फाड़  कर  नीचे  देख  रही थी।

सुमेधा  “भरे मन और रुंधे  गले” से बस इतना कह पाई “पापा, भैय्या”। मिनी तो  जैसे ऊछलकर नीचे उतरी। यह संयोग ही था कि उस  समय  उन  दोनों  सीटों  पर  कोई  नहीं  था  वरना  यह “पारिवारिक  मिलाप” इतना भावपूर्ण  न  हो पाता।

अमित  उससे  एक  अच्छे  मित्र की  तरह मिले और  मिनी  ने  दोनों  को कस  कर हग किया।




सुमेधा  का  दिल अभी  तक  खुशी से  इतना स्पंदित हो रहा था इसलिए  शायद उससे  कुछ बोला नहीं  जा  रहा था  लेकिन  वे  तीनों आपस में  बहुत-बहुत  घुलमिल गए थे और खुल भी गए थे। न जाने कब कब की बातें,  शिकायतें,  उलाहने, स्मृतियाँ, एहसासों  को  वे शेयर कर रहे थे।

सुमेधा  के दिल  की  कसक टीस बन  के उसके अन्तर्मन को  झकझोर  गई। उसे अब एहसास  हो  रहा था  कि उसने क्या खो  दिया है। यह “छोटा सा सुख” उसे अमूल्य अनमोल  जान पड़  रहा  था। परिवार के लोगों का एक साथ होना, उनके  दुख  में  दुखी, खुशी में  खुश होना, उन्हें  बढ़ते हुए  देखना, उनकी जिम्मेदारियों  को निभाना, उनकी सुविधाओं  का ध्यान रखना, भाई  बहन के  झगड़े, पति पत्नी की  मीठी झड़प, बच्चों  की छोटी  छोटी  सफलताओं  पर  गर्व  से अभिभूत  हो जाना, आज ये  उपलब्धियां उसे  बेहद  मूल्यवान लग रही थीं।

“व्यक्ति  के जीवन में  जिस चीज का अभाव होता है उसका मूल्य भी  उसे  तभी पता चलता है।” इन  छोटी-छोटी  खुशियों  के अभाव में  उपजी  शून्यता बहुत बड़ी  होती है। सुमेधा इस शून्यता  के  साथ  साथ अपराध  बोध भी महसूस  कर रही थी। उसने अपने जीवन को तो  विषाक्त  बनाया  ही बच्चों  से  भी उनके स्वाभाविक  बचपन  की  मिठास  को  छीन लिया  यदि   दोनों  ने अपने अपने “अहं” को तवज्जो  न  देकर  आपस  में  सामंजस्य  से स्थितियों  को  संभाला  होता  तो  शायद “आज” यह “आज” न होता। तब  उसे वह बात “अस्तित्व  और  व्यक्तित्व”  की  लड़ाई  लग  रही  थी और आज  अपनी “जिद और अहं”  नजर आ  रहा  था।

शादी से पहले ही  वो अपने “कैरियर” को ले के  बहुत  महत्वाकांक्षी  थी। वह एक बड़ी  मल्टीनेशनल  कंपनी मे जाॅब कर रही थी ।अपनी निष्ठा और मेहनत  के बल पर उसने बहुत जल्दी  ही प्रतिष्ठित पद, तरक्की और सम्मान  प्राप्त  कर  लिया  था। अमित को भी उसके जाॅब  करने  से  कोई  आपत्ति  नहीं थी ।शुभम  के  होने  के बाद भी  वह जाॅब करती रही  क्यों कि सास  घर  पर  रहती थी  और उनकी  सहायता करने  के  लिए  मेड भी थी।फिर  मिनी का जन्म  हुआ और उसके कुछ समय  बाद  ही सास  को आशिंक रूप से पक्षाघात  हो गया। वे अधिकतर  बिस्तर पर ही रहती  तब अमित  ने  उसे परिवार  संभालने के लिये  नौकरी  छोड़ने  पर विवश  किया।

सुमेधा  मिनी के  होने  से पहले  ही छुट्टियों  पर थी अब कितनी छुट्टियाँ  और ली जा सकती थीं वह फिलहाल एक दो माह और बिना वेतन की छुट्टियाँ  ले सकती थी। इसी बीच इस समस्या  के समाधान भी खोज लेगी लेकिन  नौकरी छोड़ने  का  वह  सोच भी नहीं सकती। अमित तो  लेकिन  किसी और “ऑप्शन”  पर सोचना ही नहीं चाहता था वह कहता कि “ऐसी स्थिति में  मेड पर  घर को  नहीं  छोड़ा जा सकता और कोई आर्थिक  अभाव भी  नहीं  था फिर नौकरी की ऐसी जिद क्यों?  यदि योग्यता  और क्षमता है तो नौकरी पुनः भी प्राप्त  की जा सकती है”। लेकिन  सुमेधा  गृहस्थी  के  इन  पचड़ों  में  पड़कर  अपना  कैरियर  दाँव  पर  लगाने  को तैयार  नहीं  थी और  वो  भी  ऐसे  समय जब चार छैः महीनों  में  उसे  असिस्टेंट  मैनेजर की पोस्ट  मिलने वाली थी। यह मुद्दा इतना बढ़ा कि दोनों  में  से  कोई  झुकने के  लिए  तैयार  नहीं हुआ। दोनों  ने  इसे  “अपनी अपनी  ईगो  का इश्यू” बना लिया था। आखिर आवेश  में  सुमेधा  छोटी  मिनी  को लेकर अपने मायके आ गई  और  शादी से पहले वाली  ब्रांच  में  अपना  ट्रांसफर  करा  लिया।

बाद  में  उसे  प्रमोट करके “पूना हैड ऑफिस”  में  भेजा गया तब  से  वो  वहीं

है। उसकी ऑफिस  में  एक ऊँची  पाॅजीशन है रूतबा है, लेकिन वो  सब आज इस  क्षणिक  सुख  के आगे  फीका  लग  रहा  है। उसे एहसास  हो  रहा था  कि उसने “ज्यादा खोकर कम पाया” है।

“सफलताओं,  उपलब्धियों की  खुशी  जो परिवार  के साथ  रहकर अमूल्य  हो  जाती है, उनके बिना  वह मूल्यहीन और अपूर्ण  लगती है।” पता  नहीं  अमित ये सब एहसास  कर रहे  थे  या नहीं  लेकिन  बीच बीच में  उसे देखकर  उसकी  मनःस्थिति  समझ गए  थे। इसलिए बच्चों  के पास  से उठकर उसके पास आ गए थे  और  उसे  बताया  कि वे  शुभम को एन्ट्रेस  एग्जाम  दिलाने पूना  के  ही  एक संस्थान  में  जा  रहे थे। सोचा था “तुम्हारे ऑफिस  में  अचानक  पहुँच  कर  तुम्हें  सरप्राइज  देंगे  लेकिन  तुमने तो  हमें  ही सरप्राइज  दे  दिया।  वैसे अच्छा  ही  हुआ  ऑफिस  के  औपचारिक  वातावरण  में  यह होमली  फीलिंग  नहीं  आ  पाती  जो  यहाँ  दिख रही है।”

सुमेधा  ने  भी  घर  की बातें  पूछी-बताईं। सास के  देहावसान  का तो उसे पता ही था। बहुत  कुछ  था  शेयर  करने  को  सब  कहा नहीं  जा पा  रहा  था  लेकिन  वातावरण  हल्का – फुल्का  हो  गया  था  सब  एक  दूसरे  से अनौपचारिक  होकर  बात  कर  रहे थे।

बच्चों  को भूख लग आई थी। सुमेधा  ने बाॅस्केट खोलकर खाना लगा  दिया। खाना काफी  था, सबको  पूरा हो  गया। आज सबको एक साथ इस  तरह  खाते  देख  सुमेधा  की “बरसों  की तृषित  आत्मा  तृप्त”  हो  गई।

थोड़ी  देर  में  कार्ड  निकाल  कर वे  सब खेलने  बैठ  गए उसे भी ऑफर  किया  लेकिन वह  खेलने से  ज्यादा  उन्हें  खेलते  देखने में  अधिक  परितृप्त  हो  रही  थी।

पूना  पहुँचकर  सुमेधा  आग्रह  पूर्वक  उन्हें अपने  घर  ले गई। हालाँकि वे  हिचकिचा रहे थे  और अगले  दिन आने  के  लिए कह  रहे थे लेकिन  शायद  उनका मन  भी अलग होने का नहीं  कर रहा था। अब शुभम भी पहले की तरह  खिंचा  हुआ नहीं  लग रहा था काफी आत्मीयता  से  पेश आ रहा  था और मिनी से तो  बहुत  खुल गया था।

शुभम  और अमित  को  मिनी  का  रूम दिया गया और  वह  और  मिनी एक  ही कमरे  में  शिफ्ट हो गए।

सब  थके  हुए थे इसलिए समय से ही सो गए। 

सुबह  तैय्यार  होकर  अमित  शुभम  को काॅलेज  ले  गए। आकर सबने एक साथ समोसे और चाय  का लुत्फ उठाया।




शाम  को  सब  पास की मार्केट  में  घूमने  चले गए  व  डिनर  भी  बाहर  ही  किया। अगले पूरा  दिन  “पूना दर्शन”  का प्रोग्राम  था और उसके अगले  दिन उनकी वापसी  की टिकट थी। पुणे दर्शन  के दौरान उन सबने भरपूर एन्जॉय  किया  व अपनी  ज़िन्दगी  का सबसे खूबसूरत  दिन जिया। आपस में  किसी के

कोई  दीवार  महसूस  नहीं  हो रही थी।

जितना सुमेधा इस  खुशी को  ह्रदयस्थ कर रही थी उससे ज्यादा  उनके  जाने की  विह्वलता उसे खाए जा रही थी। इतनी “खुशी, प्यार, एहसास  को  दोबारा  खो  देने” के डर से उसका मन डूब सा  रहा था।

घूमकर आकर  खाना  खाते  समय  ही  मिनी उनके  जाने  की  वजह  से  उदास होकर रोने लगी। वह रोते रोते  सुमेधा  से कहने लगी “मम्मा  इनसे  कह दो न  कि न जांए, रोक लो ना प्लीज़।” अमित  और  शुभम  ने  ऐसे  उसे रोते  देख  बहुत  प्यार  से गले  लगाया। यह एक पल था जब “सबकी आँखें नम, गले रूँधे और  मन भारी थे।”




सुमेधा ने भी भरे गले से  उनको और रूक जाने का अनुनय किया। अमित ने कहा कि “मन तो मेरा भी कहाँ  है जाने का लेकिन फिर रिजर्वेशन  नहीं  मिलेगा। चलो देखता हूँ  कुछ करता हूँ।” इतनी तसल्ली  मिलने पर  ही मिनी खुश  हो गई और  शुभम  के साथ जाकर कमरे में  मूवी  देखने  लगी। वह अमित  के साथ आकर  बाहर  बाॅलकनी में  बैठ गई । कुछ देर दोनों  ऐसे  ही  बिना बोले  बैठे रहे। उनके “अनकहा मौन” वो” सब  कुछ  बयाँ  कर रहा था जो  वे  बोलकर  नहीं  कह  पा  रहे  थे।

“निशब्द  होकर जो  वे  कह रहे  थे, वो दूसरा समझ रहा  है, यह भी एहसास कर  रहे थे।”

ख़ामोशियों  की  भी अपनी  एक भाषा होती है जो  हमारे  शब्दों  से  ज्यादा  गहरी और संवेदनशील  होती है। कभी  कभी  “खामोशियां  वो  कह जाती  हैं  जिनकी अक्सर  हमें  लफ्जों  में  तलाश  होती है।”

तभी  तो  मौन  उन्हें  अखर  नहीं  रहा  था बल्कि  सुखद  ही  लग रहा था। एक दो घंटे में  मुश्किल  से  उन्होंने  एक  दो  बात  ही  की होगी  लेकिन  हर क्षण एक दूसरे  के सामीप्य और  सानिध्य  के  माधुर्य  को महसूस  किया।मूवी  खत्म  होने  पर  जब  बच्चे  आए  तो उनकी  मदहोश  तंद्रा  टूटी।




दोनों  अपने अपने  कमरों  में  चले गए लेकिन  नींद  दोनों  को  ही नहीं  आई। आज सुमेधा चाह  रही  थी  कि अमित  एक  बार  उसे  कह दे  घर  वापिस  चलने  के  लिए  तो  वह  यह नौकरी,  पद प्रतिष्ठा,  सब  छोड़कर  चली जाएगी  उसके  साथ  लेकिन  उसे  पता  था  कि  वो  नहीं  कहेगा। अगर  कहना  ही  होता तो  आठ  साल  पहले  उसे  मनाकर  घर  ले जाता  अब  तो  दोनों  एक  दूसरे  के  बगैर जीना  सीख  गए गए  हैं।

चार  बजे  उठकर  वो  इधर उधर  बैचेन  सी घूमने  के  बाद  रसोई   में  चाय बनाने  चली गई  तभी  पीछे  से अमित  भी आ गए। “चाय बना  रही  हो  मेरी  भी  बना  दो  मुझे  भी तुम्हारी  तरह  रात  भर  नींद  नहीं  आई ।” 

सुमेधा  ने  प्यार  और आश्चर्य  से उनकी 

तरफ देखा  तो  वह  उसके  बिलकुल  करीब  आ  गए। उसका  हाथ  पकड़कर  आग्रह  और अधिकार  से बोले “घर  लौट चलो  न  सुमि, तुम्हारे  बगैर  हमारा  मन सूना , घर रिक्त और परिवार  अधूरा है।   

इतने  वर्षों  बाद  स्नेहासिक्त  प्यार  और अपनेपन  के  स्पृश  की  गरमाहट  ने  बरसों  की  जमी संवेदनाओं की  बर्फ  को  पिघला दिया। आंसुओ  के  रूप  में  घुल  घुलकर  वो  बर्फ  अब अमित  की  शर्ट  को  भिगोती  जा  रही  थी।    

#परिवार                                                                

स्वरचित——-पूनम अरोड़ा

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